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सरकार महंगाई कम करने के लिए किसानों की बलि क्यों दे रही है ?

भावांतर योजना

‘देश में जैसी ही खाने-पीने की चीजों के दाम बढ़ते हैं राजनीतिक पार्टियों के नेता टीवी पर आकर महंगाई का रोना शुरू कर देते हैं। पार्टियों के एजेंट फल सब्जी की माला पहन कर रोड पर आ जाते हैं। लेकिन जब किसान को सही दाम नहीं मिलता तब कोई भी राजनीतिक पार्टियां नहीं रोतीं। रोता है, तो केवल किसान और उसका परिवार।’

भगवान सिंह मीणा

2014 में बीजेपी दो मुद्दों की वजह से चुनाव जीतकर सत्ता में आई थी। वे मुद्दे थे महंगाई और भ्रष्टाचार, साथ ही किसानों को लागत पर 50 % मुनाफा देने का वादा भी घोषणा पत्र में किया गया था। किसानों ने भी जमकर वोट दिया। सरकार बनने के बाद किसानों ने सोचा कि अच्छे दिन आएंगे। भ्रष्टाचार कम होगा। यानि जो काम तहसील कार्यालय से लेकर राजधानी तक बिना रुपए दिए नहीं होता है वह अब होने लगेगा। देश का किसान सोच रहा था कि महंगाई कम होगी जैसे पेट्रोल, डीजल, रासायनिक खाद, दवाइयां साथ ही खेती में उपयोग होने वाली वस्तु एवं आम जीवन में काम आने वाली वस्तु सस्ती होगी।

लेकिन किसान को कहां पता था कि देश में महंगाई का मतलब क्या होता है। जब तक किसानों को महंगाई की परिभाषा का पता चला तब तक बहुत देर हो चुकी थी। भारत में महंगाई को केवल खेती से उत्पन्न वस्तुयों के दाम बढ़ने पर ही माना जाता है। जैसे दाल, सब्जी चावल, गेहूं, आलू, प्याज, दूध इत्यादि। जैसे ही देश में इन वस्तुओ के दाम बढ़ते हैं महंगाई बढ़ने के नाम पर राजनीतिक पार्टियों के नेता टीवी पर आकर महंगाई का रोना शुरू कर देते हैं। और राजनीतिक पार्टियों के एजेंट फल सब्जी की माला पहन कर रोड पर आ जाते हैं। लेकिन जब किसान को सही दाम नहीं मिलता तब कोई भी राजनीतिक पार्टियां नहीं रोतीं। रोता है, तो केवल किसान और उसका परिवार।

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भारत में महंगाई दर की गणना करने की विधि गलत है। सीपीआई में कृषि से उत्पन्न खाने-पीने की वस्तुओं का 46 फीसदी रखा गया है। और उद्योगों से उत्पन्न वस्तुएं जो हमारे लिए अति-आवश्यक हैं, साथ ही सेवाएं जो बहुत जरूरी है उनका प्रतिशत कम रखा गया है ।

जब 2014 में नई सरकार आई तो उस समय मूंग का भाव 7500 से 8000 रुपए कुंतल बिक रहा था। आज वह 3000 से 4000 रुपए कुंतल बिक रही है। उड़द 11000 से 12000 रुपए कुंतल बिक रही थी। आज वह 2200 से 3000 रुपए कुंतल बिक रही है। आलू 30 रुपए प्रति किलो बिक रहा था। वह 2018 में 50 पैसे किलो बिक रहा है।

जब 2014 में नई सरकार आई तो उस समय मूंग का भाव 7500 से 8000 रुपए कुंतल बिक रहा था। आज वह 3000 से 4000 रुपए कुंतल बिक रहा है। उड़द 11000 से 12000 रुपए कुंतल बिक रही थी। आज वह 2200 से 3000 रुपए कुंतल बिक रही है। तुअर 10000 रुपए कुंतल बिक रही थी, आज वह 3200 से 4000 रुपए कुंतल बिक रही है। आलू 30 रुपए प्रतिकिलो बिक रहा था। वह 2018 में 50 पैसे किलो बिक रहा है। इन सभी फसलों के दाम कम होने का कारण वर्तमान केंद्र सरकार है। देश में बम्पर उत्पादन होने के बाद भी सरकार ने विदेश से फसलों का आयात किया। फसलों के वर्तमान भाव की पुष्टि हम मध्यप्रदेश कि भावान्तर भुगतान योजना के मॉडल रेट से कर सकते हैं जिसमें देश भर की मंडियों से रेट लिए गये हैं।

भारत में 2016-17 में 2.3 करोड़ टन दाल की पैदावार हुई थी। इसी सीजन में 56.8 लाख टन दलहन का आयात हुआ। इसी बीच सितम्बर 2016 में भारत ने 27.4 लाख टन दाल का आयात कनाडा, मालेशिया, अफ्रीका और दूसरे देशों से किया। जबकि भारत दुनिया में दलहन उत्पादन का 25 फीसदी उत्पादन करता है। दुनिया का बड़ा उत्पादक देश होने के बावजूद देश की सरकारें किसानों के साथ खेल खेलती रही हैं। चाहे वह बीजेपी की सरकार रही हो या कांग्रेस की। 2006 में कांग्रेस की सरकार ने महंगाई कम करने के नाम पर दालों के निर्यात पर रोक लगा दी। नतीजा ये हुआ की देश में दलहन फसलें कौड़ियों के दाम बिकने लगीं। सरकार ने निर्यात से सितंबर 2017 में रोक हटाई।

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अगर हम दूसरी फसलों की बात करें तो सरकार ने 2016 -17 में गेहूं पर आयत शुल्क 25% से घटा कर 10 % कर दिया, फिर शून्य प्रतिशत कर दिया। जबकि देश में गेहूं का भाव समर्थन मूल्य पर ही चल रहा था। साथ ही देश में गेहूं के उत्पादन में प्रतिवर्ष 8 से 10 प्रतिशत की बढ़त ले रहा है। भारत में मार्च 2017 में 40 लाख टन गेहूं का आयात किया। ये सारी कवायद महंगाई कम करने के लिए की गई, जिससे किसानों को गेहूं समर्थन मूल्य से नीचे बेचना पड़ा।

आज देश में आलू को लेकर हाहाकार मचा हुआ है। किसान आलू फेंक रहे हैं। सरकार ने जुलाई 2016 में आलू न्यूनतम निर्यात मूल्य (mep ) 360 डाॅलर प्रति टन तय किया। यह वह समय था जब आगरा की थोक मंडी में आलू 15.25 रुपए प्रति किलो बिका रहा था और राष्ट्रीय राजधानी के खुदरा बाजार में 35 से 40 रुपए किलो बिक रहा था । आज वही आलू आगरा में काैड़ियों के दाम बिक रहे हैं। ये सब सरकार के बार-बार आलू पर निर्यात मूल्य लगाने के कारण हुआ है ।

सरकार यही नहीं रुकी। सभी फसलों के बम्पर उत्पादन होने और इतने कम भाव होने बाद भी सरकार ने 2017-18 में 3 लाख टन तुअर का आयात किया । 85 हजार टन और आयात करने जा रही है। चने का 10 लाख कुंतल आयात नवंबर में किया । गेंहू का आयात भी हो रहा है। सरकार 14 फसलों के समर्थन मूल्य घोषित करती है। कुछ फसलों को समर्थन मूल्य पर खरीदती है। परन्तु 6 प्रतिशत किसानों को ही इसका लाभ मिल पाता है। किसानों को 2017 खरीफ सीजन में फसलों के समर्थन मूल्य से कम भाव मिलने के कारण 3600 हजार करोड़ का नुकसान हुआ है। अगर लागत के आधार पर देखें तो 2 लाख करोड़ का नुकसान हुआ है ।

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सरकार ने महंगाई दर कम करने और आंकड़ों की कलाबाजी करने के लिए जो नीति बनाई उसमें वह सफल रही है। क्योंकि किसान की फसल के दाम तो कम हो गये। बाकि सभी चीजे महंगी हो गईं। ये सब किसान ने चुपचाप सह रहा है और सहता आया है। लेकिन किसान की जगह उद्योगपति होते तो देश में हंगामा हो गया होता। यही कारण है कि सरकारें बार-बार किसानों की ही बलि चढ़ाती है। सरकारें किसानों को वोठ तो मानती है लेकिन काम उद्योगों के लिए करती है। अब किसानों को अपना महत्त्व समझना होगा। नहीं तो सरकार किसानों की बलि चढ़ाते-चढ़ाते एक दिन किसान समाज को ही ख़त्म कर देगी।

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(लेखक आर्थिक विषयों के जानकार हैं आैर राष्ट्रीय किसान मज़दूर संघ के प्रवक्ता एवं संस्थापक सदस्य है)

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