आम तौर पर यही माना जाता है कि आदमखोर हो चुके तेंदुए को फौरन उस इलाके से हटा देना चाहिए। लेकिन यह समस्या का स्थाई समाधान नहीं है। क्योंकि कुछ महीनों बाद, कोई दूसरा तेंदुआ फिर से शिकार करने लगता है। पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में आदमखोरों का इतिहास तो यही बताता है। इंसानों और जानवरों के एक-दूसरे पर होने वाले हमलों का यह दुष्चक्र तभी रुक पाएगा जब इनके लिए जिम्मेदार कारणों को समझने की कोशिश की जाएगी।
हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में इंसानों पर हुए तेंदुए के हमलों की घटनाओं का चार साल तक अध्ययन हुआ। इसके बाद वाइल्ड लाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया ने कुछ नतीजे निकाले। उसके हिसाब से, उजड़ रहे जंगल, ऊंची-ऊंची जंगली घासें और अलग-थलग बसे गांव – ये कुछ कारक थे जो इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार थे।
अब वन्य अधिकारी इन नतीजों के बाद क्या करें? क्या वे जंगली खरपतवार काट डालें या गांव वालों को कहीं और बसा दें? मान लिया जाए कि ये उपाय व्यावहारिक हैं तब भी क्या इससे तेंदुए के इंसानों पर हमले बंद हो जाएंगे? जिन दूसरे इलाकों में ऐसी ही परिस्थितियां हैं क्या वहां भी यही समस्या है? मंडी में हुए इस अध्ययन के पास भी इन बातों के जवाब नहीं हैं।
तेंदुए माहौल के हिसाब से समायोजन करने वाले सबसे कुशल शिकारी होते हैं। अगर उनसे जंगल छीन लिया जाए तो वे खेतों में रहने लगेंगे, अगर जंगली शिकार खत्म हो जाएं तो वे पालतू जानवरों का शिकार करने लगेंगे। इसके अलावा तेंदुए इंसानों की पहली झलक पाते ही जल्दी से छिप जाने वाले जीव हैं। फिर ऐसा छिपकर रहने वाला शिकारी बहुतायात में मौजूद पालतू जानवरों, आवारा कुत्तों की अनदेखी कर ढीठ किस्म का आदमखोर कैसे बन गया?
On 24 June, we had a midnight visitor. The edges of his ears were a bit chewed up, his whiskers a little bit bent. But he’s doing very well for his age. We estimate he’s about 12 years old. The first image we have of him dates to Jan 2009 when he seemed to be 3 years old. pic.twitter.com/Flu4ODyxWH
— Janaki Lenin (@JanakiLenin) July 15, 2018
वन विभाग और संरक्षणवादियों के बीच एक सोच प्रचलित है कि तेंदुए जैसे जंगली जानवरों का स्थान जंगलों में ही है। अगर वे खेतों में रहने लगे तो कुछ ही समय में वे इंसानों पर हमले शुरू कर देंगे।
महाराष्ट्र की जुन्नर घाटी में पिछले कई बरसों के दौरान आदमखोर तेंदुए के हमले की शायद ही कोई घटना हुई हो, लेकिन अचानक से यहां तेंदुए इंसानों पर हमले करने लगे। इस हरे-भरे इलाके के किसान गन्ना, मक्का और केले की फसल करते हैं। 2001 में तेंदुओं ने 50 लोगों पर हमले किए जिनमें 29 लोगों की मौत हो गई। इन घटनाओं के पीछे फिर वही अंदाजे लगाए गए: घटते जा रहे जंगल, जंगली शिकार की कमी, बांध की वजह से होने वाली अशांति और गन्ने के बढ़ते जा रहे खेत। पर असलियत में समस्या कहीं और ही है।
वन्य प्राणियों के संरक्षण पर काम करने वाली काती ट्रस्ट ने अपने रिसर्च प्रोजेक्ट के जरिए खुलासा किया कि इन हमलों के कुछ महीनों पहले ही वन विभाग ने एक अभियान चलाया था। इसके तहत तेंदुओं को गन्नों के खेतों से पकड़कर नजदीकी जंगल में छोड़ा गया था। जैसे ही लगभग 150 तेंदुओं का पुनर्वास किया गया इंसानों पर हमले तेज हो गए। इन हमलों से गांववालों के हाथ-पैर फूल गए थे।
अध्ययन बताते हैं कि शिकारी जानवरों को एक जगह से हटाकर दूसरी जगह बसाने से इंसानों और उनके बीच होने वाली झड़पें बंद नहीं हो सकतीं। एक वजह तो यह है कि बहुत सारे जानवर महज कुछ महीनों में ही आपने पुराने इलाके में लौट आते हैं। तेंदुए सामान्यत: इंसानों से काफी दूरी बनाकर चलते हैं लेकिन इस धरपकड़ अभियान में उन्हें काफी तकलीफों का सामना करना पड़ा। जब इन तेंदुओं को गन्ने के खेतों से लोहे के पिंजरों में कैद करके ले जाया जा रहा था उस समय सैकड़ों लोगों की चीखती-चिल्लाती भीड़ उन्हें लकड़ी-डंडों से कोंच रही थी, उनकी पूंछ खींच रही थी, उनके पिंजरों पर लाठी बरसा रही थी। पिंजरों से निकल भागने की नाकाम कोशिश में तेंदुए लोहे की सलाखों से टकरा कर अपने नाखून, दांत और खोपड़ी की हड्डियां तुड़वा चुके थे।
अब इन आदमखोरों को नए इलाके में छोड़ा तो वहां भी वे इंसानों पर हमले करने लगे। मार्च-अप्रैल 2013 में महाराष्ट्र के ताडोबा टाइगर रिजर्व की हद पर एक तेंदुए को पकड़ा कर जंगल के भीतर छोड़ा गया था। इस पर शक था कि इसने सात लोगों को मारा था। तेंदुए को छोड़ने के एक हफ्ते के भीतर पास के ही एक गांव के छह लोग मारे गए।
And on 24 June, he hadn’t worked off that belly. The living is good and easy, I suppose. Wild leopards live up to 15 years old. I’d be curious to know how long he survives. Oh yes, this is the dude who ate one of my dogs and almost killed another. But I’ve made my peace. pic.twitter.com/UF2vrwQ0LF
— Janaki Lenin (@JanakiLenin) July 15, 2018
जुन्नर में शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे कि तेंदुओं की इस तरह अदलाबदली से ही वे आदमखोर बन जाते हैं। जंगल में पहले से रहने वाले तेंदुओं को उस इलाके में छोड़े गए नए तेंदुओं से मुकाबला करना पड़ता है, मादा तेंदुओं को अपने छोटे शावकों को नए नर तेंदुओं से बचाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। नतीजतन, परेशान और तनावग्रस्त तेंदुओं की यह आबादी इंसानों पर हमले करने लगती है।
तेंदुओं और किसानों के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए जरूरी है कि किसानों के पालतू जानवरों को सुरक्षित रखने में उनकी मदद की जाए। उन्हें जानकारी दी जाए कि किस तरह तेंदुओं से बचाव किया जा सकता है। लेकिन सरकारी विभाग अपना पूरा ध्यान तेंदुओं पर केंद्रित रखते हैं। क्योंकि वन्यजीव कानून तो यही कहता है कि इंसानों के लिए खतरा बन चुके संरक्षित प्राणियों को नई जगह बसाया जाना चाहिए।
हालात तब सामान्य हुए जब 62 तेंदुओं को स्थायी रूप से कैद कर लिया गया। कुछ समय में आसपास के इलाके से और तेंदुए आ गए। आज वे उन्हीं खेतों में रहते हैँ गाहेबगाहे कुछ पालतू जानवरों को मार डालते हैं लेकिन इंसानों पर हमले नहीं करते।
अगर जुन्नर में शोध नहीं हुआ होता तो वन विभाग इस समस्या का हल कैसे निकालता? क्या गन्ने के खेत उजाड़कर वहां जंगल लगाए जाते और फिर वहां सुअर और हिरन छोड़े जाते?
हमें इस समस्या के दीर्घकालीन उपाय खोजने के लिए पारंपरिक सोच को छोड़ना होगा। किसी खास जगह पर हो रहे तेंदुओं के हमलों और उनकी वजहों को नए दृष्टिकोण से देखना होगा वरना ऐसी दुखद घटनाएं जारी रहेंगी।
(ये जानकी लेनिन के निजी विचार हैं)
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