बहेड़ा: बहेड़ा मध्य भारत के जंगलों में प्रचूरता से उगने वाला एक पेड़ है जो बहुत ऊँचा, फैला हुआ और लंबे आकार का होता हैं। इसके पेड़ 18 से 30 मीटर तक ऊंचे होते हैं। बहेड़ा का वानस्पतिक नाम टर्मिनेलिया बेलिरिका है। पुरानी खाँसी में 100 ग्राम बहेड़़ा के फलों के छिलके लें, उन्हें धीमी आँच में तवे पर भून लीजिए और इसके बाद पीस कर चूर्ण बना लीजिए। इस चूर्ण का एक चम्मच शहद के साथ दिन में तीन से चार सेवन बहुत लाभकारी है। बहेड़ा के बीजों को चूसने से पेट की समस्याओं में आराम मिलता है और यह दांतो की मजबूती के लिए भी अच्छा उपाय माना जाता है।
भाग-1- औषधीय गुणों से भरपूर हैं ये पेड़ (भाग एक)
बेल: मंदिरों, आँगन, रास्तों के आस-पास प्रचुरता से पाये जाने वाले इस वृक्ष की पत्तियाँ शिवजी की आराधना में उपयोग में लायी जाती है। इस वृक्ष का वानस्पतिक नाम एजिल मारमेलस है। बेल की पत्तियों मे टैनिन, लोह, कैल्शियम, पोटेशियम और मैग्नीशियम जैसे रसायन पाए जाते है। पत्तियों का रस यदि घाव पर लगाया जाए तो घाव जल्द सूखने लगता है। गुजरात प्राँत के डाँग जिले के आदिवासी बेल और सीताफल पत्रों की समान मात्रा मधुमेह के रोगियों के देते है। गर्मियों मे पसीने और तन की दुर्गंध को दूर भगाने के लिये यदि बेल की पत्तियों का रस नहाने के बाद शरीर पर लगा दिया जाए तो समस्या से छुटकारा मिल सकता है।
महारूख: महारुख एक विशाल 60 – 80 फीट ऊँचा पेड़ होता है जो अक्सर सड़क के किनारे, बगीचों आदि में उगता पाया जाता है। इसका वानस्पतिक नाम ऐलेन्थस एक्सेल्सा है। इसकी छाल में ग्लोकारूबिन, एक्सेल्सिन, एलेन्टिक अम्ल, बीटा- सिटोस्टेरोल जैसे महत्वपूर्ण रसायन पाए जाते है। इसकी छाल और पत्तियों का काढ़ा महिलाओं में प्रसव के बाद होने वाली दुर्बलता के लिए बेहतर माना जाता है। इसकी पत्तियों का रस 20 मिली, ताजे गीले नारियल को पीसकर तैयार किया गया दूध (40 मिली), मिश्री और शहद का मिश्रण पिलाने से प्रसूता महिला को ताकत मिलती है। कान में दर्द होने पर इसकी छाल का काढ़ा कान में डालने से दर्द में राहत मिलती है।
महुआ: महुआ एक विशाल पेड़ होता है जो अक्सर खेत, खलिहानों, सड़कों के किनारों पर और बगीचों में छाया के लिए लगाया जाता है और इसे जंगलों में भी प्रचुरता से देखा जा सकता है। महुआ का वानस्पतिक नाम मधुका इंडिका है। आदिवासियों के अनुसार महुआ की छाल का काढ़ा तैयार कर प्रतिदिन 50 मिली लिया जाए तो चेहरे से झाइयां और दाग-धब्बे दूर हो जाते है। इसी काढ़ें को अगर त्वचा पर लगाया जाए तो फोड़े, फुन्सियाँ आदि से छुटकारा मिल जाता है। वैसे डाँग- गुजरात के आदिवासी इसी फार्मूले का उपयोग गाठिया रोग से परेशान रोगियों के लिए करते हैं।
रीठा: एक मध्यम आकार का पेड़ होता है जो अक्सर जंगलों के आसपास देखा जा सकता है। रीठा का वानस्पतिक नाम सेपिंडस एमार्जीनेटस होता है। रीठा के फलों में सैपोनिन, शर्करा और पेक्टिन नामक रसायन पाए जाते है। आदिवासियों की मानी जाए तो रीठा के फलों का चूर्ण नाक से सूंघने से आधे सिर का दर्द या माईग्रेन खत्म हो जाता है। पातालकोट के आदिवासी कम से कम 4 फल लेकर इसमें 2 लौंग की कलियाँ डालकर कूट लेते है और चिमटी भर चूर्ण लेकर एक चम्मच पानी में मिला लेते है और धीरे धीरे इस पानी की बूँदों को नाक में टपकाते है, इनका मानना है कि यह माईग्रेन के इलाज में कारगर है।
शहतूत: मध्य भारत में ये प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। वनों, सड़कों के किनारे और बाग-बगीचों में इसे देखा जा सकता है। इसका वानस्पतिक नाम मोरस अल्बा है। शहतूत की छाल और नीम की छाल को बराबर मात्रा में कूट कर इसके लेप को लगाने से मुहांसे ठीक हो जाते हैं। शहतूत में विटामिन-ए, कैल्शियम, फास्फोरस और पोटेशियम अधिक मात्रा में मिलता हैं। इसके सेवन से बच्चों को पर्याप्त पोषण तो मिलता ही है, साथ ही यह पेट के कीड़ों को भी समाप्त करता है। शहतूत खाने से खून से संबंधित दोष समाप्त होते हैं।
शीशम: मध्यभारत में प्रचुरता से पाए जाने वाला शीशम फर्नीचर और मकानों में इस्तेमाल की जाने वाली लकड़ियों के लिए प्रसिद्ध है। शीशम का वानस्पतिक नाम डलबर्जिया सिस्सू हैं। इसकी फल्लियों में टैनिन खूब पाया जाता है, फल्लियों को सुखाकर चूर्ण बना लिया जाए और इस चूर्ण को घावों पर लगाया जाए तो घाव जल्द ही सूख जाते हैं। आदिवासी शीशम के पत्तों से बने तेल को भी घाव पर लगाते है, जिससे घाव जल्दी ठीक होता है। जिन महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान दर्द की शिकायत हो उन्हे 3 से 6 ग्राम शीशम की पत्तियों का चूर्ण लेना चाहिए।
सप्तपर्णी: सप्तपर्णी एक पेड़ है जिसकी पत्तियाँ चक्राकार समूह में सात- सात के क्रम में लगी होती है और इसी कारण इसे सप्तपर्णी कहा जाता है। इसके सुंदर फूलों और उनकी मादक गंध की वजह से इसे उद्यानों में भी लगाया जाता है। इसका वानस्पतिक नाम एल्सटोनिया स्कोलारिस है। पातालकोट के आदिवासियों का मानना है कि प्रसव के बाद माता को यदि छाल का रस पिलाया जाता है तो दुग्ध की मात्रा बढ जाती है। डाँग- गुजरात के आदिवासियों के अनुसार जुकाम और बुखार होने पर सप्तपर्णी की छाल, गिलोय का तना और नीम की आंतरिक छाल की समान मात्रा को कुचलकर काढ़ा बनाया जाए और रोगी को दिया जाए तो जल्द ही आराम मिलता है।
सिवान: सिवान एक इमारती लकड़ी देने वाला पेड़ है जो मध्य भारत में प्रचुरता से देखा जा सकता है। इसका वानस्पतिक नाम मेलिना अरबोरिया है। बुखार की अवस्था में जब सिर दर्द हो तो सिवान की पत्तियों को पीसकर सिर पर लेप करने से दर्द और जलन समाप्त हो जाती हैं। पातालकोट के आदिवासियों के अनुसार सिवान की जड़ का 3 ग्राम चूर्ण का सेवन करने से पेट का दर्द ठीक हो जाता है तथा यह मल को ढीला भी करता है।
सेमल: सेमल को कॉटन ट्री के नाम से भी जाना जाता है। इसका वानस्पतिक नाम बॉम्बैक्स सेइबा है। सेमल के फूल बड़े खूबसूरत लाल रंग के होते हैं। जिन लोगों को नकसीर की समस्या है, उन्हें सेमल की छाल को पीसकर चावल के पानी (माँड़) के साथ लेने से आराम मिलता है। दस्त लगने पर सेमल की छाल का पाउडर (5 – 10 ग्राम) चीनी के साथ खाया जाए तो तुंरत आराम मिलता है। पातालकोट के आदिवासी हर्बल जानकार पुरूषों को शुक्राणु बढ़ाने के लिए सेमल के बीजों का प्रयोग करने की सलाह देते हैं।
हर्रा: हर्रा का पेड़ पूरे भारत में पाया जाता और ऐसा कहा जाता है कि तीखी गर्मियों में भी यह पेड़ हरा भरा होता है और शायद इसीलिए इसका नाम हर्रा पड़ा। इसका वानस्पतिक नाम टर्मीनेलिया चेबुला है। इसके फल में चेबुलिनिक एसिड, टैनिन, गैलिक अम्ल और ग्लाइकोसाइड जैसे रसायन पाए जाते है। हर्रा के फल को चूसने से गले के रोगों में काफी आराम मिलता है। इसके फल के चूर्ण सुबह-शाम काले नमक के साथ खाने से कफ खत्म हो जाता है।
हिंगन: हिंगन के पेड़ जंगलों व मैदानी इलाकों में बहुतायत से दिखाई देते है। हिंगन के पेड़ में नुकीले कांटे होते हैं और इसके इसके फूल नींबू के समान दिखाई देते हैं। हिंगन का वानस्पतिक नाम बेलेनाएटिस रोक्सबर्घाई होता है। हिंगन के फल के गूदे को मुहांसे पर लगाने से वे ठीक हो जाते हैं। पेट दर्द होने पर हिंगन की जड़ों को पानी में घिसकर पीने से दर्द से निजात मिलता है। आदिवासियों का मानना है कि यदि हिंगन के फल को पानी में घिसकर प्राप्त रस को आंखों पर काजल की तरह लगाया जाए तो आंखों से पानी का बहना बंद हो जाता है।
सीताफल: जंगलों और हमारे आसपास के बाग बगीचों में सीताफल के पेड़ प्रचुरता से देखे जा सकते हैं। सीताफल का वानस्पतिक नाम अन्नोना स्क्वामोसा है। पातालकोट के आदिवासी कच्चे फल को को फोड़कर सुखा लेते है और इसका चूर्ण तैयार करते है। इस चूर्ण को बेसन के साथ मिलाकर बच्चों को खिलाते है, जिससे पेट के कीड़े मर जाते है। डाँग- गुजरात के आदिवासी सीताफल के बीजों को पीसकर नारियल के तेल में मिला लेते है और नहाने से पहले बालों पर लगाते है, इनका मानना है कि ऐसा करने से बालों में जूँ आदि मर जाते है।