चप्पल प्रथा का नाम सुना है ? एक और कुप्रथा, जिससे महिलाएं आजाद होने लगी हैं...

Neetu SinghNeetu Singh   13 Sep 2018 6:08 AM GMT

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वक्त बदल गया है लेकिन सोच बदलने में बहुत वक्त लगने वाला है। ललितपुर के ही रमेशरा गाँव के प्रताप सिंह गौड़ (60 वर्ष) संस्कार और सम्मान की दुहाई देते हैं। वो कहते हैं, "हम मंदिर जाते हैं तो भगवान के सम्मान में चप्पल बाहर उतारते हैं, उसी प्रकार ये लोग चप्पल को हाथ में लेकर चलते हैं और हम बुजुर्गों को सम्मान देते हैं। लेकिन हमारा इसपर कोई दबाव नहीं रहता है। वैसे भी सम्मान मिलना बुरा किसे लगता है।"


ललितपुर। आपने चप्पल प्रथा के बारे में सुना है। सुनेंगे तो भरोसा करना मुश्किल होगा, क्योंकि हम और आप घर की चमचमाती फर्श तक पर नंगे पैर नहीं चलते। लेकिन बुंदेलखंड में कई जगह महिलाएं घर के बड़े-बुजुर्गों और ऊंची जातियों के लोगों को देखकर चप्पल हाथ में ले लेती हैं। ये परंपरा वर्षों से चली आ रही है।

"चप्पल पहनकर घर के बुजुर्गों और ऊंची जाति के लोगों के सामने नहीं जा सकते हैं। कोई भी मौसम हो इनके सामने से चप्पल हाथ में लेकर निकलना पड़ता है। अगर चप्पल पहनकर निकल गये तो ये उनका अपमान माना जाता है।" भानुकुंवर अहिरवार (28 वर्ष) बताती हैं। जो महिलाएं ऐसा नहीं करती हैं उन्हें ताने मारे जाते हैं और जमकर भड़ास निकाली जाती है। ललितपुर की भानु आगे बताती हैं, "अगर चप्पल पहनकर इनके सामने चले गये तो हमें एडवांस कहा जाता है, बड़े का सम्मान करने के तरीके नहीं सिखाने पर हमारे मायको को कोसा जाता है। लेकिन हमने भी तय कर लिया था, इस तरह भी किसी का सम्मान होता है और हमने वो प्रथा तोड़ दी।"





ललितपुर जिले में सदियों से पुरुषों के सामने चप्पल पहनकर न जाने की परम्परा है। 40 से 60 वर्ष की महिलाएं ससुराल में अपने से बड़े पुरुषों जैसे ससुर, ज्येष्ठ, नन्दोई या बड़ी जाति के लोगों के सामने चप्पल पहनकर नहीं जा सकती हैं। पुरुषों या ऊंची जाति के सामने चप्पल पहनकर किसी महिला का जाना इज्जत और मर्यादा का विषय माना जाता है। सिर्फ महिला ही नहीं बल्कि पुरुष भी ऊंची जाति के सामने चप्पल पहनकर नहीं जाते हैं।

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ये यहाँ की पहली कुप्रथा नहीं है बल्कि यहाँ पर चबूतरे पर न बैठना, पुरुषों के सामने न बैठना, लम्बा घूंघट जैसी तमाम कुप्रथाएं हैं। जिले में भानुकुंवर अहिरवार इस तरह की कुप्रथा का विरोध करने वाली पहली महिला नहीं हैं बल्कि इनकी तरह कई महिलाओं ने अपनों से और समाज से लड़कर चप्पल प्रथा जैसी कुप्रथा का विरोधकर पितृसत्तात्मक सोच पर विजय पायी है। ये वो ग्रामीण महिलाएं है जो पढ़ी-लिखी है और ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं को साक्षरता केन्द्रों पर पढ़ाने का काम करती हैं।

चाहे जितनी सर्दी हो, तपती धूप हो, हमें बड़ी जाति के लोगों के सामने चप्पल पहनने की अनुमति नहीं है। आज भी प्रधान के पास हम चप्पल पहनकर नहीं जा सकते, अगर जाते भी हैं तो हाथ में चप्पल लेकर जाते हैं।
लक्ष्मी वंशकार, 36 वर्ष, महरौनी, ललितपुर

भारत मंगलयान का जश्न मना रहा है, महिलाओं को बराबरी का हक नहीं बल्कि उन्हें आगे लाने और पूरा सम्मान देने के लिए तमाम पहल, कई कानून बने हैं लेकिन ग्रामीण इलाकों में हालात अभी पूरी तरह नहीं बदले। बुंदेलखंड के सूखा प्रभावित ललितपुर में जिला मुख्यालय से लगभग 45 किलोमीटर दूर महरौनी ब्लॉक के रमेशरा ग्राम पंचायत के ग्राम प्रधान शैलेन्द्र सिंह का चप्पल प्रथा को लेकर अपनी राय देते हैं, "चप्पल पहनकर बड़े बुजुर्गों के सामने न जाना सम्मान और मर्यादा का विषय माना जाता रहा है। लेकिन किसी के ऊपर इसका कोई दबाव नहीं है ये तो उनकी सभ्यता की बात है।" वो आगे बताते हैं, "जबसे नयी नवेली पढ़ी लिखी बहुएं आयीं तो उन्होंने ये सब करना बंद कर दिया, पर अभी ये खत्म नहीं हुआ है जो सम्मान करना जानते हैं वो चप्पल पहनकर बड़े बुजुगों के सामने अभी भी नहीं जाते है।"

चप्पल हाथ में लेकर चलना किसे अच्छा लगता होगा। हमें भी पसंद नहीं था लेकिन किसी को परवाह नहीं था। हमने विरोध किया तो ताने मारे गए, कोसा गया लेकिन हमने हार नहीं मानी और इस कुप्रथा से आजादी मिली।
भारती अहिरवार, (26 वर्ष) ललितपुर, यूपी

इसी गाँव की रहने वाली भारती अहिरवार (26 वर्ष) का कहना है, "चप्पल हाथ में लेकर चलना अच्छा नहीं लगता है, इस बात की किसी को कोई परवाह नहीं है। हमने कई साल ये परम्परा सही है। जब हम घर से बाहर निकलने लगे तो हमें लगा कि प्रथा गलत है इसका विरोध करना चाहिए। सास-ससुर और गांव वालों के बहुत ताने सुने पर इस परम्परा का हमने विरोध किया, आज हम अपने घर से चप्पल पहनकर निकलते हैं।" विरोध करने वाली महिलाओं की संख्या अभी बहुत ज्यादा नहीं है, पर बदलते समय के साथ एक दूसरे के देखा-देखी नई नवेली बहुएं चप्पल पहनकर निकलने लगी हैं। पर आज भी जो उम्रदराज महिला या पुरुष है वो अभी भी चप्पल पहनकर नहीं जाती हैं।

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परम्परा के बारे में ये है बुजुर्गों की राय

वक्त बदल गया है लेकिन सोच बदलने में बहुत वक्त लगने वाला है। ललितपुर के ही रमेशरा गाँव के प्रताप सिंह गौड़ (60 वर्ष) संस्कार और सम्मान की दुहाई देते हैं। वो कहते हैं, "हम मंदिर जाते हैं तो भगवान के सम्मान में चप्पल बाहर उतारते हैं, उसी प्रकार ये लोग चप्पल को हाथ में लेकर चलते हैं और हम बुजुर्गों को सम्मान देते हैं। लेकिन हमारा इसपर कोई दबाव नहीं रहता है। वैसे भी सम्मान मिलना बुरा किसे लगता है।"

हम मंदिर जाते हैं तो भगवान के सम्मान में चप्पल बाहर उतारते हैं, उसी प्रकार ये लोग चप्पल को हाथ में लेकर चलते हैं और हम बुजुर्गों को सम्मान देते हैं। लेकिन हमारा इसपर कोई दबाव नहीं रहता है।
प्रताप सिंह गौड़, (60 वर्ष) ललितपुर, यूपी

आसान नहीं थी समाज से लड़ाई

इन ग्रामीण महिलाओं ने खुलकर समाज की उन पुरानी प्रथाओं को तोड़ा है। इनमें से कुछ महिलाओं ने कई दिन खाना नहीं खाया तो कुछ ने अपने पतियों की मार सही, कईयों को तो जुर्माना भी देना पड़ा तब कहीं जाकर आज ये महिलाएं स्वतंत्र होकर अपनी जिन्दगी जी पा रही हैं।

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पुरानी रुढ़िवादी प्रथाओं के पीछे ये हैं महिलाओं के अनुभव

मड़ावरा ब्लॉक की कल्पना (26 वर्ष) बताती हैं, "लंबा घूंघट, किसी से बात न करना, छोटी जाति के हैं तो मंदिर नहीं जाना, नल पर तब तक पानी नहीं भर सकते जब तक ऊंची जाति के लोग भरकर न चले जाएं। प्रधान के सामने बैठ नहीं सकते, बैठना है तो जमीन पर बैठें। इन सबका हमने विरोध किया।" "इस प्रथा को खत्म करने में मुझे एक साल का समय लगा, सास को लगा हम पढ़ाने जाने लगे तो हमारा दिमाग खराब हो गया। सब मास्टरनी कहकर हमारा मजाक बनाते थे, हमने सोच लिया था कि कुछ भी हो जाए, हम चप्पल लेकर हाथ में नहीं जाएंगे।" ये कहना है ज्ञानबाई अहिरवार का।

महरौनी ब्लॉक के टपरियन गाँव में रहने वाली लक्ष्मी वंशकार (36 वर्ष) का कहना है, " शादी के दो साल तक हमने भी घर में चप्पल नहीं पहनी, बड़े लोग सिर्फ दबाव बनाने के लिए हमें चप्पल नहीं पहनने देते हैं। चाहें जितनी सर्दी हो, तपती धूप में भी हमें बड़ी जाति के लोगों के सामने चप्पल पहनने की अनुमति नहीं है। आज भी प्रधान के पास हम चप्पल पहनकर नहीं जा सकते, अगर जाते भी हैं तो हाथ में चप्पल लेकर जाते हैं।"

वहीं भानुकुंवर अहिरवार ने कहा, "अगर गलती से चप्पल पहनकर बड़े लोगों के सामने चले गये तो वो हमारी गलती के लिए हमपर जुर्माना लगते हैं, जिसके बदले हमारे घर के लोग कुछ पैसा दिया जाता है उस पैसे को गाँव के मन्दिर में रख देते हैं जरूरत पड़ने पर इसका उपयोग किया जाता है।" वो आगे बताती हैं, "पुरानी रूढ़िवादी प्रथा को ससुराल वाले परम्परा मानते हुए उसी माहौल में हमे ढालने को मजबूर करते हैं, जिस बजह में परिवार में तनातनी जैसी स्थिति बनना आम बात है। जिसने विरोध किया उसकी जिन्दगी आसान हो गयी जो नहीं कर पायीं वो आज भी घुटन भरी जिन्दगी जीने को मजबूर हैं।

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