क्यों उठा रहे राफेल सौदे पर सवाल?

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क्यों उठा रहे राफेल सौदे पर सवाल?फोटो साभार: इंटरनेट

डॉ. रहीस सिंह, आर्थिक मामलों के जानकार

क्या आप स्पष्ट कर सकते हैं कि एयरोस्पेस में शून्य अनुभव रखने वाली कम्पनी पर राफेल सौदे में विश्वास क्यों किया? (कैन यू एक्सप्लेन रिलायंस ऑन सम विद् निल एक्सपीरिएंस इन एयरोस्पेस फॉर राफेल डील) यह प्रश्न कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से है, जो उन्होंने सोशल मीडिया के जरिए किया। यह प्रश्न तो प्रधानमंत्री से पूरे देश के लोगों का हो सकता है, यदि वास्तव में ऐसा हुआ है तो। सरकार को सम्पूर्ण नैतिकता एवं दायित्व के साथ ऐसे प्रश्नों का उत्तर भी देना चाहिए। लेकिन अभी तक ऐसा दिखाई नहीं दिया। एक लोकतांत्रिक देश में एक लोकप्रिय सरकार का तो यह दायित्व बनता है कि वह प्रत्येक प्रश्न का उचित उत्तर दे, लेकिन यदि वह ऐसा नहीं करती है तो फिर शंकाएं बढ़नी लाजिमी हैं?

जब इसी सरकार के लोग कभी विपक्ष में हुआ करते थे, तब वे बात-बात पर संसद नहीं चलने देते थे, धरने प्रदर्शन करते थे अथवा उन्हें प्रायोजित किया जाता था, प्रेस कांफ्रेंस होती थीं, जो कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के मान्य पक्ष भी है, लेकिन आज सरकार उन्हीं प्रतिमानों या मान्य पक्षों को दरकिनार क्यों कर रही है, अनैतिक क्यों मान रही है? क्या क्रोनी कैपिटलिज्म इतना प्रभावशाली हो गया है कि देशहित और लोकतांत्रिक मूल्य इनके नीचे दबकर प्रभावहीन हो गए हैं? आखिर जवाबदेह मंत्रिपरिषद के सदस्य गैर-जवाबदेही को वरीयता क्यों देते हैं?

इस समय राफेल सौदे को लेकर कांग्रेस की तरफ से कुछ सवाल उठाए गए हैं। उनका पक्ष यह है कि फ्रांस की दसाल्ट कम्पनी के साथ राफेल जेट फाइटर के लिए डील वर्ष 2007 में हुई थी। इस डील के तहत 126 राफेल खरीदे जाने थे। इनमें 18 विमान ऐसे आने थे जो ‘फ्लाइवे कण्डीशन’यानि सीधे उड़ान भरने की स्थिति में होते है, जबकि शेष 108 विमानों को दसाल्ट कम्पनी भारत में हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के साथ मिलकर विनिर्मित करती और टैक्नोलॉजी भी ट्रांसफर करती। उस समय इन विमानों की जो कुल कीमत आंकी गयी थी, वह थी 54,000 करोड़ रुपये।

30 जुलाई 2015 को यूपीए सरकार के समय की गई डील को रद्द किया गया और 30 सितम्बर 2016 को यह नई डील हस्ताक्षरित हुई, जिसके तहत प्रधानमंत्री की घोषणा के अनुसार 36 राफेल जेट खरीदे जाने थे। इस नयी डील के समय इन 36 विमानों की कीमत 56,000 करोड़ तय हुई।

10 अप्रैल 2015 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी फ्रांस यात्रा के दौरान दसाल्ट कम्पनी के 36 राफेल विमान खरीदने की घोषणा की। 30 जुलाई 2015 को यूपीए सरकार के समय की गई डील को रद्द किया गया और 30 सितम्बर 2016 को यह नई डील हस्ताक्षरित हुई, जिसके तहत प्रधानमंत्री की घोषणा के अनुसार 36 राफेल जेट खरीदे जाने थे। इस नयी डील के समय इन 36 विमानों की कीमत 56,000 करोड़ तय हुई।

कांग्रेस के अनुसार लगभग 10 दिनों के बाद अक्टूबर 2016 में अनिल अम्बानी की रिलायंस डिफेंस लि. ने दसाल्ट के साथ एक सौदा किया, जिसके तहत रिलायंस एवं दसाल्ट को सुरक्षा से जुड़े उपकरण भारत में बनाने हैं। ध्यान रहे कि दसाल्ट और रिलायंस के बीच प्रस्तावित रणनीतिक भागीदारी में आईडीडीएम कार्यक्रम (स्वदेशी रूप से डिजाइन, विकसित एवं विनिर्मित) के तहत परियोजनाओं के विकास पर जोर होगा, जो रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर की एक नई पहल का हिस्सा है।

नयी राफेल डील और उससे जुड़े उक्त विकासक्रम को देखते हुए कांग्रेस की तरफ से कुछ सवाल पेश किए गए, कुछ आरोप लगाए गए और शंकाएं जताई गई हैं। शंका यह है कि सरकार ने सुरक्षा के साथ समझौता किया है और क्रॉनी कैपिटल को प्रोमोट किया है। आरोप यह है कि यूपीए के समय सम्पन्न हुई डील में एक राफेल विमान की कीमत 526.10 करोड़ रुपये थी, जबकि अब 1570.80 करोड़ यानि लगभग तीन गुनी हो गई है।

दूसरा आरोप यह है कि सरकार ने ‘डिफेंस प्रोक्योरमेंट प्रोसीजर’यानि रक्षा खरीद प्रक्रिया का अनुपालन नहीं किया। उसके अनुसार दसाल्ट एविएशन और रिलायस डिफेंस की जो डील हुई, उसमें न तो केबिनेट की मंजूरी ली गई, न केबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी की मंजूरी ली गई और न ही फॉरेन इन्वेस्टमेंट प्रोमोशनल बोर्ड की मंजूरी ली गई। सवाल यह उठाया कि भारत की रक्षा जरूरतें सिर्फ 36 विमानों की खरीद से कैसे पूरी हो पाएंगी? पूर्व रक्षा मंत्री एके एण्टोनी ने डील के समय ही (2016 में) यह सवाल उठाया था कि चीन एवं पाकिस्तान की सैन्य शक्ति और हमारी सैन्य शक्ति, के बीच जो गैप है, उसे पाटने के लिए सिर्फ 36 जेट फाइटर कैसे पर्याप्त होंगे?

कांग्रेस के इस आरोप पर कि सरकारी कंपनी हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स की जगह रिलायंस डिफेंस को फायदा पहुंचाया गया, रक्षामंत्री का कहना है कि प्रधानमंत्री के डेलीगेशन में अधिकारियों के साथ व्यापार जगत के तमाम लोग होते हैं। इसमें कौन है यह मायने नहीं रखता।

जो भी हो, सवाल प्रासंगिक हैं और जरूरी भी। सरकार को चाहिए कि देश को सही स्थिति बताए। लेकिन रक्षा मंत्री ने इसे कांग्रेस की बेशर्मी करार दे दिया और जो जवाब दिए वे संतुष्ट तो बिल्कुल नहीं करते। कांग्रेस के इस सवाल, कि नयी राफेल डील में टेक्नोलॉजी ट्रांसफर को शामिल नहीं किया गया, के जवाब रक्षामंत्री निर्मला सीतारमन का जवाब था कि 126 विमानों की खरीद पर तो टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की बात समझ में आती है, मगर 36 विमानों की आपात खरीद के लिए तकनीकी ट्रांसफर का औचित्य नहीं बनता। कांग्रेस के इस आरोप पर कि सरकारी कंपनी हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स की जगह रिलायंस डिफेंस को फायदा पहुंचाया गया, रक्षामंत्री का कहना है कि प्रधानमंत्री के डेलीगेशन में अधिकारियों के साथ व्यापार जगत के तमाम लोग होते हैं। इसमें कौन है यह मायने नहीं रखता। अभी ऑफसेट कांट्रैक्ट पर हस्ताक्षर नहीं हुए हैं। मगर जब दो निजी कंपनी औद्योगिक नीति एवं संवर्द्धन विभाग (डीआइपीपी) के नियम के तहत संयुक्त उद्यम स्थापित करती हैं, तो इसमें रक्षा मंत्रालय की मंजूरी की जरूरत नहीं होती। इसे सरकार के साथ जोड़ना राजनीति से प्रेरित है। लगभग यही उत्तर रिलायंस डिफेंस लिमिटेड की तरफ से कांग्रेस पर मुकदमा करने की धमकी के साथ आया है।

रिलायंस डिफेंस लि. का भी तर्क है कि सरकार की जो नई नीति है, उसके तहत रक्षा क्षेत्र में 49 प्रतिशत एफडीआई ऑटोमेटिक रूट से आता है जिसमें किसी भी प्रकार की स्वीकृति की जरूरत नहीं पड़ती। इस विषय की विमाओं को थोड़ा और बढ़ाया जाए तो एक बात और स्पष्ट हो जाएगी। इस डील में दसाल्ट एविएशन के लिए सौदे की 50 प्रतिशत राशि ऑफसेट क्लॉज में रखनी है, अर्थात सौदे में प्राप्त धन का 50 प्रतिशत हिस्सा भारत में ही सैन्य प्रौद्योगिकी (मिलिट्री-टेक्नोलॉजी) में निवेश करना होगा। अब यदि कांग्रेस का आरोप सही है तो इसे ऐसे देखने की जरूरत होगी। अब एक विमान पर पहले के 526.10 करोड़ रुपये की बजाय 1570.80 करोड़ रुपये दसाल्ट एविएशन को भारत सरकार भुगतान करेगी, जिसका 50 प्रतिशत यानि 785.40 करोड़ भारत निवेश के लिए वापस आ जाएगा और वह एफडीआई खिड़की के जरिए रिलायंस डिफेंस के पास पहुंच जाएगा। इसका तात्पर्य यह हुआ कि दसाल्ट एविएशन एवं रिलायंस डिफेंस लि. के बीच की साझेदारी का अर्थशास्त्र पूर्णतः नैतिक तो नहीं है।

ध्यान रहे कि भारतीय वायुसेना को पाकिस्तान और चीन से सटी सीमाओं की रक्षा के लिए कम से कम 45 स्क्वाड्रनों की आवश्यकता है (हालांकि स्वीकृत 42 ही हैं)। हमारे दो पड़ोसी देश चीन और पाकिस्तान अपनी वायुसेना का बड़ी तेजी से आधुनिकीकरण कर रहे हैं और दोनों की ही भारत विरोधी जुगलबंदी चल रही है।

फिलहाल भारतीय वायुसेना को कम से कम 44 स्क्वाड्रनों की आवश्यकता है, लेकिन वर्तमान में इसके पास सिर्फ 32 स्क्वाड्रन ही सक्रिय हालत में हैं। इनमें से भी 14 स्क्वाड्रन चलन से बाहर हो चुके मिग-21 और मिग-27 के भरोसे हैं, जिन्हें जल्द ही रिटायर करना होगा (वर्ष 2019-20 तक मिग-21 और मिग-27 के 14 स्क्वाड्रन कम हो जाएंगे)। रही बात स्वदेश निर्मित एलसीए तेजस की तो अभी उसे वायुसेना के काबिल बनाने में समय लगेगा। ध्यान रहे कि भारतीय वायुसेना को पाकिस्तान और चीन से सटी सीमाओं की रक्षा के लिए कम से कम 45 स्क्वाड्रनों की आवश्यकता है (हालांकि स्वीकृत 42 ही हैं)। हमारे दो पड़ोसी देश चीन और पाकिस्तान अपनी वायुसेना का बड़ी तेजी से आधुनिकीकरण कर रहे हैं और दोनों की ही भारत विरोधी जुगलबंदी चल रही है।

चीन पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान जे-20 का निर्माण कर चुका है और शेनयांग जे-11, नानचांग क्यू-5, शियान जेएच-7 जैसे आधुनिकीकृत विमान उसके पास मौजूद हैं, जिनसे प्रतिस्पर्धा करने के लिए भारत को अभी काफी मशक्कत करनी होगी। चीन रूस के साथ मिलकर पांचवी पीढ़ी के विमान (फाइटर्स, अटैकर्स और बम्बर्स) बड़ी तेजी से विकसित कर रहा है। यानि भारतीय वायुसेना को नए जेट फाइटर्स की तत्काल बड़ी खेप की आवश्यकता है, लेकिन खरीद में केवल शीध्रता ही नहीं नैतिकता, पारदर्शिता और राष्ट्रीय हित भी स्पष्ट रूप से दिखने चाहिए।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

    

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