मिड डे मील की जमीनी हकीकत: एक-एक रसोइया बनाता है 100-100 बच्चों का खाना

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मिड डे मील की जमीनी हकीकत: एक-एक रसोइया बनाता है 100-100 बच्चों का खानारसोईयों की मासिक आय सिर्फ एक हजार रुपये, फिर भी समय से नहीं मिलता पैसा। फोटो: विनय गुप्ता

स्वाती शुक्ला/स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क

लखनऊ। कुपोषित बच्चों को पोषित करने के लिए अब तक की सबसे अच्छी सरकारी योजना मिड-डे-मील है। मगर हकीकत यह है कि इस योजना को साकार कर रहे रसोइयों के घर का चूल्हा दो वक्त भी नहीं जल पाता है। असल में मानक के अनुसार, रसोईयों की बहुत ज्यादा कमी है।

जिला मुख्यालय से 36 किमी. दूर इटौंजा के खानपुर प्राथमिक विद्यालय में मेवालाल यादव (45 वर्ष) रसोईया हैं। घर के मुखिया और छह बच्चों के पिता मेवालाल की मासिक आय मात्र एक हजार रुपये है, मगर यह मासिक आय भी उन्हें समय पर नहीं मिलती है। रसोईयां की नौकरी कर रहे मेवालाल थोड़ी सी खेती करके अपने परिवार की जिम्मेदारी निभा रहे हैं। मेवालाल की तरह काम कर रहे हजारों रसोईया भी न सिर्फ इसी स्थिति से जूझ रहे हैं, बल्कि सही समय पर अपने वेतन मिलने का इंतजार करते हैं।

मेवालाल यादव बताते हैं, अभी तक हमें वेतन नहीं मिला है। स्कूल में सिर्फ खाना ही बनाना पड़ता, बल्कि झाडू लगाने के साथ-साथ शौचालय भी साफ करना पड़ता है क्योंकि सफाई कर्मचारी कभी-कभी आता है। वह आगे बताते हैं कि पूरा खाना गैस पर बनता है, लेकिन रोटी चूल्हे पर सेंकी जाती है, जिसके लिए लकड़ी भी खरीदने जाती हूं। स्कूल में प्रधान गल्ला दे जाते हैं। स्कूल में गेहूं धो कर सुखाते हैं, फिर चक्की पर पिसाते हैं।

उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा परिषद अपने लगभग 1,13,500 प्राथमिक एवं 45,700 से अधिक उच्च प्राथमिक विद्यालयों के माध्यम से प्रदेश के ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में शिक्षा प्रदान कर रहा है। वहीं, मिड-डे-मील के लिए लगभग दो लाख रसोईया काम कर रहे हैं। मिड-डे-मील के बारे में लखनऊ प्राथमिक विद्यालय खानपुर के सहायक अध्यापक देवेन्द्र कुमार मिश्र बताते हैं, एक तो रसोईयों को मानदेय समय पर नहीं मिलता है, साथ ही बच्चों की संख्या बहुत है। जबकि नियमानुसार 25 बच्चों पर एक और 50 पर दो और 100 पर तीन रसोईए होने चाहिए। जिस तरीके से स्कूल में बच्चों की संख्या बढ़ेगी, उसी तरह रसोईयों की भी भर्ती होगी। एक स्कूल में 5 रसोईयों को रख सकते हैं।

ये बात सच है कि रसोईयों की नियुक्ति मानक के अनुसार बहुत कम है। शुरू से ही रसोईयों की कमी है। अन्य प्रदेश में रसोईयों का मानदेय ज्यादा है, लेकिन उत्तर प्रदेश में मात्र एक हजार रुपये है। ये एक हजार रुपये भी उन्हें समय पर नहीं मिल पाते हैं और उसमें भी 11 माह काम करने के बाद 10 माह का पैसा मिलता है। अगर स्कूल किसी कारण बंद हो जाता है तो उसमें रसोईया का पैसा हेडमास्टर और प्रधान काट लेते हैं।
वीना गुप्ता, अध्यक्ष, मिड डे मील रसोईया कर्मचारी व यूनियन संघ उत्तर प्रदेश।

काम कर रहे 25.70 लाख रसोइया

देशभर में राज्य और केन्द्रशासित प्रदेशों में मिड-डे-मील योजना के अंतर्गत 25.70 लाख रसोईया और सहायकों को काम दिया गया है। मानदेय को संशोधित कर एक हजार रुपये प्रति माह कर दिया गया और साल में कम से कम दस महीने कार्य दिया गया। मध्याह्न भोजन योजना स्कूल में भोजन उपलब्ध कराने की सबसे बड़ी योजना है, जिसमें रोजाना सरकारी सहायता प्राप्त 11.58 लाख से भी अधिक स्कूलों के 10.8 करोड़ बच्चे शामिल हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के 2015 के आकड़ों के अनुसार, नेशनल प्रोग्राम मिड-डे-मील का भोजन 10.38 करोड़ बच्चे कर रहे हैं और यह 11.58 लाख स्कूलों में चलाई जा रही है।

दूसरों जिलों में भी कम नहीं हैं समस्याएं

उन्नाव

सोहरामऊ प्राथमिक विद्यालय की हेडमास्टर स्नेहिल पाण्डेय बताती हैं, हमारे यहा पर 200 से ज्यादा बच्चे हैं, लेकिन रसोईया सिर्फ एक है। यहां पर काम कर रहे रसोईयों को बहुत ज्यादा काम करना पड़ता है और पैसा भी समय पर नहीं मिलता। रसोईया अपना काम अच्छे से करते हैं, लेकिन प्रधान की तरफ से सामग्री समय पर नहीं मिलती है।

बाराबंकी

कुना प्राथमिक विद्यालय की हेड मास्टर आर्चना कुमारी बताती हैं, स्कूल में 120 बच्चे हैं, लेकिन रसोईया सिर्फ एक है। हमारे स्कूल में रसोईया की नियुक्त अभी हुई है, लेकिन काम को देखते हुए पैसा बहुत कम है। वहीं, बाराबंकी जिला के बेसिक शिक्षाधिकारी पीएन सिंह बातते हैं, हमारे प्रदेश में रसोईयों को मानदेय तो कम मिलता है, इसके अलावा समय पर नहीं मिलता। पूरे 11 माह काम करने वाले रसोईयों को 10 माह का पैसा ही दिया जाता है। रसोईयों को नियुक्ति के समय पर हेल्थ हाइजिन की जानकारी दी गई थी, मगर उसके बाद बहुत से रसोईयों की नियुक्ति हुई, पर उनको इस बात की जानकारी नहीं दी गई। मैंने कई बार प्रशासन के सामने यह बात रखी है। आंकड़ों की मानें तो बाराबंकी में 2771 स्कूल हैं, जिनमें 8773 रसोईया हैं, जो 3,79, 360 बच्चों का भोजन बनाते हैं।

जालौन

जालौन जिला मुख्यालय से 15 किलोमीटर दूर कलपीनगर के तरीबुलदी पूर्व माध्यामिक विद्यालय की रसोईया कमलेश यादव बताती हैं, पहले तो समय पर मानदेय नहीं मिलता और फिर रोज नवीनीकरण भी किया जाता है। जिसका बच्चा यहां पढ़ेगा, वही रसोईया यहां पर काम करेगा। बिना कारण नौकरी से निकाल दिया जाता है। हम लोग हर माह काम करते हैं, लेकिन हर माह का पैसा नहीं मिलता है। पिछले साल शीतकालीन में स्कूल बन्द नहीं हुआ, लेकिन उसका पैसा भी काट लिया गया था।

सीतापुर

जिला मुख्यालय से 35 किमी. दूर नीलगांव के प्राथमिक विद्यालय की सहायक अध्यापिका पारुल पाण्डेय बताती हैं कि मेरे स्कूल में रसोईयों की कमी है। बच्चों की संख्या बहुत अधिक है। 200 बच्चों के लिए 800 रोटियां बननी पड़ती हैं। वहीं, वेतन समय पर न मिलने से रसोईयां अपना काम ठीक से नहीं करते हैं।

कानपुर

जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर पूर्व माध्यमिक विद्यालय टकटौली शिव राजपुर की प्रधान अध्यापक रेखा गौतम राही बताती हैं, मेरे विद्यालय में 45 बच्चे हैं, जिसके आधार पर दो रसोईया रखे गए हैं। मगर तीन महीने से रसोईयों का पैसा नहीं आया है। प्रत्येक वर्ष नवीनीकरण हुआ करता है। कई बार प्रधान अपनी मनमानी करते हैं। सामग्री का पैसा भी बहुत देर से आता है।

This article has been made possible because of financial support from Independent and Public-Spirited Media Foundation (www.ipsmf.org).

     

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