तीन तलाक : बात का बतंगड़ बनाना कोई हम भारतीयों से सीखे

Arvind ShukklaArvind Shukkla   24 Aug 2017 3:39 PM GMT

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तीन तलाक :  बात का बतंगड़ बनाना कोई हम भारतीयों से सीखेतीन तलाक पर गांव कनेक्शन के डिप्टी न्यूज एडिटर के निजी विचार

हम भारतीयों में बतंगड़ भी एक आर्ट की तरह है, जो हर धर्म में बिना किसी भेदभाव के बराबर है। कितना ही अच्छा, सामयिक और ज़रूरी मुद्दा क्यों न हो, हम उसे नया रूप देकर, बिगाड़ कर माँगेंगे.. और हद तक कोशिश करेंगे कि उसे धर्म से जोड़ दें, निजी ज़िंदगी पर ले जाएं। ट्रिपल तलाक़ (एक साथ) निहायत ही घटिया चीज़, (इस्लाम में भी जगह नहीं, बक़ौल पीड़ित, जानकार) फिर उस पर एक फ़ैसला आता है.. सम्भवत: आप ख़ुश भी हैं.. कितना ख़ुश होना चाहिए ये आप ही तय करिए, क्योंकि पीड़ित क्यूं स्वर्ग या दोज़ख़ से तो आई नहीं.. पत्नी होने से पहले बहन बेटी रही होंगी।
फिर एक बार में इसी पर बात क्यूं नहीं करते... बात सीधे-सीधे उन महिलाओं की है जो मुस्लिम हैं और जिन चंद पतियों ने रातों-रात, सड़क चलते, दाल में नमक कम होने, गुस्से में, बच्चे के सू-सू करने जैसी मामूली से मामूली बात पर रिश्ता तोड़ लेने की है, जो महिला को सड़क पर लाकर खड़ा कर देते हैं। वो महिलाएं इसकी लड़ाई लड़ रही थी, आप में से बहुत लोगों ने उनका साथ दिया होगा, तो वो एक पायदान जीत पाईं।

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लेकिन जैसे ही ये फैसला आया- आप तुरंत धर्म पर आ गए.. दहेज प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या और जो मिले। इन कानूनों में झोल हैं, लोग उनका फायदा उठा रहे हैं, दहेज प्रथा अब गिफ्ट के रूप में स्वीकार है, लेकिन लाखों लोगों को इसके लिए थाना-कचेहरी के चक्कर लगाने पड़े हैं। इसकी कमियों पर चर्चा तो आप कुछ दिन पहले कर लेते, फेसबुक आपका है, लिख लेते.. क्रांति करना था तो सड़क पर उतरते प्रदर्शन करते फोरम बनाते लेकिन आपने किया ठेंगा नहीं।

यही हाल गैर मुस्लिमों का भी है, एक फैसले को आप सीधे जाति-धर्म को लपेटने लगे। तलाक चंद लोग देते होंगे पूरी कौम नहीं।
हलाला का मज़ा कुछ लोग लेते होंगे ... फिर चटखारों की जरूरत नहीं थी। फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट का। श्रेय या ताना मोदी को क्यूं ? सुप्रीम कोर्ट कठपुतली समझते हैं ? कितने समझदार नासमझ हैं। कम से कम सुप्रीम कोर्ट की गरिमा और उसके अब तक फैसलों का ख्याल रखिए.. अगर ये संस्थाएं स्वतंत्र होकर काम नहीं कर रही होती तो आप सांस नहीं ले पाते।

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मुझे तलाक, हलाला, खुला और, हिंदू मैरिज एक्ट जो भी इन सबके बारे में बहुत जानकारी नहीं.. आप कह सकते हैं मुस्लिम धर्म के बारे में ही गहरी जानकारी नहीं, लेकिन सच ये भी है कि मुझे अपने हिंदू धर्म की भी बहुत जानकारी नहीं। आस्तिक हूं, अपने धर्म और इस जाति मैं पैदा हुआ उसकी पूरी इज्जत भी करता हूं। मंदिर के साथ गुरुद्वारे और मस्जिद-मज़ार भी कभी-कभी चला जाता हूं।
लेकिन मैं अपने धर्म की कुरीतियों, आंडबरों को कभी नहीं मानता। जो धर्म- रीति रिवाज इंसानी जिंदगी को मुश्किल करें.. उसमें सुधार की गुंजाइश है।

यही तीन तलाक क्या है, विरोध क्यों है ये मैंने किसी मुस्लिम धर्म गुरु, नेता या बहुत जानकार से नहीं जाना, मैंने आम सी महिलाओं से पूछा कल..
जो अपने धर्म को मानती हैं, तीन तलाक से पीड़ित हैं.. उनमे से कुछ हलाला के लिए मजबूर की गईं। मुझे उनकी राय सर्वोच्च लगी.. उनमें लाग लपेट नहीं थी, वोट बैंक की राजनीति नहीं थी... मैं उनसे एक पत्रकार या हिंदू होने के नाते नहीं, इंसान के रूप में पूछ रहा था.. वो झिझक, शर्मिंदगी और दर्द की गांठे खोल रही थीं...

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मैं समझने की कोशिश कर रहा था कोर्ट के फैसले के बाद जश्न क्यों मनाया है जा रहा है.. क्योंकि उनकी जिंदगी खौफ में कटती है, कब पति नाराज हो जाए, सास को नागवार गुजर राए, कोई दूसरी जिंदगी में आ जाए.. और तलाक हो जाए..
क्योंकि फिर समझौते की गुंजाइश नहीं बचती.. औरते 'हराम" हो जाती हैं.. एक बार तलाक-तलाक तलाक कह दिया तो वो घर, पति और सब हराम हो जाता है..यही पतियों के लिए भी होता है, उनके लिए पति को देखना हराम हो जाता है। एक पीड़ित ने बताया)।
समझौते की शर्त में हलाला आता है.. एक गैर मर्द के साथ रात बिताने के बाद मैं कैसे फिर अपने पति के साथ के साथ रह पाती। परिवार और बच्चों से आंखे मिलाती- एक स्वाभिमानी महिला बताती है.. जिसने हलाला की जगह अलग रहना मंजूर किया।
मेरी वकालत सिर्फ इतनी है.. अब आप के पास मौका है.. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वो छात्र मत बनिए जो एक छात्रा को रिपोर्टर से बात करने नहीं दे रहे थे, सिर्फ मोदी विरोध के लिए यशोदाबेन को यहां मत घसीटिए..
कभी अच्छा है तो अच्छा के साथ जाइए.. आगे बहुत अच्छा होने की उम्मीद रहती है..
मैने एक और महिला से पूछा कि आज जब ये फैसला आया तो आपके के पति और घर बाकी लोगों ने क्या कहा..
उनका जवाब था.. आज हम सब ने शुकराने की नमाज अदा की... (खुदा को शुक्रिया कहा उन सबने)

(लेखक गांव कनेक्शन के डिप्टी न्यूज एडिटर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

(साभार अरविंद शुक्ला की फेसबुक वॉल से)

          

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