शेर न चीते, गाँवों को लगे पलीते

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शेर न चीते, गाँवों को लगे पलीतेगाँव कनेक्शन

कूनो पालपुर में सहरिया जनजाति की व्यथा का एक कोण और है। भारत से विलुप्त हो चुके चीतों का। कूनो पालपुर में चीतों को फिर से बसाने को 'प्रोजेक्ट चीता' शुरू किया गया।

इस कोण की शुरूआत होती है दो राज्यों के बीच के एक मसले से। आज से डेढ़ दशक पहले कूनो अभयारण्य में गीर के शेरों को बसाने के सवाल पर केंद्र और गुजरात सरकार आपस में भिड़ गए थे। मध्य प्रदेश सरकार ने अभयारण्य में बसे 28 गाँवों के 1650

परिवारों को अगले आठ साल में जंगल से खदेड़ दिया। सूबे की सरकार को उम्मीद थी कि उनकी जमीन पर शेर रहेंगे, इंसान नहीं। लेकिन 12 सितंबर 2008 को गुजरात ने साफ कर दिया कि वह अपने शेर किसी और को नहीं देगा। मध्य प्रदेश ने गुजरात का सख्त रुख देखकर कूनो में अफ्रीकी चीतों को बसाने की योजना बनाई।

बहरहाल, इस कश्मकश में 28 गाँवों के सहरिया परिवार उलझकर रह गए। शेर तो नहीं आए, अलबत्ता विस्थापन के शिकार गाँवों में लोगों का जीना मुहाल हो गया है। असल में, चीते भारत से सन् 1952 में ही विलुप्त हो गए थे। आबादी 35 करोड़ से बढ़कर सवा अरब हो गई। वन क्षेत्र कागज पर उतना ही है पर असल में इसका 40 फीसदी पहचान में नहीं आता है। फिर भी, चीतों को नए सिरे से देश में बसाने की योजना को हम घोर आशावादिता ही कह सकते हैं।

आजादी के छह दशक बाद भी पर्यावरण और वन पर हमारे बजट का 0.40 फीसदी हिस्सा ही खर्च होता है इसमें वन्य जीवन भी शामिल है। इसका मतलब है कि 15 अहम नस्लों और करीब 650 संरक्षित क्षेत्रों के लिए 800 करोड़ रुपए ही उपलब्ध है। असम के अलावा गैंडे सिर्फ पश्चिम बंगाल में पाए जाते हैं और उन्हें बचाने के लिए महज 44 लाख रुपए आवंटित किए जाते हैं। चीतों के लिए 300 करोड़ रुपए खर्च करने को तैयार हैं। कुछ जीवविज्ञानियों और भूतपूर्व नौकरशाहों को चीते लाने का यह विचार अभूतपूर्व लगा था। उस वक्त जयराम रमेश वन और पर्यावरण मंत्री थे और उनको यह बहुत भाया था। प्रोजेक्ट टाइगर के लिए 50 करोड़ रुपए मंजूर किए गए।

लेकिन सवाल है आखिर इस परियोजना की जरूरत ही क्या थी। चीते के रहने के लिए घास भूमि चाहिए पर कूनो पालपुर में घासभूमि नहीं है सिर्फ खाली ज़मीन है। विस्थापन के बाद कूनो अभयारण्य के दायरे में आने वाले 24 गाँवों के विस्थापित सहरिया सिर्फ राशन के 35 किलो गेहूं, चावल पर निर्भर हैं। 

मकान बनाने के लिए 36 हजार रुपए के अलावा प्रत्येक विस्थापित परिवार के लिए एक लाख रुपए का वित्तीय पैकेज भी शामिल किया गया था। इसमें कृषि भूमि, सामुदायिक सुविधाओं, चारागाह, जलाऊ लकड़ी के लिए जगह का विकास और घरेलू सामान के परिवहन का खर्च भी जोड़ दिया गया। आज ये सुविधाएं जमीन पर कहीं नजर नहीं आतीं। वन विभाग ने विस्थापितों को जो जमीनें दिखाईं, वे मौजूदा कब्जे वाली जमीनों से अलग थीं। दुर्रेड़ी, खजूरीखुर्द, बर्रेड़, पहड़ी और चकपारों में बांटी गई ज्यादातर जमीन असिंचित और बंजर हैं। उन्हें इससे सालभर में बमुश्किल एक ही फसल मिल पाती है।

सहरिया जनजातियों में भी सबसे ज्यादा कुपोषित हैं, साथ ही इस में साक्षरता भी सबसे कम है। भारत में सभी जनजातीय समुदायों में साक्षरता का फीसदी 41.2 फीसदी है, जबकि सहरिया में यह महज 28.7 फीसदी है।

शेर, चीते या बाघों को बचाना जरूरी है। नौकरशाही थोड़ा संवेदनशील होकर सोचे तो सहरिया जैसे वंचित समुदायों का जीवन नष्ट होने से बचाया जा सकता है। अपनी जमीन और भाषा से वंचित इस समुदाय के खत्म होते जाने का जिम्मा किसके सिर पर है, शेर, चीतों और बाघों से यह सवाल नहीं पूछा जा सकता। और सत्ता के पास जवाब नहीं है।

(लेखक पेशे से पत्रकार हैं ग्रामीण विकास व विस्थापन जैसे मुद्दों पर लिखते हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

 

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