नहीं बदलेगा पाकिस्तान का इंडिया फैक्टर

Pakistan Prime Minister Nawaz Sharif

डॉ. रहीस सिंह

पाकिस्तान में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार बदलने या फिर उससे दूसरी सरकार को सत्ता हस्तांतरित होने पर दुनिया पाकिस्तान का उतनी हैरत और उम्मीद से विश्लेषण नहीं करती जितना कि पाकिस्तान के चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ के बदलाव को लेकर करती है। इसकी वजह यह है कि पाकिस्तान का लोकतंत्र बेहद कमजोर अथवा गाइडेड है जबकि पाकिस्तान की सेना रियल स्टेट एक्टर।

भारत के लिए भी पाकिस्तान के सैनिक नेतृत्व में परिवर्तन बेहद संवदेनशील रहता है क्योंकि अधिकांश पाकिस्तानी जनरल इस बुनियादी ग्रंथि के साथ चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ का पद ग्रहण करते हैं कि भारत हमारा दुश्मन नम्बर एक है और पाकिस्तानी की श्रेष्ठता व दक्षता का एकमात्र पर्याय है भारत पर लगातार दबाव बनाए रखना अथवा यथाशक्ति नुकसान पहुंचाना। 29 नवम्बर को चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ के पद से रिटायर हो चुके जनरल राहिल शरीफ ने इस प्रकार की मानसिकता का बढ़-चढ़कर प्रदर्शन किया इसलिए यह प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने जनरल कमर जावेद बाजवा को पाकिस्तानी सेना का प्रमुख किसी उद्देश्य विशेष से तो नहीं बनाया है? दूसरा प्रश्न यह भी है कि भारत को इनसे क्या उम्मीद करनी चाहिए?

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ अपने अलग-अलग कार्यकाल में छह चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ चुन चुके हैं जिनमें से एक जनरल परवेज मुशर्रफ भी रहे हैं जिन्होंने 1999 में उनका तख्तापलट कर दिया था। जनरल राहिल शरीफ से भी नवाज शरीफ के रिश्ते अच्छे नहीं रहे। इसका असर भारत-पाकिस्तान सम्बंधों में भी दिखा। यदि घटनाक्रम और स्थितियों पर गौर किया जाए तो नवाज शरीफ भारत के साथ सम्बंधों को बेहतर बनाना चाहते थे। यही वजह रही कि वे भारत के आमंत्रण पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए या नरेन्द्र मोदी अकस्मात लाहौर उनके घर पहुंचे। दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के इन प्रयासों में अवरोध उत्पन्न किया गया। इनकी शुरुआत अगस्त 2014 में होने वाली एनएसएस बैठक से ही हो गई थी, जो आने वाले समयों में भिन्न रूपों में प्रकट हुए लेकिन उफा में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने 26/11 के दोषियों पर कार्रवाई करने और उनके वॉयस सैम्पल भारत को देने पर सहमति जताई जो लगा कि स्थितियां सामान्य होने की ओर हैं। हालांकि इसमें सफलता नहीं मिलनी थी।

जो भी हो, पाकिस्तान हाथ मिलाने के साथ-साथ पठानकोट, उधमपुर…..जैसी घटनाओं को जन्म देने जैसे मनोविज्ञान को व्यक्त करता रहा। इन घटनाओं के लिए सिर्फ सेना को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता बल्कि इस्लामाबाद की सरकारें भी दोषी हैं लेकिन पनामा पेपर प्रकरण के बाद इस्लामाबाद सरकार कुछ कमजोर सी दिखी और राहिल शरीफ अधिक ताकतवर। दरअसल तालिबान के खिलाफ चलाए गए अभियान के कारण राहिल शरीफ को पाकिस्तान का सर्वाधिक लोकप्रिय जनरल के रूप में उभर आए थे और उधर प्रधानमंत्री पर भ्रष्टाचार का आरोप लग चुका था। इसलिए यह आशंका हो गयी थी कि राहिल शरीफ नवाज शरीफ को बेदखल भी कर सकते हैं लेकिन यदि ऐसा नहीं हुआ तो इसकी वजह रही पाकिस्तान पर पड़ने वाला चौतरफा दबाव जो विशेषकर उरी घटना और भारत द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक के बाद देखा गया। ऐसी स्थिति में नवाज शरीफ को चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ के रूप में ऐसे जनरल का चुनाव करना था जो लोकतंत्र समर्थक हो और पाकिस्तान की भारत नीति को क्रियान्वित करने में दक्ष।

जनरल कमर जावेद बाजवा लोकतंत्र के समर्थक और लो-प्रोफाइल व्यक्ति माने जाते हैं। पाकिस्तानी मीडिया के रिपोर्ट्स और एक्सपर्ट्स ने रविवार को कहा कि बाजवा को चार सीनियर जनरलों के मुकाबले तरजीह दिए जाने का कारण यही है कि लो-प्रोफाइल और लोकतंत्र समर्थक विचारों के पक्षधर हैं लेकिन एक विशेष बात यह है कि रिटायर्ड सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ़ फ़ौज से अपनी रवानगी के आखिरी दिनों में पाकिस्तान में ख़ूब लोकप्रिय हुए। मीडिया रिपोर्टों में उन्हें ’पाकिस्तान का चहेते सेना प्रमुख’ के तौर पर पेश किया गया। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या बाजवा भी जनरल राहिल शरीफ के भारत एजेंडे को ही आगे बढ़ाएंगे ?

पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ का कहना है कि नए सेना प्रमुख के नेतृत्व में देश की सैन्य नीति में कोई तत्काल बदलाव नहीं आएगा। उन्होंने कहा, ’जनरल रहील शरीफ ने जो भी तय कर रखा है, उसे जारी रखा जाएगा।’ फिर भी कुछ बातों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होगी। प्रथम यह कि पाकिस्तान का कोई भी सेना प्रमुख जब पद ग्रहण करता है तब वह कोई निजी नीति लेकर नहीं आता लेकिन धीरे-धीरे वह स्वयं एक नियामक संस्था के रूप में व्यवहार करने लगता है। दूसरे शब्दों में कहें कि चीफ ऑफ पाक आर्मी की नियुक्ति के समय पाकिस्तानी सेना भारत-पाकिस्तान सम्बंधों में एक सहयोगी संस्था होती है लेकिन कुछ दिन बाद ही यह नियामक की हैसियत प्राप्त कर लेती है।

हालांकि बाजवा ऐसे समय में आए हैं जब दोनों देशों के मध्य पर्याप्त तनाव है। भारत के पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल बिक्रम सिंह का कहना है कि बाजवा के रुख को ठीक तरह समझने के लिए अभी इंतजार करना होगा। उन्हें भारत के प्रति अपने देश की नीति के बारे में बहुत अच्छे से जानकारी है। मुझे लगता है कि जहां तक पाकिस्तानी आर्मी की कश्मीर नीति का सवाल है, तो उसमें कोई बदलाव नहीं आने वाला। लेकिन पाकिस्तानी एवं अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के अनुसार पाकिस्तानी सेना के नए चीफ के पद पर कमर जावेद बाजवा की नियुक्ति में इंडिया का फैक्टर अहम है। कारण यह है कि जनरल बाजवा कश्मीर मामलों के एक्सपर्ट हैं। चूंकि बाजवा पाकिस्तान की 10वीं कोर के कमांडर रह चुके हैं, जिसकी तैनाती सियाचिन से रावलपिंडी तक है। इसमें पूरा लाइन ऑफ कंट्रोल का एरिया भी शामिल है। वह नॉर्दर्न एरिया फोर्स कमांड के चीफ रहे हैं, जिसकी तैनाती गिलगिट-बल्तिस्तान में रही है।

फिलहाल बाजवा के पाकिस्तानी आर्मी के चीफ बनने से भारत-पाकिस्तान सम्बंधों के मध्य खिंची टेढ़ी रेखाएं सीधी होने वाली नहीं हैं, हां और कितनी टेढ़ी होंगी यह कहना मुश्किल है। जब तक पाकिस्तानी आर्मी का व्यवहारिक सिद्धांत और मनोविज्ञान नहीं बदलता तब तक किसी एक जनरल के हटने और दूसरे के आने से कुछ भी बदलने वाला नहीं है। आज भी पाकिस्तान आर्मी व्यवहारिक रूप में पाकिस्तान में रियल स्टेट एक्टर है और उसका मनोविज्ञान भारत को दुश्मन नम्बर एक मानता है। इसलिए बाजवा के आने से रावलपिंडी और इस्लामाबाद के इण्डिया फैक्टर में कोई परिवर्तन आने वाला नहीं है।

(लेखक राजनीतिक व आर्थिक विषयों के जानकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

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