कठपुतली ने बताई मोहन से महात्मा बनने की कहानी

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कठपुतली ने बताई मोहन से महात्मा बनने की कहानीवाराणसी के कैथी ब्लॉक के चौबेपुर गाँव में 15 जनवरी को आयोजित हुआ था कठपुतली कार्यक्रम।

स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क

लखनऊ। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर कई फिल्में बनी और किताबें भी लिखी गईं, लेकिन ये पहला मौका है जब मोहनदास से महात्मा बनने की पूरी गाथा को कठपुतली के माध्यम से दिखाया जा रहा है।

बीते दिनों 15 जनवरी को वाराणसी के कैथी ब्लॉक के चौबेपुर गाँव स्थित छोटे शिवाला मंदिर में कठपुतली नाटक ‘मोहन से महात्मा’ का मंचन किया गया। गैर सरकारी संस्था आशा ट्रस्ट कठपुतली के माध्यम से महात्मा गांधी के जीवन को मंचित कर रही है।

आशा ट्रस्ट के संयोजक वल्लभाचार्य पाण्डेय कठपुतली कला के बारे में बताते हैं, ‘पिछले कुछ दिनों में गांधी जी के बारे में गलत अफवाहें फैलाई जा रही हैं, इसलिए हमने सोचा कि कठपुतली के माध्यम से गांधी जी के जीवन की सच्चाई गाँव और शहरों तक पहुंचाएं।’

वो आगे कहते हैं, ‘सृजन कला मंच के कठपुतली कलाकारों और आईआईटी, बीएचयू के सहयोग से 52 मिनट की इस प्रस्तुति को तैयार किया गया है। शुरू में हमें लग रहा था ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे में मुद्दे शायद न पसंद किए जाए लेकिन परिणाम इसके उलट हुआ। ग्रामीणों ने इसे बेहद पसंद किया। अब हम इलाहाबाद और गाजीपुर के गमहर में भी कठपुतली कार्यक्रम करेंगे।’

इस कठपुतली नाटक में गांधी जी के बचपन, दक्षिण अफ्रीका प्रवास और स्वतंत्रता संग्राम सहित तमाम ऐतिहासिक घटनाओं को 150 से अधिक कठपुतलियों की सहायता से प्रस्तुत किया जाता है। लम्बे समय से कठपुतली का इस्तेमाल केवल मनोरंजन के लिए होता आया था पर उसके कथानकों में बदलाव आ रहा है। मनोरंजन अभी भी है लेकिन उसके साथ अब एक सामाजिक संदेश भी लोगों तक पहुंचाने की कोशिश रहती है।

कला को दिया जा रहा बढ़ावा

इतिहास

भारत में कठपुतली नचाने की परंपरा काफ़ी पुरानी रही है। धागे से, दस्ताने द्वारा व छाया वाली कठपुतलियां काफ़ी प्रसिद्ध हैं और परंपरागत कठपुतली नर्तक स्थान-स्थान जाकर लोगों का मनोरंजन करते हैं। इन कठपुतलियों से उस स्थान की चित्रकला, वस्तुकला, वेशभूषा और अलंकारी कलाओं का पता चलता है, जहां से वे आती हैं।

यहां धागे और डंडों से नचाई जाती हैं कठपुतलियां

उड़ीसा का ‘साखी कुंदेई’, आसाम का ‘पुतला नाच’, महाराष्ट्र का ‘मालासूत्री बहुली’ और कर्नाटक की ‘गोम्बेयेट्टा’ धागे से नचाई जाने वाली कठपुतलियों के रूप हैं। तमिलनाडु की ‘बोम्मलट्टम’ काफ़ी कौशल वाली कला है, जिसमें बड़ी-बड़ी कठपुतलियां धागों और डंडों की सहायता से नचाई जाती हैं।

अलग-अलग प्रदेशों में है इसके रूप

राजस्थान की कठपुतली काफ़ी प्रसिद्ध है। यहां धागे से बांधकर कठपुतली नचाई जाती है। लकड़ी और कपड़े से बनी और मध्यकालीन राजस्थानी पोशाक पहने इन कठपुतलियों द्वारा इतिहास के प्रेम-प्रसंग दर्शाए जाते हैं। अमरसिंह राठौर का चरित्र काफ़ी लोकप्रिय है, क्योंकि इसमें युद्ध और नृत्य दिखाने की भरपूर संभावनाएं हैं।

उत्तर प्रदेश में सबसे पहले कठपुतलियों का इस्तेमाल शुरू हुआ था। शुरू में इनका इस्तेमाल प्राचीनकाल के राजा महाराजाओं की कथाओं, धार्मिक, पौराणिक व्याख्यानों और राजनीतिक व्यंग्यों को प्रस्तुत करने के लिए किया जाता था। उत्तर प्रदेश से धीरे-धीरे इस कला का प्रसार दक्षिण भारत के साथ ही देश के अन्य भागों में भी हुआ।

कई जगह जानवरों की खाल से बनाई जाती है कठपुतली

जानवरों की खाल से बनी, ख़ूबसूरती से रंगी गई और सजावटी तौर पर छिद्रित छाया कठपुतलियां आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उड़ीसा और केरल में काफ़ी लोकप्रिय हैं। उनमें कई जोड़ होते हैं, जिनकी सहायता से उन्हें नचाया जाता है। केरल के ‘तोलपवकूथु’ और आंध्र प्रदेश के ‘थोलु बोमलता’ में मुख्यतः पौरणिक कथाएं ही दर्शायी जाती हैं, जबकि कर्नाटक के ‘तोगलु गोम्बे अट्टा’ में धार्मिक विषय व चरित्र भी शामिल किए जाते हैं।

पश्चिम बंगाल में कहते हैं पतुल नाच

दस्ताने वाली कठपुतलियां नचाने वाला दर्शकों के सामने बैठकर ही उन्हें प्रदर्शित करता है। इस क़िस्म की कठपुतली का नृत्य केरल का ‘पावकथकलि’ है। उड़ीसा का ‘कुंधेइनाच’ भी ऐसा ही है। पश्चिम बंगाल का ‘पतुल नाच’ डंडे की सहायता से नचाई जाने वाली कठपुतली का नाच है। एक बड़ी-सी कठपुतली नचाने वाले की कमर से बंधे खंभे से बांधी जाती है और वह पर्दे के पीछे रहकर डंडों की सहायता से उसे नचाता है। उड़ीसा के ‘कथिकुंधेई’ नाच में कठपुतलियां छोटी होती हैं और नचाने वाला धागे और डंडे की सहायता से उन्हें नचाता है।

This article has been made possible because of financial support from Independent and Public-Spirited Media Foundation (www.ipsmf.org).

      

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