शेष बचे सतभाया की कहानी

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शेष बचे सतभाया की कहानीगाँव कनेक्शन, संवाद

जलवायु परिवर्तन पर बहुत चर्चाएं हुआ करती हैं, पर इसका क्या असर होगा इसको समझना बेहद अहम है। आज मैं एक ऐसे गाँव का किस्सा सुनाना चाहता हूं जिसके बारे में गाँव कनेक्शन के पाठकों को जानना जरूरी है।

सतभाया एक पंचायत है, ओडिशा के केंद्रपाड़ा जिले में। इस पंचायत में राजस्व रिकार्ड्स के मुताबिक डेढ़ दशक पहले तक सात गाँव हुआ करते थे। सतभाया, गोविन्दपुरू, कानपुरू, शेकपुरू जैसे गाँव थे जहां हर भारतीय गाँव की तरह घरौंदों जैसे घर थे, नारियल के पेड़ थे, लोग थे। भीतर कनिका नेशनल पार्क और गहिरमाथा घडिय़ाल रिज़र्व के भीतर बसा यह पंचायत समंदर के किनारे था। जीहां, अब इस पंचायत में महज डेढ़ गाँव बचे हैं।

साढ़े पांच गाँव समंदर की पेट में समा चुके हैं। जानकार इसकी वजह समुद्र के जलस्तर में आई बढ़ोत्तरी बताते हैं। साल 1921 के राजस्व रिकॉर्ड बताते हैं कि सतभाया पंचायत में करीब 1021 वर्ग किमी रकबा था, अब यह सौ वर्ग किलोमीटर से भी कम बचा है।

आप सतभाया गाँव जाएंगे तो समंदर में डूबे ट्यूबवेल की पाइप, स्कूल की डूबी हुई छत भी दिख सकती है। मैंने गाँव के बुजुर्गों से बात की तो पता चला पंद्रह-सोलह साल पहले तक समंदर गाँव से डेढ़ मील दूर था। लेकिन समंदर अब हर साल अस्सी मीटर आगे बढ़ जाता है।

सतभाया गाँव और आगे बढ़ रहे विकराल समुद्र के बीच एक रेत की दीवार सी है जो गाँववालों की रक्षा कर रही है। बगल में कानपुरू है जो आधा डूब चुका है। समंदर के पानी से खेती चौपट हो गई है। घर-दुआर डूब चुके हैं। इन गाँवों के बच्चों का ब्याह भी नहीं हो रहा।

हालांकि राज्य सरकार ने कई बार गाँव में बचे लोगों को हटाने की कोशिश की है लेकिन गाँव के लोग मानने को तैयार नहीं है। इसकी दो वजहें हैं विस्थापित पांच गाँव के लोग केन्द्रपाड़ा हाइवे के किनारे रहने को मजबूर हैं, घर-बार छिना, रोजी-रोटी की दिक्कत भी है। दूसरी वजह है सतभाया में एक प्राचीनकालीन पंचवाराही मंदिर है। गाँव के लोगों की उनके साथ इस मंदिर को भी दूसरी जगह स्थापित कर दिया जाए। फिलहाल, योजना फाइलों में घूम रही है।

समंदर की बढ़त रोकने की कोई योजना सरकार के पास नहीं है। ओडिशा के पर्यावरणविदों का कहना है कि दुनिया के किसी हिस्से में हो रहे प्रदूषण से धरती का तापमान बढ़ रहा है और इसका फल भुगतना पड़ रहा है बेचारे गाँववालों को, जिनकी इस ग्लोबल वॉर्मिंग में कोई हिस्सेदारी नहीं है। पर्यावरणविद् भागीरथ बेहरा कहते हैं, ''यह भी तय नहीं है कि गहिरमाथा रिजर्व, भीतरकनिका नेशनल पार्क पर इसका क्या असर पडऩे वाला है।"

बड़ा सवाल है कि आखिर ओडिशा में ही ऐसा क्यों हुआ। इसका भी जवाब है, असल में विकास की अंधी दौड़ में समंदर के किनारे के मैंग्रोव के जंगल कटते चले गए। मैंग्रोव समुद्री किनारों के लिए प्राकृतिक तटबंध का काम करते हैं और वनस्पति का छाजन होने से अपरदन और कटाव जैसी घटनाएं कम होती हैं।

असल में एक कयास यह भी है कि समुद्री बढ़त का यह मामला किसी प्लेटटेक्टॉनिक गतिविधि होने से भी हुई हो सकती है। यह सब वैज्ञानिक बातें हैं और इसको पलटा नहीं जा सकता है। मेरी चिंता सड़क किनारे रह रहे या उन गाँववालों की है जो अपने बच्चों को वह प्रार्थना रटवाते हैं जिसमें कानपुरू-सतभाया से इस आपदा को टालने की गुहार करते नजर आते हैं। यह इलाका 1997 में महाचक्रवात झेल चुका है। इन बच्चों की तालीम और भविष्य की छोडि़ए, इन्हें दो जून को रोटी की चिंता ज्यादा बड़ी लग रही है। उम्मीद है सतभाया के लोगों की आवाज़ ऊपर तक पहुंचेगी, उस ईश्वर तक, जिन से वो प्रार्थना कर रहे हैं। मुझे उस ऊपर तक आवाज़ पहुंचाने से ज्यादा दिलचस्पी है, जो कुर्सी पर बैठक ईश्वर बने बैठे हैं।

(लेखक पेशे से पत्रकार हैं ग्रामीण विकास व विस्थापन जैसे मुद्दों पर लिखते हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

 

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