मक्का उगाने वाले इलाकों में भी बढ़ रही है पॉपकार्न की मांग, कस्बे-कस्बे घूम रही हैं गाड़ियां

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मक्का उगाने वाले इलाकों में भी बढ़ रही है पॉपकार्न की मांग, कस्बे-कस्बे घूम रही हैं गाड़ियांबेरोजगार युवा कम लागत में पॉपकॉर्न बेचकर पैसे कमा रहे हैं।

जीत नाग, स्वयं कम्यूनिटी जर्नलिस्ट

बेलहरा (बाराबंकी)। जिन इलाकों में हजारों एकड़ मक्का बोई जाती है, वहां भी रेडीमेडी पॉपकार्न का चलन बढ़ रहा है। कस्बों में ढेलों पर पॉपकार्न बेचे जा रहे हैं। गांव और देहात में पहले यही मक्का भुर्जी के यहां भुजवाकर या फिर ढोलों पर चलती आग पर भूजकर बेचे जाते थे।

यूपी के बाराबंकी-सीतापुर समेत कई जिलों में भारी पैमाने पर मक्के की खेती होती थी। बाराबंकी में इसे बड़ी जोधरी (मक्का) नाम से जानते थे। हालांकि छुट्टा जानवरों और नीलगायों के आतंक चलते कई जिलों में अब उस तरह से खेती नहीं होती। लेकिन इन इलाकों में मक्का के लावे अब पॉपाकार्न के नए रूप में बेचे जा रहे हैं।

ग्रामीण इलाकों में पॉपकार्न की बिक्री ने युवाओँ को रोजगार भी दिया है। पढ़े-लिखे होने के बावजूद काम नहीं मिलने के कारण परेशान क्षेत्र के युवाओं ने पॉपकॉर्न को रोजगार का साधन बना लिया है। पॉपकॉर्न मशीन का इस्तेमाल कर स्थानीय युवा अपनी जिन्दगी खुशहाल बना रहे हैं। बेलहरा गाँव के बेरोजगार युवा कम लागत में पॉपकॉर्न बेचकर खुद को और अपने परिवार को आर्थिक रूप से मजबूत कर रहे हैं।

पहले हम लोग काम के लिए जिला मुख्यालय जाया करते थे। वहां जाने के बाद कभी काम मिल जाता था तो कभी काम नहीं मिलता था लेकिन अब ये (पॉपकार्न) बेचकर बेचकर अच्छी कमाई हो जाती है।
रवीन्द्र, स्थानीय निवासी

बेलहरा निवासी राकेश कुमार गुप्ता पॉपकॉर्न बेचने के बारे में बताते हैं, ‘पहले हम मक्के के दाने को भार में भूनकर लावा तैयार करते थे। फिर उसे बेचने बाजार जाते थे, लेकिन अब पॉपकॉर्न मशीन के उपयोग से हम पहले से ज्यादा माल तैयार कर लेते हैं।

This article has been made possible because of financial support from Independent and Public-Spirited Media Foundation (www.ipsmf.org).

     

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