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दुनिया हमारे ज्ञान की पैठ समझ रही, बस हम नहीं

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बीती रात नींद आने से पहले चीन की आर्थिक और व्यवसायिक नीतियों पर एक शोध पत्र पढ़ रहा था, इसका विशेष सन्दर्भ हर्बल मेडिसिन्स को लेकर था। उस शोध पत्र में बड़ा जबरदस्त आकलन दिया गया है। उसमें बताया गया है कि किस तरह चीन ने अपने पारंपरिक हर्बल ज्ञान को विश्व पटल पर एक नई पहचान दिलाई है। एक से बढ़कर स्वास्थ्य से जुड़ी नीतियों और उनमें सामयिक बदलावों के साथ चीन ने अपने पारंपरिक हर्बल ज्ञान को हाथों हाथ लिया।

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मुझे याद है, सन 1998 में कुछ रिसर्च पेपर के रिप्रिंट्स लेने के लिए इंस्डॉक, दिल्ली गया। मुझे हर्बल मेडिसिन्स पर हो रही रिसर्च के ताज़ा आंकड़े चाहिए थे। पूरी लाइब्रेरी में छान-बीन कर जितने भारतीय रिसर्च पेपर्स मिले उससे कहीं ज्यादा चीनी वैज्ञानिकों के रिसर्च पेपर्स वहां एक ही अलमारी में उपलब्ध थे। हमारे देश के रिसर्च पेपर्स ज्यादातर पारंपरिक ज्ञान संकलन और वनौषधियों के मिलने की जानकारियों वाले थे जबकि चीन के 95 फीसदी से ज्यादा रिसर्च आर्टिकल्स हर्बल मेडिसिन्स को तैयार करने, उनके मार्कर कंपाउंड्स और एनालिसिस पर आधारित थे।

यानी, उनकी रिसर्च तभी से हमसे दो कदम आगे हो चली थी। करीब 30 साल पहले हर्बल मेडिसिंस के क्षेत्र में भारत चीन से 3 गुना आगे था और 30 साल बाद यानी आज चीन इतना आगे निकल गया कि उस देश की बहुत बड़ी आर्थिक मजबूती हर्बल मेडिसिन्स पर है और हम भारतीय अब तक शुद्ध और अशुद्ध के मायाजाल में ही उलझे हुए हैं। इस लेख में जो वजहें बताई गई हैं उनमें से सबसे ज्यादा सटीक वजह वहां आम व्यक्ति में ‘राष्ट्रीयता की भावना’ और इस बात का होना बताया गया है कि लोग राजनेताओं पर कम और खुद के प्रयासों को ज्यादा महत्व दे रहें है।

वहां लोगों को झंडा फहराकर देशभक्ति दिखाने का जुनून नहीं, लोग राजनेताओं से दूसरे दलों के नेताओं की बुराई सुनने के बजाय आर्थिक सुधारों के लिए नेताओं के अपने व्यक्तिगत विचार सुनना पसंद करते हैं। हर्बल मेडिसिन्स को आर्थिक विकास की मुख्य धारा और टूरिज्म से जोड़कर चीन ने हम सबकी बैंड बजा दी। हमारे यहां तो नेता ‘आर्थिक’ का अर्थ और अनर्थ दोनों जानते हैं, एक प्रान्त के हेल्थ मिनिस्टर साहब से मैंने बोला था, जनाब ‘आयुष’ में वनवासियों के ज्ञान को भी हिस्सा दें, इसे भी सम्मान मिले। मंत्री साहब चिंतित मुद्रा में अपनी भौं सिकोड़कर मुझ से ही पूछ बैठे थे- ये आयुष क्या है, यार?…

जिस देश का स्वास्थ्य मंत्री ही पूछ बैठे कि आयुष क्या है, वहां और क्या बात की जाए? एक दो दिन पहले स्वास्थ्य से जुड़ी एक पोस्ट अपनी फेसबुक वॉल पर डाला और उसमें मैंने बताया कि किस तरह ब्रिटिश जर्नल ऑफ न्यूट्रिशन ने भी हिन्दुस्तानी पारंपरिक ज्ञान पर आधुनिक शोध कर पारंपरिक दावों को सही ठहराया है। लोग मुझे भी शायद अंग्रेजियत का गुलाम समझने लगे लेकिन मेरा उद्देश्य तो सिर्फ इतना बताना था कि दुनियाभर की एजेन्सियां हमारे देश के पारंपरिक ज्ञान की पैठ को समझ पा रही हैं तो हम भला कैसे चूक रहे, हम लोग इसे अपनाने में खुद को क्यों पिछड़ा सा महसूस करते है? वजह सिर्फ एक है… इस ज्ञान पर वैज्ञानिक पुष्टियां बाकी हैं और मेरा मन है कि हमारे देश के वैज्ञानिक इस कार्य को आगे आकर संपादित करें ताकि हम भी चीन की तरह अपने देश के ज्ञान को एक नई पहचान दिलवाएं।

हमारे देश को आर्थिक और स्वास्थ्य की दृष्टि से मजबूती दिलाने का काम कोई कर सकता है तो वो है हमारा पारंपरिक हर्बल ज्ञान। ऐसा होना तभी संभव है जब मॉडर्न साइंस के पैरवी करने वाले लोग, डॉक्टर्स और वैज्ञानिकों की एक पूरी जमात पारंपरिक हर्बल ज्ञान को परखने की कवायद शुरु करे, परिणाम अपने आप सामने आ जाएंगे।

(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक भी।)

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