समाज में गाय की भूमिका पर नई सोच जरूरी

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समाज में गाय की भूमिका पर नई सोच जरूरीgaonconnection

भारतीय समाज में गाय का स्थान मां तुल्य रहा है। गाय से दूध, बछड़े और गोबर, गोमूत्र मिलता था, उस पर कृषि निर्भर थी। अब तो गायें मर-मर के जी रही हैं। गोबर और गोमूत्र तो देती हैं वह भी कागज की रद्दी और प्लास्टिक खाकर। अब खेतों की जुताई और सामान की ढुलाई में भी बैलों का उपयोग नहीं रहा। यहां तक कि पीने के लिए गाय का नहीं भैंस का दूध चाहिए। इस बात पर चर्चा जरूरी है कि क्या करें इन गायों का जो दूध नहीं दे सकती। 

मौजूदा परिस्थितियों में गाय की भूमिका दूसरे पशुओं से भिन्न नहीं हो सकती। हार्वेस्टर से खेती होती है और भूसा खेतों में रह जाता है, अनाज बोने के लिए जमीन कम है इसलिए चरागाह बचे नहीं और जो चारा है भी वह दुधारू जानवरों को पहले देना होता है। गायें जो अशक्ता हैं, दूध नहीं देती या नस्ल सुधार की सम्भावना भी नहीं उनका क्या किया जाय। यह तर्क आसान और सही हो सकता परन्तु प्रासंगिक नहीं कि बूढ़े मां-बाप जो काम नहीं कर सकते उनको क्या घर से निकाल दोगे?

अब गायें, बैल और बछड़े छुट्टा छोड़ दिए जाते हैं जो खेतों की फसल बर्बाद करते हैं। शहर के लोग या साधु सन्त गोवंश की बात तो करते हैं, वे नहीं समझ सकते किसान का दर्द। वह गोवंश को मार भी नहीं सकता और खिलाकर जिला भी नहीं सकता, बस एक खेत से दूसरे खेत में भगा सकता है। अब गोवंश भी बन्दर और नीलगाय की श्रेणी में आ गया है जिनके विषय में सोचना चाहिए।     

पिछले वर्षों में लाखों ट्रैक्टरों और हार्वेस्टरों ने बैलों के महत्व को लगभग समाप्त कर दिया है। पशुओं से प्राप्त ऊर्जा का अंश 45 प्रतिशत से घटकर 16 प्रतिशत रह गया है। गोवंश पर खेती की निर्भरता समाप्त हो गई है और उनमें से अधिकांश जानवर अनाथ हो गए हैं। हम जिस तरह रिज़र्व फॉरेस्ट बनाते हैं जंगली जानवरों के लिए उसी के क्षेत्र को बढ़ाकर अनुपयोगी गोवंश, बन्दर और नीलगाय को उसी अनाथाश्रम में छोड़ देना चाहिए। 

पिछले दो दशकों में कामकाजी पशुओं की आबादी करीब एक तिहाई घट गई है। लकड़ी से हल बनाने वाले बढ़ई और हल की नसी यानी लोहे का नुकीला फार पीटने वाले लोहारों को भी दूसरे काम ढूंढ़ने पड़ रहे हैं। ऐसे में इन तमाम जानवरों का क्या होगा। सत्तर के दशक में बहुत बड़ी संख्या में बन्दरों का निर्यात होता था विदेशों को, जहां विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में सर्जरी करके डॉक्टर सीखते थे। हमारे यहां तो मेंढक की चीर फाड़ भी बन्द है। 

बाजार तक में पशुओं की मदद से माल पहुंचाने में समय अधिक लगता है इसलिए वाहनों से कॉम्पिटीशन में टिक नहीं पाते हैं। वैज्ञानिकों ने बैलगाड़ी में बाल-बियरिंग, अतिरिक्त पहिया, डनलप टायर आदि लगाकर खूब रिसर्च की, परन्तु पाया कि अब इसमें कोई सुधार नहीं हो सकता। अब तो किसान बैलगाड़ी, हल, रहट, विविध प्रकार के कोल्हू से मुंह मोड़ चुका है और जब दूध प्रयोग के विषय में सोचते हैं तो केवल भैंस याद आती है। भैंस के दूध में छह प्रतिशत से अधिक चिकनाई होती है जबकि गाय के दूध में चार प्रतिशत से भी कम। नैशनल डेयरी डेवलपमेन्ट बोर्ड द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में पाया गया है कि गायों की आबादी घट रही है जबकि भैंसों की आबादी बढ़ रही है।

गोवंश के प्रति सम्मान भाव शुद्ध रूप से आर्थिक था न कि भावात्मक, अहिंसात्मक और दार्शनिक। यदि अहिंसा की बात होती तो बकरा, भेड़, मछली, मुर्गा आदि के प्रति भी वही लगाव होता जो गाय के प्रति रहा है। आज की तारीख में यदि दरवाजे पर देशी गाय और दुधारू भैंस बंधी है तो स्वाभाविक रूप से पौष्टिक आहार भैंस को खिलाते हैं।

देश के बहुत से लोगों के लिए गोमाता का जयकारा लगाना ही पर्याप्त है। चारा और चरागाहों पर भूमाफियाओं का कब्जा है, पड़ोसी देशों को जानवरों की तस्करी पर कसाइयों की पकड़ है, गोशालाओं के प्रबंधन में निर्बाध भ्रष्टाचार है, पशु चिकित्सा भगवान भरोसे तो गाय का जयकारा बोलने से क्या होगा। 

 

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