विश्व स्वास्थ्य दिवस : चलिए डॉक्टर, नर्स और पर्चे बनाने वाले को भी शुक्रिया बोलते हैं

कोरोना से खिलाफ जंग में डॉक्टर एक बार फिर "धरती के भगवान" बनकर उभरे हैं। लेकिन मेडिकल सेवाओं से जुड़े लोग अपना काम तो वर्षों से ऐसे ही करते आ रहे हैं..
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गाँव कनेक्शन ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की कमियों को लगातार उजागर करता रहता है। लेकिन इस विश्व स्वास्थ्य दिवस (7 अप्रैल) पर बात उन लोगों की जो स्वास्थ्य व्यवस्था की नींव हैं, जो हमारी सेहत के रखवाले हैं। वो डॉक्टर, नर्स, वार्ड व्बॉय, वो ओपीडी में पर्चा वाला ऑपरेटर, आशा बहू और वो गंदगी साफ करने वाले स्वास्थ्यकर्मी, जो सीमित संसाधानों और भारी काम के दबाव के बीच मरीजों के जल्द सेहतमंद करने में जुटे रहते हैं।

‘समाज सेवा का शौक़ था तो नर्सिंग की पढ़ाई की’

बहन जी हमारा नम्बर कब आएगा इस सवाल का जबाब मालती देवी दे पाती उससे पहले ही दूसरी तरफ से आवाज़ आयी बहन जी ये हमारा पर्चा है हमें दवा कहां से मिलेगी। बीस वर्षों से स्टाफ नर्स की जिम्मेदारी सम्भाल रही मालती देवी ने दोनों ही सवालों के जबाब बड़ी ही सहजता से दिए। उनके चेहरे की मुस्कराहट और शांत स्वभाव को देखकर कोई ये नहीं समझ सकता कि ये महिला सुबह चार बजे अपने घर के कितने काम निपटाकर आयी होगी।

दिन के उन्नीस घंटे…घर और अस्पताल…थकती नहीं आप? इस सवाल के जबाब में मालती देवी ने कहा, “दोनों काम बड़े ही आसान हैं। घर पर काम करना हर महिला की जिम्मेदारी है उसे निभाती हूँ। अस्पताल में मरीज हमारे भरोसे आते हैं। उनकी देखरेख करना हमारा फर्ज है।”

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हम बात कर रहे हैं एक स्टाफ नर्स की, जो परिवार और अस्पताल की जिम्मेदारी बखूबी निभा रही हैं। मालती देवी (51 वर्ष) देश की पहली स्टाफ नर्स नहीं हैं जो परिवार और अस्पताल की जिम्मेदारी बखूबी निभा रही हों बल्कि मालती की तरह हजारों नर्सें 24 घंटे में महज पांच से छह घंटे ही सो पाती हैं।

विश्व स्वास्थ्य दिवस पर सलाम इन नर्सों को, जो घर और मरीज की देखरेख बेहतर तरीके से कर पाती हैं।

विश्व स्वास्थ्य दिवस पर गांव कनेक्शन संवाददाता ने स्टाफ नर्स मालती देवी के साथ पूरा एक दिन बिताया। ये जानने की कोशिश की कि आखिर एक नर्स जो कहीं नौकरी करती है वो महिला अपने घर और अस्पताल के काम में कैसे सामंजस्य बिठा पाती है। इस नर्स की दिनचर्या वैसी नहीं थी जैसी हम सोचते हैं। लखनऊ के शुक्ला विहार पारा चौकी में रहने वाली मालती देवी हर सुबह की तरह चार बजे उठ कर अपनी दैनिक दिनचर्या निपटाकर किचन में चली गईं। मालती मूल रूप से हरदोई जिला मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर दूर सुभानखेड़ा गाँव की रहने वाली हैं। समाज सेवा करना इनका शौक था तो इंटर की पढ़ाई के बाद नर्सिंग की पढ़ाई की। इनकी मेहनत और लगन से वर्ष 1999 में ये नर्स बन गईं, तबसे ये परिवार और अस्पताल दोनों के कामों में सामंजस्य बिठा रही हैं।

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नर्सों को लेकर अक्सर हमारे और आपके दिमाग में कई तरह की छवि बनी होती है लेकिन जब एक दिन हमने उनके साथ बिताया तब पता मैं ये समझ पायी एक नर्स 19 से 20 घंटे लगातर काम करती है अगर इस दौरान हमने उसे कहीं बैठा या तेज आवाज़ में बोलना सुन भी लिया ये ये धारणा न बनाएं कि वह काम नहीं करती लापरवाही करती है।

मरीजों के पर्चे बनाते-बनाते उंगलियां दर्द करने लगती हैं

अस्तपाल में घुसते ही जिस शख्स से आपका सबसे पहले सामना होता है वो शीशे की दीवार या फिर लोहे की जाली के पीछे बैठा शख्स होता है, जो पर्चा बनाता है, जिसके आधार पर आपको डॉक्टर देखते हैं। अगर आप सरकारी अस्पताल गए हैं तो ओपीडी में लगी लंबी-लंबी लाइनें और अफरातफरी से जरुर वाकिफ होंगे।

यूपी के बाराबंकी के जिला अस्पताल में जब गांव कनेक्शन की टीम पहुंची, सुबह के आठ बज रहे होंगे और वहां दो लाइनें लगी थीं, एक में पुरुष दूसरे में महिला। 30 से 40 लोग लाइन में थे, सबको जल्दी थी, लेकिन पर्चा बनाने वाला सिर्फ एक शख्स था। नाम था संतोष सिंह, जो पिछले डेढ़ साल से यहां तैनात है। सुबह 8 बजे से 2 बजे तक वो बस लोगों का नाम, उम्र पूछते और लिखते रहते हैं।

संतोष बताते हैं, “हर मरीज को जल्दी होती है, ओपीडी में समय कम होता है और भीड़ ज्यादा, इसलिए तेजी से लिखना होता है, लोगों को पता नहीं होता, किसे दिखाना है बस इस लाइन में लग जाते हैं, इसके बाद का काम हमारे जिम्मे होता है, आप ये समझ लीजिए कई बार इतना हंगामा होता है कि सर में दर्द हो जाता है, उंगिलयां तो रोज ही दुख जाती हैं।”

“लेकिन ये हमारा रोज का काम है, मरीज काफी दूर से आते हैं, इसलिए हम लोग भी जुटे रहते हैं। थोड़ी देर के लिए चाय पीने जाते हैं और फिर से वही काम शुरू हो जाता है। मरीज का नाम, मरीज की उम्र।” वो मुस्कुराते हुए आगे बताते हैं।

‘एक डॉक्टर की ड्यूटी 24 घंटे की होती है’

कई साल मेडिकल की पढ़ाई के बाद ग्रामीण क्षेत्र में नियुक्ति के बाद डॉक्टरों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। एक डॉक्टर के भरोसे सैकड़ों मरीजों की जिम्मेदारी होती है, विश्व स्वास्थ्य दिवस पर ऐसे ही एक डॉक्टर की ज़िंदगी के एक दिन से रू-ब-रू करा रहे हैं।

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उत्तर प्रदेश में लखनऊ के मलिहाबाद सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र के अधीक्षक डॉ. सैय्यद शाहिद रज़ा पिछले एक साल से यहां पर नियुक्त हैं, इससे पहले दिल्ली के सफदरगंज अस्पताल, एम्स जैसे बड़े अस्पतालों में नियुक्ति रहे हैं। एक डॉक्टर के पास मरीज देखने के अलावा कई प्रसाशनिक कार्यों की भी जिम्मेदारी होती है।

“सुबह 8 बजे से दोपहर दो बजे तक ओपीडी में मरीजों को देखते हैं। इसके बाद (ओपीडी के बाद) इमरजेंसी में सुबह तक मरीजों को देखते हैं, आप कह लीजिए एक डॉक्टर की ड्यूटी 24 घंटी रहती ही है।” डॉ. सैय्यद शाहिद रजा बताते हैं।

नोट- ये खबर मूल रुप से साल 2018 में प्रकाशित की गई थी।

यूपी की तरह देश के तमाम ग्रामीण अस्पताल डॉक्टरों की कमी से जूझ रहे हैं। डॉक्टरों की कमी के बारे में डॉ. रज़ा बताते हैं, “सीएचसी में आठ डॉक्टर होने चाहिए, लेकिन हमारे पास तीन डॉक्टर ही हैं, तीन डॉक्टरों के साथ इतना बड़ा अस्पताल संभालना करना मुश्किल होता है।” तीन डॉक्टर पर मरीजों की जो संख्या रज़ा बताते हैं, वो भी गौर करने वाली है। वो बताते हैं, “सर्दियों की अपेक्षा गर्मियों में वर्क लोड (मरीजों की संख्या) बढ़ जाती है। सर्दियों में चार-पांच सौ आते हैं, लेकिन गर्मियों में छह से सात सौ मरीज आते हैं, मार्च अप्रैल में ये संख्या एक हजार तक पहुंच जाती है।’

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एम्स, सफदरजंग दिल्ली, राम मनोहर लोहिया अस्पताल समेत कई बड़े अस्पतालों में तैनात रह चुके रजा बाल रोग विशेषज्ञ बताते हैं कि मेडिकल स्टॉफ पर इलाज के अलावा प्रशासनिक जिम्मेदारियां भी होती है। “डॉक्टर पर बहुत जिम्मेदारियां होती है, अस्पताल में सब ठीक चले ही, ब्लॉक और गांव में कोई सरकारी कार्यक्रम लगने पर भी जाना पड़ता है, घरों में जाकर जांचना पड़ता है कि टीकाकरण हो रहा है कि नहीं, एएनएन आशा बहु या दूसरे कर्मचारी क्या कर रहे हैं, आजकल जैसे विशेष संचारी रोग नियंत्रण पखवारा चल रहा है, अब हमें फील्ड में जाकर देखना होता है कि एएनएम टीका लगा रहीं हैं कि नहीं।”

आम लोगों की तरह डॉक्टरों की अस्पताल से बाहर जिंदगी होती है। डॉ. रजा बताते हैं, “छह साल की बेटी है अब सुबह आठ बजे ओपीडी है, उसे स्कूल भी भेजना होता है, सुबह सात बजे ही घर से निकल जाते हैं, जिससे समय पर ओपीडी में पहुंच पाएं।”

ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति और भी खराब

एक हजार की आबादी के लिए एक डॉक्टर के अंतर्राष्ट्रीय मानक की तुलना में हमारे देश में 1,700 लोगों पर एक डॉक्टर उपलब्ध है। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों के स्तर पर 83.4 प्रतिशत सर्जन, प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञों की 76.3 प्रतिशत, बाल रोग विशेषज्ञों की 82.1 प्रतिशत और सामान्य चिकिस्तकों की 83 प्रतिशत कमी है।

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2015 के अनुसार, देश में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) में 83 फीसदी चिकित्सा पेशेवरों और विशेषज्ञों की कमी है। इंडियास्पेंड के विश्लेषण वर्ष 2015 रिपोर्ट के अनुसार, सीएचसी में उत्तर प्रदेश में चिकित्सकों की 86.7 प्रतिशत कमी है। इसके अलावा बाल रोग विशेषज्ञों की 80.1 प्रतिशत और रेडियोग्राफर की 89.4 प्रतिशत कमी है।

स्वास्थ्य विभाग के नियमानुसार एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र पर आठ डॉक्टरों की नियुक्ति होनी चाहिए। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के आंकड़ों के अनुसार 1.3 अरब लोगों की आबादी का इलाज करने के लिए भारत में बस 10 लाख एलोपैथिक डॉक्टर हैं। इसमें से भी केवल 1.1 लाख डॉक्टर सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्रों में इलाज कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 90 करोड़ लोगों के इलाज का बोझ इन्हीं कुछ डॉक्टरों पर हैं।

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