गाँव कनेक्शन/स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क
गोरखपुर। बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज में अस्पताल प्रशासन की लापरवाही से इन्सेफ्लाइटिस पीड़ित दर्जनों बच्चों की मौत के बाद गोरखपुर एक फिर सुर्खियों में आ गया। वह गोरखपुर, जहां बीते चार दशकों से इन्सेफ्लाइटिस बच्चों पर कहर बरपा रहा है और इस जानलेवा बीमारी से बचाव के सभी उपाय नाकाफी साबित हो रहे हैं। सवाल यह है कि गोरखपुर और इसके आसपास के जिलों में इन्सेफ्लाइटिस का आतंक कब खत्म होगा?
हाईस्कूल में पढ़ने वाली 18 वर्षीय नीलू ने अपने अच्छे भविष्य का सपना देखा था, लेकिन बीते दिनों वह इन्सेफ्लाइटिस की चपेट में आई और दो दिन में उसकी मौत हो गई। कुशीनगर जिले के सरपतही गाँव की नीलू के चाचा ओमप्रकाश कुशवाहा (उम्र 40 वर्ष) ने बताया, “नीलू को बीते रविवार सुबह अचानक से तेज झटके लगने लगे और झटका बंद होने के कुछ देर बाद उसे तेजी से बुखार चढ़ गया, लेकिन बारिश होने के कारण हम उसे कहीं नहीं ले जा सके। वह रात भर कराहती रही।”
ओमप्रकाश ने आगे बताया, “सुबह होते ही उसे एक निजी क्लीनिक ले गए, जहां डॉक्टर ने ऑक्सीजन की कमी होने की बात कहते हुए इलाज कर पाने से मना कर दिया। उसके बाद नीलू को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर ले गए। वहां भी उसका इलाज संभव नहीं हुआ तो जिला अस्पताल रेफर कर दिया गया। जिला अस्पताल में इंजेक्शन लगाया गया और उसके बाद उसे मेडिकल कॉलेज ले जाने की सलाह दी गई। हम लोग एम्बुलेंस से उसे मेडिकल कॉलेज लेकर पहुंचे, लेकिन करीब दो घंटे बाद उसकी मौत हो गई।”
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बीआरडी मेडिकल कॉलेज गोरखपुर में इन्सेफ्लाइटिस के सर्वाधिक (पूरे देश के एक तिहाई) मरीज आते हैं। यहां बस्ती, आजमगढ मंडल के अलावा बिहार और नेपाल से भी इन्सेफ्लाइटिस के मरीज आते हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हर वर्ष जेई/एईएस के 2500 से 3000 मरीज बीआरडी मेडिकल कॉलेज आते हैं। अगस्त, सितम्बर और अक्टूबर में मरीजों की संख्या 400 से 700 तक पहुंच जाती है, लेकिन मेडिकल कॉलेज को कई प्रकार की समस्याओं से जूझना पड़ता है।
भारत में सेंटर रिसर्च इंस्टीट्यूट कसौली जेई के लिए माउस ब्रेन वैक्सीन बनाता था, जिसकी तीन डोज दी जाती थी। लेकिन इसका बड़ी संख्या में उत्पादन संभव नहीं था। भारत में बने वेरो सेल डिराईव्ड प्यूरीफाइड इनएक्टिवेटेड जेई वैक्सीन जेईएनवीएसी से यह संभावना बनी है कि आने वाले दिनों में देश जेई वैक्सीन के मामले में आत्मनिर्भर हो सकता है।
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बीआरडी मेडिकल कॉलेज गोरखपुर के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ देवराज यादव ने बताया, “जलजनित इंसेफेलाइटिस से बचने के लिए जरूरी है कि पीने का पानी शुद्ध हो और पेयजल स्रोत का किसी भी तरह से शौचालयों, नाले या गंदे पानी से सम्पर्क न हो। कम गहराई वाले हैंडपम्प आस-पास बने शौचालय, नाले या गन्दे पानी से भरे गड्ढों से दूषित हो सकते हैं। इसलिए लोग गहराई वाले (80 फीट से अधिक) वाले हैंडपम्प के ही पानी का प्रयोग करें। सरकारी इंडिया मार्का हैण्डपम्प के पानी के प्रदूषित होने की आशंका कम रहती है।”
चीफ कैंपेनर इंसेफेलाइटिस उन्मूलन अभियान डॉ आरएन सिंह बताते हैं, ‘’एईएस से तीन प्रकार की बीमारयां होती हैं। जापानी इंसेफेलाइटिस, एंट्रोवायरल और स्क्रबटाईफस। इसमें से जापानी इंसेफेलाइटिस की वैक्सीन उपलब्ध है और स्क्रबटाईफस की दवा उपलब्ध है, लेकिन एंट्रोवायरल का कोई इलाज नहीं है। एंट्रोवायरल गंदे पानी के पीने के कारण होता है|”
एंट्रोवायरल से बचने के लिए डॉ आरएन सिंह ने एक प्रोजेक्ट तैयार किया है, जिसे होलिया मॉडल का नाम दिया है। डॉ. सिंह बताते हैं, ‘’इसके लिए प्लास्टिक की बोतलों में पानी को भरकर बंद कर देते हैं। इस बोतलों को तीन की चादरों पर या काले रंग में रंगे पक्के छत पर छह घंटे तक सूरज की रोशनी में रख देंते हैं। अब यह पानी सुरक्षित हो जाता है। इस जल से जल जनित इंसेफेलाइटिस और कई जलजनित रोंगों से बचा जा सकता है।
बीआरडी में मरीज ज्यादा, सुविधाएं सीमित
बीआरडी मेडिकल कॉलेज में सौ बेड का नया मस्तिष्क ज्वर वार्ड बन जाने के बावजूद मरीजों के लिए बेड सहित अन्य चीजों की कमी है। अस्पताल की बात करें तो इन्सेफ्लाइटिस के अलावा अन्य बीमारियों से ग्रसित बच्चे भी बड़ी संख्या में भर्ती होते हैं। इस वर्ष के आंकड़े को ही लें तो हर माह छह सौ से नौ सौ की संख्या में बच्चे भर्ती हुए। एक तरफ इतनी बड़ी संख्या में बच्चे यहां इलाज के लिए आ रहे हैं तो दूसरी तरफ बाल रोग विभाग के पास चार वार्डों में सिर्फ 228 बेड ही उपलब्ध हैं। मेडिकल कॉलेज में इलाज के लिए आने वाले इन्सेफ्लाइटिस मरीजों में आधे से ज्यादा मरीज आधे बेहोश होते हैं और उन्हें तुरन्त वेंटीलेटर की आवश्यकता होती है। यहां पर बाल रोग विभाग आईसीयू में 50 बेड हैं। वार्ड संख्या 12 में कुछ वेंटीलेटर हैं। एसएनसीयू में सिर्फ 12 वार्मर हैं, जबकि यहां जरूरत 30 से अधिक वार्मर की है। वार्मर की कमी के कारण एक-एक वार्मर पर चार-चार बच्चों को रखना पड़ता है, जिससे एक दूसरे को संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।
वर्ष 1978 में गोरखपुर में हुई थी इस बीमारी की पहचान
वर्ष 1978 में गोरखपुर में इस बीमारी की पहचान जापानी इन्सेफ्लाइटिस के रूप में हुई। जापान में सबसे पहले 1912 में इसका पता चला था। इसका विषाणु क्यूलेक्स विश्नोई मच्छरों से इंसान में फैलता है। यह मच्छर धान के खेतों में, गंदे पानी वाले गड्ढों, तालाबों में पाया जाता है। मच्छर से विषाणु जानवरों, पक्षियों और मनुष्यों में पहुंचता है, लेकिन सुअर के अलावा अन्य पशुओं में यह विषाणु अपनी संख्या नहीं बढ़ा पाते और वे इससे बीमार भी नहीं होते, इसी कारण इन्हें ब्लॉकिंग होस्ट कहते हैं, जबकि सुअर में यह विषाणु तेजी से बढ़ते हैं। इसी कारण सुअर को एम्पलीफायर होस्ट कहते हैं। जापान में इंसेफेलाइटिस पर 1958 में ही टीकाकरण के जरिए काबू पा लिया गया। चीन, इंडोनेशिया में भी टीकाकरण, सुअर बाड़ों की निगरानी के ज़रिए इस पर काबू किया गया, लेकिन भारत में 1978 से मौतों की शुरूआत हुई और अब तक चल रही है।
वैक्सीन लॉन्च हुई, लेकिन नहीं हो रहा उत्पादन
वर्ष 2013 में भारत में जेई का देसी वैक्सीन बना। यह वैक्सीन हैदराबाद स्थित निजी क्षेत्र की संस्था भारत बायोटेक इंटरनेशनल ने इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च और नेशनल इंस्टीट्यूट आफ वायरोलाजी की मदद से तैयार किया गया। वैक्सीन कर्नाटक के कोलार जिले में वर्ष 1981 में जापानी इन्सेफ्लाइटिस के एक मरीज से प्राप्त जेई विषाणु के स्ट्रेन से तैयार किया गया। इस वैक्सीन को अक्टूबर 2013 में लांच करने की घोषणा की गई, लेकिन अभी देश की जरूरतों के मुताबिक यह वैक्सीन उत्पादित नहीं हो पा रही है।
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