#स्वयंफेस्टिवल : ‘उन दिनों’ में मैं क्यों पूजा नहीं कर सकती, मंदिर नहीं जा सकती?
Bhasker Tripathi 31 Dec 2016 12:41 PM GMT

भास्कर त्रिपाठी (कम्युनिटी रिपोर्टर) 28 वर्ष
स्वयं डेस्क
स्वयं फेस्टिवल : छठा दिन। स्थान : ललितपुर के महरौनी ब्लाक का महारानी लक्ष्मीबाई उच्चतर माध्यमिक विद्यालय
'उन दिनों' में मैं क्यों पूजा नहीं कर सकती। मंदिर नहीं जा सकती?
अगर मैंने अचार छुआ तो क्या वह वाकई खराब हो जाएगा?
क्यों माँ मुझे, किसी भी चीज को छुने से रोकती है, अलग कमरे में रुकने को कहती है, अलग प्लेट में खाना खाने को कहती है?
स्वयं उत्सव में महिला सशक्तीकण कार्यक्रम का सबसे बड़ा इम्पैक्ट ललितपुर में देखने को मिला। यहां जब लड़कियों के 'उन दिनों' पर चर्चा शुरू हुई तो एक बिटिया खुद को रोक नहीं पाई।
उसने मंच पर आकर पूरे समाज को ललकारते हुए कहा-माहवारी के दिनों में हमारे साथ भेदभाव क्यों। उसने दलील दी कि लड़कों के दाढ़ी-मूंछ निकलता है तो क्या उन्हें घर में छिप कर बैठ जाना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं होता। वे आराम से घूमते-टहलते हैं तो हमें उन दिनों में क्यों घर में बैठने को कहा जाता है। स्कूल-कालेज जाने तक से रोका जाता है। ये सामान मत छूओ, ऐसा न करो। तमाम तरह की बंदिशें लगा दी जाती हैं। आखिर ये भेदभाव नहीं तो और क्या है।
बालिका ने कहा-माहवारी आना कोई शर्मिंदगी वाली बात नहीं है। इस दौरान अचार छूने से खराब होता है न पापड़। बालिका ने अपनी सहपाठियों से कहा-अगर आपको मेरी बात पर विश्वास नहीं होता तो एक बार मेरे कहने से ऐसा करके देख लो। कोई चीज खराब नहीं होगी।
बालिका ने आगे कहा-मैंने देखा है कि कुछ लड़कियां उन दिनों में स्कूल आना छोड़ देती हैं। जो स्कूल नहीं आतीं जरा वे हाथ ऊपर कर मुझे बताएं। इस पर भीड़ में कोई हाथ नहीं उठा तो बालिका ने कहा-इसका मतलब है कोई भी स्कूल नहीं आता या सभी स्कूल आती हैं। भीड़ में बैठी लड़कियों के हंसने पर उसने सवाल किया कि आप हंस क्यों रही हैं। हंसने से काम नहीं चलेगा, इस मुद्दे पर खुलकर बात करनी होगी। नहीं तो हम पर से बंदिशें कभी नहीं हटेंगी।
बालिका ने कार्यक्रम में कवि शंकर शैलेंद्र की एक कविता भी पेश की, पेश हैं उसके बोल
तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर। तू जिंदा है ….
ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जायेंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन.
कभी तो होगी इस चमन पे भी बहार की नज़र,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर। तू जिंदा है…
हमारे कारवां को मंजिलों का इंतज़ार है,
ये आँधियों, ये बिजलियों की पीठ पर सवार है।
तू आ कदम मिला के चल, चलेंगे एक साथ हम,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर। तू जिंदा है …
ज़मीं के पेट में पली अगन, पले हैं ज़लज़ले,
टिके न टिक सकेंगे भूख रोग के स्वराज ये,
मुसीबतों के सर कुचल चलेंगे एक साथ हम,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर। तू जिंदा है..
बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग ये,
न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इन्कलाब ये,
गिरेंगे ज़ुल्म के महल, बनेंगे फिर नवीन घर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर। तू जिंदा है…
This article has been made possible because of financial support from Independent and Public-Spirited Media Foundation (www.ipsmf.org).
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