सियाचिन में सैनिकों का दुश्मन, सर्द मौसम

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सियाचिन में सैनिकों का दुश्मन, सर्द मौसमgaoconnection

सियाचिन ग्लेशियर में तैनात सैनिकों के लिए पाकिस्तानी सेना की गोलियों से भी बड़ा दुश्मन है वहां का बेहद सर्द मौसम। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा अतंरिक्ष में इस्तेमाल के लिए विकसित की गई कुछ तकनीकों को यदि जल्द प्रभावी तरीके से हमारे सैनिकों की सुरक्षा में लगाया जाए, तो वहां मरने वाले सैनिकों की संख्या कम हो सकती है। इसरो ने दुनिया का सबसे हल्का उष्मारोधी पदार्थ खोजी है और उच्च क्षमता से लैस खोजी एवं बचाव बीकन (संकेत दीप) तकनीकें विकसित की हैं, जो दुनिया के सबसे ज्यादा ऊंचाई पर स्थित युद्धक्षेत्र में तैनात भारतीय सैनिकों के जीवन की भारी मुश्किलें कुछ कम कर सकती है। वर्ष 1984 में भारत द्वारा इन बर्फीली चोटियों को अपने अधिकार में लेने के बाद से अब तक वहां लगभग 1000 सैनिक मारे जा चुके हैं। रिकॉर्डों के अनुसार इनमें से सिर्फ 220 सैनिक की मौत दुश्मन की गोलियों से हुई। भारतीय प्रयोगशालाओं में विकसित हो रही हालिया तकनीकें यदि सैनिकों तक पहुंच जाएं तो कितने ही लोगों की जिंदगियां बचाई जा सकती हैं पर सुस्ती दोनों ओर है। वैज्ञानिकों को उद्योगों तक तकनीक हस्तांतरित करना मुश्किल लगता है और उद्योगों की शिकायत है कि अधपके से उत्पाद उन्हे भेज दिए जाते हैं।

कई सुधारों के बावजूद, अब भी भारतीय सैनिक बहुत भारी कपड़े ही पहनते हैं। अब इसरो के वैज्ञानिकों ने एक बेहद हल्के वजन वाला पदार्थ विकसित किया है, जो एक प्रभावी उष्मारोधक की तरह काम करता है। हाथ में पकड़कर इस्तेमाल किया जा सकने वाला ‘खोज एवं बचाव’ रेडियो सिग्नल एमिटर (उत्सर्जक) सैनिकों के लिए एक अन्य उपयोगी उपकरण साबित हो सकता है, इसके सिग्नलों को उपग्रहों के जरिए पहचाना जा सकता है, इससे लापता या हिमस्खलन में दबे सैनिकों की स्थिति का पता लगाने में मदद मिल सकती है।

जाने-माने रॉकेट वैज्ञानिक एवं तिरुवनंतपुरम स्थित विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र के निदेशक के. सिवान का कहना है, उच्चस्तरीय अंतरिक्षीय अनुप्रयोगों के लिए विकसित किए गए इन पदार्थों और तकनीकों में थोड़े से सुधार के बाद इन्हें सामाजिक इस्तेमाल के लिए आसानी से तैयार किया जा सकता है। उन्होंने कहा, ‘‘इसरो करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल करता है, इसलिए यह भारतीय जनता के प्रति जवाबदेह है।’’ इसरो के रॉकेट और उपग्रह निश्चित तौर पर लोगों की मदद करते हैं लेकिन वीएसएससी जैसे ‘प्रौद्योगिकी के मंदिरों’ में ऐसी कई और चीजें हैं, जिसका इस्तेमाल जिंदगियां बचाने के लिए किया जा सकता है। यदि इनमें से कुछ तकनीकों का इस्तेमाल किया गया होता तो इस साल की शुरुआत में अपनी जान गंवाने वाले लांस नाइक हनमनथप्पा कोप्पड और अन्य नौ सैनिकों की जिंदगियां बचाई जा सकती थीं। अगर इन सैनिकों के कपड़े ही ‘सिलिक एयरोजेल’ से बने होते, तो भी शायद उन्हें ठंड से मरने से बचाया जा सकता था। इसी तरह यदि इन सैनिकों के हाथों में ‘खोज और बचाव’ उपकरण होते तो उनकी स्थिति का पता भारतीय उपग्रहों का इस्तेमाल करके आसानी से लगाया जा सकता था। 

देश के लिए रॉकेट बनाने में महारत रखने वाली भारत की प्रयोगशाला ने हाल ही में ‘दुनिया का सबसे हल्का कृत्रिम पदार्थ’ बनाने में दक्षता हासिल की है। इस पदार्थ का नाम ‘सिलिका एयरोजेल’ है। यह एयरोजेल दरअसल ठोस है लेकिन इसकी जटिल संरचना कुछ ऐसी है कि इसमें 99 फीसदी हवा है इस कारण यह बेहद हल्का है और उष्मा का जबरदस्त रोधक है।

इस पदार्थ को बनाने वाले दल की सदस्य और एडवांस्ड मैटिरियल्स एंड सिरेमिक्स डिविजन में वैज्ञानिक नागा प्रिया ने बताया कि सिलिका एयरोजेल बनाने की प्रक्रिया बेहद महफूज है, इसलिए इस एयरोजेल बनाने की प्रक्रिया के मानकीकरण में उनके दल को बहुत प्रयास करने पड़े। उनकी टीम को उम्मीद है कि कुछ ‘सिलिका एयरोजेल’ का इस्तेमाल क्रायोजेनिक इंजनों में द्रवित हाइड्रोजन और द्रवित ऑक्सीजन वाले टैंकों के ताप अवरोधन के लिए किया जा सकता है चूंकि इसका वजन कम है, ऐसे में इसका इस्तेमाल अंतरिक्ष में पहने जाने वाले स्पेस सूट बनाने में किया जा सकता है और इसका इस्तेमाल भारतीय अंतरिक्षयात्री भविष्य में कर सकते हैं। 

नागा प्रिया ने कहा कि ‘सिलिका एयरोजेल’ के अन्य सामाजिक लाभ भी हैं। यदि खिड़कियों के शीशों पर इस नए पदार्थ की एक पतली परत चढ़ा दी जाए तो प्रकाश तो आसानी से अंदर आ सकेगा लेकिन गर्मी वहीं रुक जाएगी। उन्होंने कहा, जरा ऐसी इमारत की कल्पना करके देखिए, जिसके बाहरी हिस्से पर इस शीर्ष स्तरीय उष्मारोधक की परत चढ़ी हो। यह इमारत गर्मियों में ठंडी और सर्दियों में गर्म रहेगी। इसे वातानुकूलन कम करना होगा, जिसके चलते बिजली की भारी बचत होगी। ऐसा भी नहीं है कि यह पदार्थ इन सब इस्तेमालों के लिए बिल्कुल तैयार ही है। इसे बनाना अब भी बहुत महंगा है और इनमें से कुछ तो बेहद कमजोर हैं। वीएसएससी की टीम ने कुछ एयरोजेल्स के निर्माण के लिए मौजूदा तापमान पर वाष्पीकरण का इस्तेमाल किया, जो सुखाने वाली उस बेहद जटिल तकनीक से सस्ता है, जिसका इस्तेमाल विशेष अनुप्रयोगों में किया जाता है। इसरो के वैज्ञानिकों ने खोज एवं बचाव कार्य में मदद करने वाले छोटे उपकरण भी तैयार किए हैं। दुर्गम और निर्जन इलाकों में जाते समय पर्वतारोही या सैनिक इन छोटे उपकरणों को अपने हाथ में रख सकते हैं। इन्हें एक बटन दबाकर सक्रिय किया जा सकता है। इनके चालू होते ही इनसे एक रेडियो सिगनल निकलता है, जिसकी पहचान उपग्रहों के माध्यम से हो सकती है, जीपीएस का इस्तेमाल करके मुसीबत में फंसे व्यक्ति की मौजूदा स्थिति का पता लगाया जा सकता है। वीएसएससी ने एक ऐसा उपकरण तैयार किया है, जिसे मछली पकड़ने वाली नौकाओं पर लगा सकते हैंै। इसे खुद भी चालू किया जा सकता है और नमकीन पानी के संपर्क में आने पर यह अपने आप भी चालू हो सकता है। यह समुद्र में खोए जहाजों का पता लगाने में मदद कर सकता है। इनकी बैटरियां कम से कम 65 घंटे तक सिग्नल दे सकती हैं 

सुदूर इलाकों में निर्बाध बिजली आपूर्ति तकनीकविदों के लिए एक सपने की तरह रहा है पर अब वीएसएससी के वैज्ञानिकों ने एक ऐसी हल्की ईंधन सेल प्रणाली विकसित की है, जो एक विद्युत रासायनिक प्रक्रिया की मदद से सीधे ईंधन से बिजली बना सकती है। इसमें सिर्फ हाइड्रोजन और हवा की जरुरत होगी। यह गैजेट 100 वॉट तक की बिजली पैदा कर सकता है। इन सेलों से चलने वाले और ऑटोमेटिक रूप से संचालित होने वाले कैमरों का इस्तेमाल सुदूर इलाकों में सीसीटीवी कैमरों के रुप में किया जा सकता है। इससे सैनिकों को किसी क्षेत्र विशेष की निगरानी करने में मदद मिलेगी। सिवान ने कहा कि इन तकनीकों के लिए उद्योग जगत के उचित साझेदारों की पहचान की जा रही है और तकनीकों का हस्तांतरण किया जाएगा ताकि कथित ‘रॉकेट साइंस’ सिर्फ रॉकेट साइंस ही बनकर न रह जाए। इससे भी अहम यह है कि ‘देसी तकनीक’ का इस्तेमाल ‘मेक इन इंडिया’ के प्रयास को बल देने के लिए और जिंदगियों को बचाने में किया जा सके।

(पीटीआई/भाषा, यह लेखक के अपने विचार हैं)

 

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