मुगलसराय स्टेशन : नाम में ही सब कुछ रखा है

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मुगलसराय स्टेशन : नाम में ही सब कुछ रखा हैमुगलसराय स्टेशन

सोशल मीडिया चौपाल में आज मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम बदलने पर जारी हंगामे पर है। आप की पोस्ट है वरिष्ट पत्रकार , लेखक और प्रसार भारती के सलाहकार उमेश चतुर्वेदी की फेसबुक वॉल से..

लखनऊ। उत्तर प्रदेश सरकार मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर पंडित दीन दयाल उपाध्याय करना चाहती थी। केंद्र सरकार ने भी इस पर अपनी मुहर लगा दी है लेकिन फिलहाल इस बात पर केंद्र सरकार और विपक्ष में बहस चल रही है। इस बात को लेकर सोशल मीडिया पर भी वाद विवाद का दौर चल रहा है। लोग दो पक्षों में बंट गए हैं। कोई इस स्टेशन का नाम बदलने के इस कदम को अच्छा बता रहा है तो कोई इसकी निंदा कर रहा है। ऐसे में फेसबुक पर उमेश चतुर्वेदी ने एक पोस्ट शेयर की है। इस पोस्ट पर आपकी क्या राय है ये आप हमें इसे पढ़कर बताइए...

ये है पोस्ट ...

हमारे यहां एक कहावत है, नाम में क्या रखा है? लेकिन नाम में कितना रखा है, इसका असर देखिए, जब किसी सड़क, किसी शहर या किसी इलाके का नाम बदला जाता हो, तब। पूर्वी उत्तर प्रदेश में चंदौली जिला स्थित मुगलसराय रेलवे स्टेशन देश का सबसे बड़ा रेल जंक्शन है। इसका नाम बदलकर अब केंद्र सरकार ने दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर रख दिया है।

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एकात्म मानववाद के प्रणेता, भारतीय जनता पार्टी के सिद्धांत पुरूष के नाम पर इस स्टेशन का नाम रखे जाने पर राजनीति होनी ही थी, लिहाजा खूब हो रही है। 11 फरवरी 1968 की सुबह इसी स्टेशन पर भारतीय जनता पार्टी के पूर्ववर्ती संगठन भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय का शव मिला था..पचास साल होने को आए इस हादसे के..उनकी मौत से रहस्य का पर्दा अभी तक नहीं उठ पाया है। लेकिन अपने पितृपुरूष की रहस्यमयी मौत, जिसे भारतीय जनता पार्टी के ज्यादातर लोग हत्या मानते हैं, को लेकर भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं का मुगलसराय स्टेशन के प्रति खास तरह का लगाव और श्रद्धा से साथ उससे विक्षोभ भी है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह रिश्ता बेहद जज्बाती है। इसीलिए इस स्टेशन का नाम बदले जाने का यह समुदाय स्वागत कर रहा है।

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गौर करने की बात यह है कि नाम बदले जाने का सबसे ज्यादा विरोध उस समाजवादी खेमे से उठ रहा है, जिसके ही साथ मिलकर दीनदयाल उपाध्याय ने 1963 में नया राजनीतिक इतिहास रचा था। समाजवादियों के अग्र पुरूष डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने इसी साल गैरकांग्रेसवाद का जो नारा दिया था, उसे हकीकत की धरती पर उतारने में दीनदयालय उपाध्याय का बतौर जनसंघ महासचिव बड़ा सहयोग था।

1963 के उपचुनावों में समाजवादियों और जनसंघ के बीच गठबंधन बना। इस गठबंधन की ओर से दीनदयाल जी जहां जौनपुर से चुनाव लड़े, वहीं डॉक्टर राममनोहर लोहिया फर्रूखाबाद से चुनावी मैदान में उतरे, जबकि अमरोहा से आचार्य जेबी कृपलानी लड़े। अपने सिद्धांतों पर अडिग दीनदयाल जी ने जातिवाद के नाम पर वोट मांगने के बजाय हार को पसंद किया। बहरहाल इसी साल कांग्रेस के अजेय समझे जाने वाले किले में सेंध लगी।

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संसद को डॉक्टर राममनोहर लोहिया जैसा धुरंधर समाजवादी नेता और वक्ता मिला। इसकी अगली कड़ी 1967 के चुनावों में दिखी, जब नौ राज्यों में समाजवादियों और जनसंघ की संविद सरकारें बनीं। अजेय समझी जाने वाली कांग्रेस को इन राज्यों में हार का सामना पड़ा। ऐसा नहीं कि समाजवाद के साथ दीनदयाल उपाध्याय के रिश्ते और उनके योगदान को मौजूदा समाजवादी नहीं जानते। फिर भी वे मुगलसराय का नाम बदले जाने का लगातार विरोध कर रहे हैं। इससे तो यही लगता है, वे अपने विकास में उपाध्याय के राजनीतिक योगदान को नकारने की कोशिश कर रहे हैं।

साभार - उमेश चतुर्वेदी की फेसबुक पोस्ट

        

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