चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया हथकरघा उद्योग

Divendra SinghDivendra Singh   22 Feb 2017 1:44 PM GMT

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चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया हथकरघा उद्योगप्रतापगढ़ के कुंडा विधानसभा क्षेत्र में कभी अपने कपड़े से प्रदेश भर में पहचान बनाने वाला हथकरघा उद्योग जिला प्रशासन और जन प्रतिनिधियों की अनदेखी से खत्म होने के कगार पर है।

स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क

प्रतापगढ़। हमेशा सुर्खियों में रहने वाले प्रतापगढ़ के कुंडा विधानसभा क्षेत्र में कभी अपने कपड़े से प्रदेश भर में पहचान बनाने वाला हथकरघा उद्योग जिला प्रशासन और जन प्रतिनिधियों की अनदेखी से खत्म होने के कगार पर है।

जिला मुख्यालय से लगभग 29 किमी. दूर कुंडा तहसील के परियावां में दस वर्षों पहले तक हर घर में हथकरघा उद्योग चलते थे, सैकड़ों लोगों का घर इसी उद्योग पर निर्भर था। लेकिन अब पूंजी की कमी और उपेक्षा से ये अब बेरोजगार हो गए।

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यहां के बुने कपड़े कभी इलाहाबाद, कौशाम्बी, रायबरेली, जौनपुर, सुल्तानपुर जैसे कई जिलों तक जाते थे। यहां के कारोबारी मुख्तार अहमद को लखनऊ में सम्मानित भी किया गया था। परियावां में सफेद कुर्ते-पैजामे का कपड़ा व पैंट का कपड़ा तैयार किया जाता था। जो हथकरघा उद्योग चल भी रहे हैं वहां पर भी सिर्फ दरी ही बनती है।

कभी हथकरघा से अपने घर का खर्च चलाने वाले राशिद अहमद (55 वर्ष) अब अपने बच्चों को हथकरघा का काम करने से मना करते हैं। राशिद अहमद कहते हैं, “एक समय था कि यहां हर घर में हथकरघा चलता था, लेकिन अब कोई ये काम नहीं करना चाहता है, यहां के लोग मुम्बई, दिल्ली जाकर नौकरी करने लगे हैं। चुनाव के दौरान जितने नेता आते हैं बस वादे करके चले जाते हैं, सुनने वाला कोई नहीं है।”

हथकरघा विभाग के अनुसार, प्रदेश में 3,320 गाँवों में हथकरघा उद्योग चलाया जाता है, जिनमें 62,822 परिवारों के 1,83,119 लोग इस काम में लगे हैं। जिनमें से 1,04,240 पुरुष और 78,879 महिलाएं शामिल हैं। करीब 25 वर्ष पहले यहां का हथकरघा उद्योग काफी चल रहा था, लेकिन मशीन से बुने गए कपड़ों के सस्ते होने से यहां के लोगों को अपने कपड़े सस्ते करने पड़े। हथकरघा में मुनाफा कम होने लगा तो उसे बनाने वाले कारीगर भी कम होते गए।

हथकरघा उद्योग चलाने वाले हबीबुल्लाह (60 वर्ष) हमने ये भी कोशिश की हथकरघा की जगह पर बड़ी मशीनें लगा ले, लेकिन इतना पैसा नहीं था कि मशीन लगा पाते। इसी वजह से अब हम लोग घर-घर बुना जाने वाला कपड़ा कुछ लोगों के हाथों तक ही सीमित रह गया। अब तो हम लोग बस नाम भर का काम करते हैं।”
हबीबुल्लाह, हथकरघा उद्योग चलाने वाले

हथकरघा उद्योग बंद होने से कारीगर कर रहे पलायन

बड़े-बड़े शहरों में जब मिलों ने मशीनों से कपड़ा बनाना शुरू किया तो गाँव में कपड़े का रोजगार धीमा पड़ने लगा। इससे कारीगरों को काम मिलना बंद हो गया। गाँव में काम न मिलते देख ये कारीगर दिल्ली, मुम्बई, सूरत जैसे शहरों में रोजगार की तलाश में चले गए।

परियावां बाजार में किराना की दुकान चलाने वाले परमेश्वर केसरवानी (50 वर्ष) कहते हैं, “एक समय था जब यहां पर बड़े पैमाने पर हथकरघा का काम होता है, आस-पास के जिलों के व्यापारी यहां पर कपड़ा खरीदने आते थे, लेकिन अब एक-दो घरों में ही हथकरघा का काम होता है।”

हर बार मिला सिर्फ झूठा आश्वासन

परमेश्वर आगे बताते हैं, “कई बार जिलाधिकारी समेत उद्योग विभाग के कई अधिकारी आकर स्थानीय व्यापारियों से मिले भी। शासन की तरफ से उद्योग को बढ़ावा देने के लिए मदद करने का आश्वासन दिया, लेकिन आज तक मदद न मिल पायी।”

This article has been made possible because of financial support from Independent and Public-Spirited Media Foundation (www.ipsmf.org).

     

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