हमारे देश में सनातन परंपरा में कहा जाता रहा है ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ अर्थात देवता वहाँ रहते हैं जहाँ नारियों की पूजा होती है। यह केवल जुबानी जमा खर्च नहीं था, व्यवहारिक जीवन में इसे उतारा जाता था और कोई भी धार्मिक अथवा मांगलिक कार्य तब तक पूरा नहीं माना जाता था जब तक अर्धांगिनी बगल में ना बैठी हो। जब रामचंद्र जी ने यज्ञ किया और सीता जी वनवास में थी, तो सीता जी की मूर्ति बनाकर राम के बगल में बिठाई गई, तब अनुष्ठान पूरा हुआ। हमेशा पुरुषों से पहले नारियों का स्थान रहता चला आ रहा है, यहाँ तक कि नाम में भी सीता-राम, राधे-श्याम, और इसी तरह से गौरी-शंकर अर्थात पहले अर्धांगिनी का नाम और बाद में पुरुष का नाम लिया जाता था। यह सब कब और कैसे बदल गया यह लंबी कहानी है, जिसे हम सब जानते भी हैं और नहीं भी जानते हैं। हमारे ध्यान में आना चाहिए कि केवल दुर्गा और काली की पूजा नहीं होती, बल्कि ऐसी तमाम महिलाएँ सम्मान पूर्वक आदर की अधिकारी बनीं, जो पुरुषों से आगे बढ़-चढ़कर ज्ञान और सामाजिक कार्य में लगी रहती थीं। हम गार्गी, मैत्रेयी, लीलावती, शकुंतला और इस तरह न जाने कितनी महिलाओं का आदर पूर्वक नाम लेते हैं और स्मरण करते हैं।
एक समय आया जब राक्षसी विचारों के लोग पशुबल के आधार पर भारत को पद दलित करते रहे और वह ऐसे देश और समाज से आते थे जहाँ पर नारियों का बाजार लगता था, नारियां बिकती थी, सनातन परंपरा के लोग ऐसी कल्पना तक नहीं कर सकते। देश को गुलाम बनाने के बाद ऐसे लोगों ने महिलाओं पर न केवल अत्याचार किया बल्कि उनकी अस्मिता लूटने में भी संकोच नहीं किया। यह सब संभव इसलिए हुआ कि देश का समाज बटा था और युद्ध के मैदान में कटता गया, नतीजा यह हुआ कि महिलाओं ने अपने को पर्दे के पीछे, घरों के अंदर बंद कर लिया और बाहर पुरुषों के साथ काम करने की परंपरा समाप्त हो गई, यह सब केवल उन लोगों के द्वारा नहीं किया गया जो ‘’मीना बाजार’’ लगाते थे बल्कि पश्चिमी सभ्यता के लोग भी हमारे देश की महिलाओं का सम्मान नहीं कर पाए, जिसके कारण मुग़ल काल और अंग्रेजों के समय में भी महिलाएँ अपमानित जीवन बिताती रहीं। अफसोस के साथ कहना पड़ता है, कि नारी के सम्मान की रक्षा, पुरुष समाज इसलिए नहीं कर पाया क्योंकि वह बटा हुआ था। बटे होने का तात्पर्य यह है कि जैसा अटल जी ने कहा था कि ‘’थोड़े से लोग युद्ध लड़ते थे और उससे कहीं अधिक लोग बाहर तमाशा देखते थे’’ क्योंकि बाहर के लोगों को युद्ध का अधिकार नहीं था और इस तरह समाज दलगत के रास्ते पर चलने के लिए मजबूर होता रहा।
हमारा सनातन समाज टुकड़ों-टुकड़ों में बटा हुआ था, कोई केवल पण्डिताई तथा पढ़ाई- लिखाई करेगा, तो कोई युद्धाभ्यास और कोई व्यापार लेकिन ऐसा नहीं कि जो श्रम के काम करने वाले लोग हैं उनमें योद्धा नहीं थे, जो व्यापारी है उनमें बहादुर लोग नहीं थे, मगर उन्हें मौका नहीं दिया गया, इसके लिए कोई विदेशी जिम्मेदार नहीं है, स्वयं हमारे समाज की रचना जिम्मेदार है और उस इतिहास को हम बदल नहीं सकते। लेकिन इतिहास से हम सीख ले सकते हैं, हम कुछ समझ सकते हैं, ताकि दोबारा गुलाम ना हो, दोबारा आक्रमणकारी आकर विजयी ना हो पाए, क्योंकि अकेले सेनानियों पर निर्भर रहना हमेशा संभव नहीं होता। सेनाओं को समाज और देश का पूरा समर्थन चाहिए होता है और वह तभी मिलेगा जब हमारा अपना समाज एकजुट होगा, एक होगा।
अगर हमने इतिहास से इतना भी नहीं सीखा तो फिर बाहर निकलने का रास्ता बंद हो जाएगा। समाज के बटे होने का यह भी नुकसान हुआ, कि युद्ध होते चले गए और और जातीय संघर्ष में नुकसान सारे देश और समाज का हुआ। इसी प्रकार राजा महाराजा जो हुए उनके अपने अहंकार और उनका अपना स्वार्थ एकजुट नहीं होने दे रहा था, नतीजा हुआ कि आक्रणकारी आसानी से विजयी होते चले गए।
जब देश और समाज बदला तो महिलाओं की दशा भी बदलती चली गई। जो महिलाएँ पुराने समय में पुरुषों के साथ शास्त्रार्थ करतीं थीं वह पुरुषों से पीछे चलीं गयी, क्योंकि आक्रमणकारी साथ में महिलाएँ तो नहीं लाते थे, उन्होंने यहाँ की महिलाओं पर ही अत्याचार किया और भयभीत महिलाएँ घरों में कैद हो गयीं। कुछ एक-आध महिलाएँ वीरांगना के रूप में सामने आयीं, जिनमे रानी लक्ष्मीबाई एक अपवाद हैं, ऐसी बहादुर नारियां अधिक नहीं हुई। बाद में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ज़रूर महिला ब्रिगेड खड़ी की और महिलाओं का उत्साह बढ़ाया। जब बाहरी समाज में महिलाओं को ना तो संपत्ति में अधिकार था और ना वोट देने का, ना उन्हें परिवार का मुखिया बनने का, तब हमारे देश में महिलाएँ घर की शोभा हुआ करती थी और सम्मान पाती थी।
महिलाओं का बाजार लगाना, बेचना और खरीदना यह सब सनातन परंपरा के बिल्कुल विपरीत रहा है, भले मजबूरी में अपनी अस्मिता बचाने के लिए महिलाओं को जौहर का सहारा लेना पड़ा हो, लेकिन महिलाओं ने दूसरा कोई रास्ता ना देखकर चित्तौड़ गढ़ में सामूहिक प्राण त्याग दिया। आधुनिक समय में विशेष कर अंग्रेजों के जमाने में जहाँ गुलामी का भोग भोगती रहीं, वहीं पर शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ावा मिला और फिर से महिलाएँ पुरुषों के साथ पढ़ीं और बढ़ीं, आज धीरे-धीरे यह स्थिति है, कि महिलाएँ स्पेस में जा रहीं हैं, युद्ध में भाग ले रहीं हैं और बढ़-चढ़कर समाज के हर क्षेत्र में, फिर चाहे विज्ञान हो या फिर टेक्नोलॉजी हो सब में आगे बढ़ रहीं हैं, लेकिन जो बिगड़ चुका है वह सुधर तो नहीं सकता, जो हानि हो चुकी है वह बदली नहीं जा सकती, उससे सीख लेकर आगे का रास्ता चुना जा सकता है। आज के आधुनिक युग में अपने यहाँ लड़के और लड़कियाँ बराबर स्वच्छंदता के साथ रहती और घूमती हैं लेकिन अंतर यह है कि पश्चिमी देशों में लड़कियों को परिवार द्वारा उनकी सीमाएं बता दी जाती हैं।
हमारे यहाँ परिवारों में ऐसे कुछ संस्कार दिए ही नहीं जाते, कि वह एक साथ घूमेंगे, चलेंगे, फिरेंगे और खेलेंगे तो कई बार धोखा हो जाता है और जब गलतियाँ हो जाती हैं, तब दोष लड़कियों का होता है। अपना संयमित जीवन बिताने का जो तरीका था वह पूरी तरह सुरक्षित हुआ करता था और भले ही इतनी स्वच्छंदता नहीं थी, लेकिन शालीनता हुआ करती थी। ऐसा नहीं कि लड़के-लड़कियों की रजामंदी के बगैर हमेशा जीवन साथी बना दिए जाते थे, बल्कि यहाँ कुछ मामलों में स्वयंवर और कुछ मामलों में गंधर्व विवाह की परंपरा भी थी। सनातन परंपराओं को आधुनिक व्यवहार में किस तरह से समायोजित किया जाए, यह जटिल प्रश्न है और लड़कियों के स्वच्छंद व्यवहार को आज के लड़के गलत समझते हैं और अपने को संयमित नहीं रख पाते, नतीजा होता है, बलात्कार और जबरदस्ती व्यवहार, जो आज का सबसे बड़ा अपराध भी बनता जा रहा है। इस पर नियंत्रण कैसे लगेगा कह नहीं सकते। इस पर नियंत्रण सरकार लगाएगी, समाज लगाएगी या परिवार लगाएगा, मगर कुछ तो करना होगा, क्योंकि सनातन परंपराओं को आधुनिक रीति रिवाज में अचानक स्विच ओवर नहीं कर सकते।