नीलेश मिसरा की आवाज़ में सुनिए अनुलता राज नायर की कहानी पढ़िए: ‘दीदी की ईदी’  

Neelesh misra

वो कहानियां तो आज तक आप किस्सागो नीलेश मिसरा की आवाज़ में रेडियो और ऐप पर सुनते थे अब गांव कनेक्शन में पढ़ भी सकेंगे। #कहानीकापन्ना में इस बार पढ़िए नीलेश मिसरा की मंडली की सदस्या अनुलता राज नायर की लिखी कहानी ‘दीदी की ’

नाज़, नगमा और आलिया के बाद पैदा हुआ था अनवार। ज़ाहिर है, वो सबकी आँखों का तारा था। माँ- बाप के अलावा बहनों का भी लाड़ला था वो, याने पूरे घर का केंद्र बिंदु।

अनवार की अम्मी को उसके अब्बा गाँव से ब्याह कर लाये थे। उन्होंने किसी स्कूल या मदरसे का कभी मुँह तक नहीं देखा था मगर देखने में बड़ी खूबसूरत थीं सो स्कूल मास्टर कुरैशी साहब को उन्हें घर लाकर कोई अफ़सोस न था। यूँ भी उनकी दकियानूसी सोच के हिसाब से पूरी तरह फिट थीं उनकी बेग़म। यानि परदे में रहकर पूरी उम्र काट देना और कभी किसी बात पर अपनी राय न देना।

कुरैशी साहब यूँ तो क़स्बे के मिडिल स्कूल में मास्टर थे मगर मोहल्ले के तकरीबन सारे बच्चे उनसे ट्यूशन पढ़ने आते थे सो उनका गुज़ारा किसी तरह चल जाता था। महीने की आखिर में खींचतान होने पर थोड़ा बहुत उधारी करके उनका सात लोगों का परिवार किसी तरह चल रहा था।

बच्चियां जब तक छोटी थीं तब तक तो कोई ख़ास दिक्कत नहीं हुई मगर उनके बड़े होने के बाद उनके कपड़े–लत्ते, चूड़ियां, दुपट्टे वगैरह की मांग मास्साब को तोड़ डालती थी।

बच्चियों को उन्होंने कभी स्कूल नहीं भेजा। इसकी दो वजहें थीं…एक तो हाथ तंग और दूसरे तंग मानसिकता। स्कूल में बेशक वे स्त्री शिक्षा और उनकी आज़ादी से जुड़े कार्यक्रमों में धड़ल्ले से बोलते मगर अपनी खुद की जिन्दगी में उनके अलग कायदे, अलग ही नियम कानून थे। यानि “औरों को नसीहत खुद मियां फजीहत” वाला सिद्धांत था उनका।

तीनों बच्चियाँ तकरीबन दो-दो बरस के अंतर से पैदा हुई होंगी। मास्साब के मन में बेटे की बड़ी लालसा थी और ये इच्छा इतनी प्रबल थी कि छह बरस में एक के बाद एक तीनों लड़कियों ने जन्म ले लिया। चौथी बार बच्चा बीवी के गर्भ में ही मर गया और दाई ने बताया कि लड़का था, तब तो कुरैशी साहब का दिमाग ही घूम गया। जब पांचवी बार बीवी उम्मीद से हुईं तो क़ुरैशी साहब ने उनकी देखभाल में कोई कसर न छोड़ी। निकाह के बाद पहली बार बीवी को तरह तरह के मेवे, मिठाई ,फल-फूल और दूध मलाई नसीब हुए। वे उनका बड़ा ख़याल रखते जिससे जच्चा-बच्चा स्वस्थ रहें।

पूरे नौ महीने वे हर जुमे याने शुक्रवार को पास की दरगाह पर चादर चढ़ाने जाते। पाँचों वक्त की नमाज़ पढ़ते और जाने कहां-कहां मन्नत के धागे बांध आये थे।

खैर अल्लाह ने उनकी सुन ली और घर में अनवार का आगमन हुआ। कुरैशी साहब बेहद खुश थे और बेटे की वजह से बीवी का सम्मान बढ़ गया था सो वो भी खुश थीं। घर का माहौल अच्छा था, खाने को मिठाइयाँ थीं इसलिए बच्चियाँ भी खुश थीं।

अम्मी को घर के काम काज से फुर्सत मिलती नहीं थी इसलिए अनवार की परवरिश का जिम्मा बहनों के सिर था। ये अलग बात है कि उसको पालने में वे अपना बचपन भूल चुकी थीं। अनवार के खिलौने, लड़कियों के खिलौने थे, अनवार की हंसी, लड़कियों की खुशी थी। अपना बचपन वो भाई के बचपन पर न्यौछावर कर चुकीं थीं और ये कुर्बानी उनके स्वभाव में थी क्यूंकि पीढि़यों से लड़कियों के भीतर कूट कूट कर यही नसीहत तो भरी जा रही है। ये वो आँखें थीं जिन्हें दो रोटियां खाकर नींद तो नसीब हो जाती थी मगर ख्वाबों की इजाज़त नहीं थी।

बच्चियों को उन्होंने कभी स्कूल नहीं भेजा। इसकी दो वजहें थीं…एक तो हाथ तंग और दूसरे तंग मानसिकता। स्कूल में बेशक वे स्त्री शिक्षा और उनकी आज़ादी से जुड़े कार्यक्रमों में धड़ल्ले से बोलते मगर अपनी खुद की जिन्दगी में उनके अलग कायदे, अलग ही नियम कानून थे।

हाँ, एक बात ज़रूर लड़कियों के हक़ में थी कि भले वे स्कूल न जाती हों मगर कुरआन शरीफ़ की तालीम उन्हें बाकायदा दी जा रही थी। हर शाम मौलाना साहब आते और लड़कियों को कुरआन की आयतें पढ़ाते। बड़ी दोनों लड़कियां तो सिर्फ रस्म अदायगी के लिए पढ़ती थीं मगर आलिया एक एक शब्द गौर से पढ़ती, उनके अर्थ समझती। इसीलिए वो मौलाना साहब को बहुत प्रिय भी थी। वो पढ़ते पढ़ते लिखना भी सीखने लगी थी।

उसकी लगन देख कर एक बार क़ुरैशी साहब की बीवी ने उनसे गुज़ारिश भी की थी कि- बच्चियों को क्यूँ न हम पास के गर्ल्स स्कूल में पढ़ने भेज दें। ख़ासतौर से आलिया का तो बहुत ज्यादा रुझान है पढ़ने लिखने में। मौलाना साहब भी कह रहे थे– “बड़ी होशियार बच्ची है। ”

क्या फ़िज़ूल की बातें करती हो बीवी, क़ुरैशी साहब भड़क गए। लड़कियां परदे में रहें वही अच्छा है। पढ़ना लिखना उनके हक़ में नहीं।

बीवी ने फिर कोशिश की…“बड़े शहरों में तो गरीब से गरीब भी अपनी बच्चियों को पढ़ा रहे हैं फिर वो चाहे किसी भी धर्म के हों। ज़माना बदल गया है अब.”।

हाँ ज़माना बदल गया है…तभी तो क़ुरैशी साहब भुनभुनाये।

कितने हादसे होने लगे हैं दिनदहाड़े, औरतों की आज़ादी की आड़ में कितने अपराध जन्में हैं तुम्हें क्या पता, अखबार भरे होते हैं रोज़ ऐसी खौफ़नाक ख़बरों से। तुम पढ़ो तो जानो!

कैसे पढूं? पढ़ी लिखी होती तब ना जानती समझती दुनियादारी की बातें …बीवी ने आह भरते हुए कहा। हाँ-हाँ ठीक है अब बहस न बढ़ा। तीन-तीन लड़कियों की मां हो, तुझे तो शुक्र अदा करना चाहिए कि लड़कियां देहरी के भीतर हैं वरना तेरा ही चैन हराम रहता।

मंडली की सदस्या अनुलता राज नायर की कहानी दीदी की ईदी।

अब्बा की दलीलें और अम्मी के पस्त हौसले देख लड़कियां भी भीतर जाकर दुबक गयीं और साथ ही कहीं दुबक कर सो गए उनके ख्वाब भी, उनकी उम्मीदें भी। बीवी उदास हो गयी थी, सारी जिन्दगी में पहली बार उन्हें खुद के अनपढ़ होने का दुःख हुआ।

तीनों बहनें अपनी माँ की छाया में बड़ी हो रही थीं। उन्हें शिक्षा की कीमत भले न समझाई गयी मगर पैसे की कीमत वे खूब समझती थीं। माँ उन्हें घर के काम काज के अलावा कशीदाकारी, क्रोशिये का काम, सिलाई वगैरह भी सिखाती रहीं।

तीनों बहनों में आलिया अक्सर इन कामों से जी चुराती और भीतर कमरे में जाकर कोई किताब पढ़ती रहती। कुछ नहीं तो अखबार के पन्नों से ही अक्षरों को समझती और उनकी नक़ल कॉपी में उतारती। वो खुद ही अपनी गुरु बन गयी थी। ये काम वो अपने अब्बा से छुप कर ही करती थी, हाँ, माँ और बहनें जरूर देख कर भी अनदेखा कर देती थीं।

आलिया की उम्र की सभी लड़कियों ने स्कूल जाना शुरू कर दिया था। सिर्फ वो लड़कियां ही घर बैठी थीं जिन्हें पढ़ने का मन ही नहीं था। एक आलिया ही अपवाद थी, जो पढ़ना चाह कर भी घर बैठी थी।

अनवार अब छह सात बरस का हो गया था और उसको स्कूल भेजने की तैयारियां घर में हो रही थी। हालाँकि स्कूल जाने की उम्र तो चार साल होती है मगर अब्बा के हिसाब से अनवार छोटे थे और मासूम भी इसलिए उनकी पढ़ाई शुरू करने के लिए सात बरस की उम्र तय की गयी।

खैर पास के प्राइवेट स्कूल में उसका दाखि़ला करवाया गया। उसके लिए नया बस्ता, कम्पास बॉक्स, लंच बॉक्स, कपड़े और किताबें लाई गयीं।

तीनों बहनों में आलिया अक्सर इन कामों से जी चुराती और भीतर कमरे में जाकर कोई किताब पढ़ती रहती। कुछ नहीं तो अखबार के पन्नों से ही अक्षरों को समझती और उनकी नक़ल कॉपी में उतारती। वो खुद ही अपनी गुरु बन गयी थी।

अनवार मचल रहा था कि उसे स्कूल नहीं जाना और उधर आलिया का मन मचल रहा था स्कूल जाने को। आलिया अब नौ बरस की थी और वो जानती थी कि उसे स्कूल नहीं भेजा जायगा, कभी नहीं। जबकि कायदे से उसे अब दूसरी या तीसरी कक्षा में होना चाहिए था। उसकी बड़ी बहनों ने तो पिता के इस पक्षपात को स्वीकार लिया था मगर आलिया का मन मानता ही नहीं था।

भाई का रोना सुनकर उसने हुलस कर अपने पिता से कहा, “अब्बा अनवार न जाना चाहे तो मत जाने दो, उसकी जगह मुझे भेज दो न स्कूल। मैं बड़ी होकर टीचर बनूंगी फिर पढ़ा दूंगी अनवार को, और हाँ अम्मी को और नाज़ और नगमा बाजी को भी।”

वो उनका कुरता पकड़ कर लगभग लटक ही गयी। पिता ने झिड़क कर उसे अलग किया.“फ़ालतू बकवास न कर, जाओ जाकर मना कर ले आओ अपने भाई को…वैसे भी वो तुमसे हिला हुआ है सबसे ज्यादा, तुम्हारी बात मान जाएगा। हाँ, उसे टॉफियों और आइसक्रीम का लालच भी दे देना, तब तो रोना ज़रूर बंद हो जाएगा.”

पिता ने नेताओं की तरह मुस्कुराते हुए कहा, बुझा सा मन लेकर आलिया चल दी भाई को मनाने।

मुझे नहीं जाना स्कूल, आलिया को देख अनवार और भी मचल गया।

इत्ता शौक है तो तुम खुद क्यूँ नहीं चली जातीं, उसने चिढ़ते हुआ आलिया से कहा।

अब्बा के लाडले तो तुम हो छोटे मियाँ, सारी मेहरबानियाँ तुम पर ही तो हैं-आलिया ने हँसते हुए कहा और भाई को यूनिफार्म पहनाने लगी।

मासूम अनवार अपनी बहन की हँसी में छुपी उदासी कहाँ पढ़ पाया।

ऐसे ही रोज़ न जाने कितनी मासूम बच्चियों के दिल टूटते हैं और उनकी आवाज़ें वहीं घरों के भीतर, पर्दों के पीछे दब के रह जाती है। ज़माना बदल गया है, देश तरक्की कर रहा है मगर क़ुरैशी साहब की तरह कुछ लोग अब भी वही के वहीं हैं, उन्हीं मान्यताओं से जकड़े, वही लकीर के फ़कीर।

अनवार अब रोज़ स्कूल जाने लगा था। अब्बा बड़ी शान से उसे अपनी खटारा स्कूटर पर बैठा कर स्कूल छोड़ने जाते, और बुझे मन से लौटते। मानों किसी सैनिक को सरहद पर छोड़ आये हों दुश्मनों की सेना के आगे। खैर ये उनका स्नेह था अपने इकलौते लाडले बेटे के प्रति और इस पर किसी को ऐतराज़ न था।

हाँ, उसे स्कूल से वापस लाने का काम बहनों का था और ये ज़िम्मेदारी आलिया ने बाखुशी उठा ली थी। वो रोज़ घंटा भर पहले ही स्कूल पहुंच जाती और अनवार की कक्षा के बाहर कान लगा कर बैठ जाती। बड़े ध्यान से वो टीचर की हर बात सुनती, कई बार सवाल पूछे जाने पर वो खुद भी हाथ उठा देती फिर खुद ही शरमा जाती। वाकई बड़ी तेज़ बुद्धि थी उसकी या पढ़ने की चाह ने उसको इतना अक्लमंद बना दिया था।

घर पहुंचते ही वो भाई का बस्ता खोल कर बैठ जाती और जो दिन भर जो कुछ भी टीचर ने पढ़ाया होता उसको अपनी कॉपी में नोट करती। कुछ समझ नहीं आता तो अनवार से पूछ लेती। अनवार को भी अपनी बहन को समझाने में मज़ा आता। अनवार तुम स्कूल में रोज़ ‘जन गण मन ’ गाते हो ? आलिया उत्सुकता से पूछती !

हाँ रोज़, ये हमारा नेशनल एंथम है! इसे रविन्द्रनाथ टैगोर जी ने लिखा है, अनवार ने अपनी बहन का ज्ञान बढ़ाते हुए कहा।

आलिया उसकी कॉपी के पन्ने पलटती रहती, जो मन को भाता वो पढ़ती।

“खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी ” कितनी अच्छी कविता है न भाई? आलिया अपने भाई से पूछने लगी!

“हाँ बहुत अच्छी है, औरजानते हैं अब्बा – वो कविता एक लड़की ने लिखी है –‘सुभद्रा कुमारी चौहान ने! – अनवार ने मासूमियत से अपने अब्बा से कहा।

“देखना ये भी लिखेगी बड़ी होकर !” अनवार हँसते हुए आलिया की चोटी खींच के भाग गया।

अब्बा अनमने होकर वहां से उठकर चले गए। कभी कभार जब मन न होता तो आलिया ही उसका होमवर्क भी कर देती। याने इस तरह अनवार के साथ साथ आलिया की पढ़ाई भी चुपके चुपके चलने लगी। रोज़ रोज़ स्कूल जाने से स्कूल की कई टीचर्स आलिया को पहचानने लगी थीं। इस तरह 2-3 बरस में आलिया पूरी तरह साक्षर ही नहीं बल्कि बहुत समझदार हो चुकी थी।

वो अखबार का लगभग हर पन्ना पढ़ डालती जिससे उसका सामान्य ज्ञान भी बहुत अच्छा हो गया था। वो अनवार को निबंध, कविताएं और छोटी-छोटी कहानियां लिख कर देतीं जिनके लिए उसको कई पुरस्कार मिले। पिता को बड़ा गर्व था अपने बेटे पर और वे सारे पुरस्कार बड़े करीने से ड्राइंग रूम में सजा कर रखते। आलिया को इस बात से कोई ऐतराज़ न था कि उसकी मेहनत का श्रेय उसके भाई को मिल रहा है। वो तो बस पढ़-लिख पा रही है इस बात से ही खुश थी। “आलिया, तुम मेरी क्लास में होतीं तो तुम ही फर्स्ट आतीं हमेशा!” अनवार भी अपनी बहन का हुनर समझने लगा था हाँ! अगर अब्बा मुझे स्कूल भेजते तो मैं तुमसे दो क्लास आगे ही होती, आलिया ने बुझी आवाज़ में कहा।

अनवार अब पाँचवी में आ चुका था और उतने ही स्तर का ज्ञान आलिया को भी था, बल्कि ज्यादा ही। इस बीच बच्चियों और उनकी अम्मी ने क़ुरैशी साहब से कई बार आलिया की कॉपी दिखाते हुए उसे स्कूल में दाखिल करने की सिफ़ारिश की मगर वे टस से मस न हुए, वही घिसे पिटे तर्क, वही पुराने बहाने!

अब तो अनवार भी अपनी बहन की सिफ़ारिश करने लगा था।

“अब्बा-अब्बा मेरे स्कूल की सभी टीचर्स कहती हैं कि हमें आलिया को भी स्कूल भेजना चाहिए, ये बड़ा नाम रोशन करेगी आपका।”

वो 10-11 बरस का बच्चा अपनी टीचर्स की रटी रटाई बातें दोहराता मगर कोई फायदा न होता।

“अपनी टीचर्स से कहना मैं काफी हूं अपने बाप का नाम रोशन करने के लिए…लड़कियां तो यूँ भी पराई अमानत हैं, कल को उनका तो नाम और खानदान भी दूसरा हो जाने वाला है।”

अब्बा की बातें अनवार के पल्ले तो नहीं पड़ी मगर वो समझ गया कि उसकी बहन के नसीब में स्कूल जाना नहीं लिखा है।

बढ़ते खर्चे देख कर अम्मी और बहनें आस-पड़ोस की औरतों के कपड़े सिलने का काम करने लगीं थीं। रुमाल पर कढ़ाई, दुपट्टों के किनारों पर क्रोशिया की लेस लगाने जैसे काम वे बड़ी खूबसूरती और सफाई से करती थीं। इस तरह थोड़ा बहुत पैसा भी घर में आ जाता था। कुछ तो घर खर्च में चला जाता और कुछ अम्मी अपने संदूक की तली में दबा कर रख देतीं । कहाँ छुपा-छुपा कर रखती हो अम्मी पैसे? कभी ज़रुरत पड़ी तो खोजने से तुम्हें ही नहीं मिलेंगे।

लड़कियाँ उनका मज़ाक उड़ाती।

मगर हर औरत की तरह शायद वो भी कुछ पैसे छुपा कर ख़ुद को सुरक्षित महसूस करती थीं।

उस रोज़ अनवार के स्कूल में एनुअल फंक्शन था। अनवार ने नाटक में हिस्सा लिया था। उसको तैयार करके अब्बा स्कूल छोड़ आए थे, साथ ही आलिया को भी भेज दिया गया कि उसके सामान और ड्रेस की सम्हाल वो करेगी। अब्बा को उस रोज़ कहीं काम था सो वो चले गए।

आलिया स्टेज के पीछे तैयारियों में सबकी मदद करने लगी। टीचर्स के लिए उसका चेहरा जाना पहचाना था तो किसी ने रोक टोक नहीं की। हर एक परफॉरमेंस के बाद पर्दा गिरता और दूसरे की तैयारी होती।

तभी बीच में एक बच्चा जिसे कोई गीत गाना था उसकी तबियत ख़राब हो गयी। दर्शकों में हलचल होने लगी ।

स्टेज सूना पड़ा देख अनवार की टीचर ने आलिया से कह दिया– “ जाओ तुम परदे के आगे माइक लगा है उस पर कोई कविता सुना दो।

आलिया के भीतर आत्मविश्वास तो था ही। फट से उसने माइक सम्हाला और अपनी प्यारी सी आवाज़ में एक कविता पढ़ने लगी –

छोटे से हैं ख्वाब हमारे, बड़ी बड़ी उम्मीदें

बढ़ते खर्चे देख कर अम्मी और बहनें आस-पड़ोस की औरतों के कपड़े सिलने का काम करने लगीं थीं। रुमाल पर कढ़ाई, दुपट्टों के किनारों पर क्रोशिया की लेस लगाने जैसे काम वे बड़ी खूबसूरती और सफाई से करती थीं। इस तरह थोड़ा बहुत पैसा भी घर में आ जाता था।

जेब में हों गर पैसे थोड़े, तो हम चाँद खरीदें,

छोटे से हैं ख्वाब हमारे……

आलिया की कविता पूरी होते ही उस छोटे से स्कूल का हाल तालियों से गूँज गया। सभी शोर करने लगे की और सुनाओ, और सुनाओ।

आलिया ने और भी कविताएं सुना कर सबका मन जीत लिया। नन्हा अनवार भी अपनी बहन के लिए बहुत खुश था।

उम्र में छोटा था मगर समझता ज़रूर था कि आलिया का कितना मन है स्कूल में पढ़ने का और कितनी काबिलियत है उसमें ये भी जानता था मगर वो आखिर कर भी क्या सकता था।

आलिया वापस स्टेज के पीछे आ गई तब तक अगले कार्यक्रम की तैयारी हो गयी थी।

टीचर भी बहुत खुश थीं आलिया से। उन्होंने उसे गले लगा कर कहा, “तुम्हें ज़रूर आगे पढ़ना चाहिए आलिया, खूब आगे बढ़ना चाहिए।”

क़ुरैशी मास्साब के ख़यालों से अनजान टीचर ने ज़िद्द करते हुए कहा –“आलिया तुम आया करो न स्कूल, तुम्हारे जैसी प्रतिभा घर में पड़ी पड़ी ज़ंग खा जाएगी। स्कूल आओगी तो तुम्हारा व्यक्तिव निखर जाएगा और तुम्हारा भविष्य भी। ”

अनवार ने रुंधे गले से बहन का हाथ पकड़ लिया–मैं अब्बा से खूब जिद करूंगा कि तुम्हें पढ़ाएं, काश मैं तुमसे बड़ा होता तो खुद कमाता और तुम्हें ज़रूर पढ़ाता। आलिया हँस पड़ी, छोटे हो तो क्या। बड़े हो जाओगे तब कमाना, फिर पढ़ा देना, पढ़ने की कोई उम्र थोड़ी न होती है।

अनवार अपनी बहन के हँसते चेहरे पर उदास आँखें देख सकता था, वो भी उदास हो गया, उसको बहुत दुख हुआ अपने गरीब होने पर। अपने छोटा होने पर और सबसे ज्यादा अपने पिता के पुराने दकियानूसी ख्यालों पर उसको दुःख हुआ।

अचानक अनवार बड़ा हो गया था, अपनी उम्र से बहुत बड़ा, अपनी बड़ी बहन से भी बड़ा। उस रोज़ जब अब्बा उनको स्कूल लेने आये तो उसकी टीचर ने उन्हें आलिया के बारे में बताया।

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“क़ुरैशी साहब आपकी बच्ची बहुत होनहार है और बेहद मेहनती भी। बच्चों में पढ़ने और सीखने की ऐसी लगन आजकल कहाँ देखने मिलती है| आप उसका दाखिला हमारे स्कूल में करवा दें जिससे वो नियमित विद्यार्थी की तरह पढ़ाई कर सके।” “देखिएगा आपको अपनी इस बेटी पर फ़ख्र होगा एक दिन। मगर उसके लिए आपको आगे आना होगा। टीचर ने जोर देते हुए कहा।

अनवार और आलिया उम्मीद भरी नज़रों से अपने अब्बा का मुँह ताक रहे थे कि जाने क्या जवाब होगा उनका, कम से कम टीचर से तो उल्टी सीधी बात वे कर नहीं सकते।

उन्होंने सिर्फ इतना कहा-जी, आपका बेहद शुक्रिया और चुप हो गए। दोनों बच्चे हैरानी से अपने अब्बा का चेहरा देखते रहे।

तभी टीचर ने अपनी मेज़ से एक फॉर्म उठाया और उन्हें पकड़ा दिया।

ये लीजिए ,एडमिशन फॉर्म है, हम सीधे पाँचवी में दाखिल कर रहे हैं आलिया को। आप इसे भर कर, अपने दस्तखत के साथ आलिया के हाथों भिजवा दीजिए बाकी औपचारिकताएं हम पूरी कर लेंगे।

अब्बा ने चुपचाप फॉर्म लिया। टीचर को खुदा हाफिज़ कहा और बाहर निकल आये।

रास्ते भर किसी ने कोई बात नहीं की।

घर पहुँचते ही अब्बा ने फरमान ज़ारी किया कि कल से अनवार को स्कूल लाने ले जाने का जिम्मा उनका।

कड़कती आवाज़ में वे बोले- हम न जा सके तो फिर बड़ी बहनों में से कोई जाएगा और आलिया को घर के काम सिखाया जाए, अब उसकी नादानियों की उम्र नहीं रही।

अनवार बोल पड़ा…”अब्बा कैसी नादानियाँ? आलिया को तो सब कितना समझदार कहते हैं, आप प्लीज़ फॉर्म पर दस्तखत ज़रूर करें।”

“आप ज्यादा सयाने न बनें अनवार मियाँ”, अब्बा ने ज़रा सख्त लहजे में कहा तो नन्हा अनवार चुप रह गया।

रात भर अनवार को नींद नहीं आयी और वो सुनता रहा आलिया की दबी-दबी सिसकियाँ।

दो दिन बाद ईद थी, घर में खुशियों का माहौल था। पूरे साल में यही तो एक मौका होता था जब उन्हें मनचाहे तोहफे नसीब होते थे, “ईदी” के रूप में।

पिछले दिन की तल्खियाँ भूल कर सब खुश थे, मगन थे इस सोच में कि अपने लिए ईदी क्या माँगी जाए।

बड़ी दोनों बहनों ने सलवार कमीज़ के कपड़े और दज़र्न भर चूड़ियां लीं। माँ के लिए भी ज़रुरत के दुपट्टे लाए गए। आलिया ने किताबों की छोटी सी फ़ेहरिस्त दी थी जिसके लिए अब्बा इनकार न कर सके। आखिर वो उसकी ईदी, उसका हक़ था।

अनवार से पूछा गया कि उन्हें क्या चाहिए तो उसने टाल दिया।

अभी मैं सोच रहा हूँ अब्बा। क्या मैं कोई बड़ी चीज़ मांग सकता हूँ ? उसने मासूमियत से कहा।

अब्बा ने निहाल होकर कहा, हाँ बेशक ! आखिर आप हमारे खानदान के चिराग हैं। आपसे ही तो रोशन है हमारा नाम, हमारा घर।

ठीक है फिर ईद की सुबह मैं आपको बताऊंगा।

क्यूँ रे क्या मांगेगा अपने अब्बा से ? माँ और बहनें उत्सुक थीं।

“कोई बहुत बड़ी चीज़ ” अनवार ने सस्पेंस को बढ़ाया! क्या कम्प्यूटर मांगेगा? या मोबाइल? लड़कियों ने छेड़ा। सबके सब हँसने लगे, क्यूंकि ये सब उनकी हैसियत से परे था, वे जानती थीं।

ईद की सुबह सबने नए कपड़े पहने।

अब्बा अनवार को लेकर ईदगाह चले गए, नमाज़ पढ़ने।

अम्मी और लड़कियों ने घर में नमाज़ अदा की।

ईदगाह में नमाज़ पढ़ने के बाद अब्बा ने अनवार को गले लगा लिया।

अनवार ने हाथ बढ़ाया, अब्बा मेरी ईदी ?

हाँ क्यूँ नहीं, उन्होंने अपने कुरते में हाथ डाला, कई दिनों ने पैसे बचा रखे थे इस दिन के लिए।

अनवार ने उनका हाथ पकड़ लिया।

अब्बा आप चाहते हैं न कि हम आपका नाम रोशन करें? हाँ बेटा, हर बाप यही चाहता है।

फिर आप “अपना नाम” एक दफ़ा मेरे लिए यहाँ लिख दें, वही मेरी “ईदी” होगी ! देखिएगा एक दिन आपको गर्व होगा अपने नाम पर, अपने बच्चों पर।

कहते हुए उसने आलिया का एडमिशन फॉर्म निकाला और दस्तख़त की जगह अपनी नन्हीं उँगलियाँ रख दीं।

अब्बा उसका चेहरा देखते रह गए, इतना छोटा बच्चा और ऐसी समझ। जिंदगी में पहली दफ़ा उन्हें शर्मिंदगी हुई खुद पर, जो काम उन्हें करना चाहिए था,वो उस बच्चे ने किया। जैसी सुलझी सोच उनकी होनी चाहिए वो उनके छोटे से बेटे की थी।

उन्हें दिल से अफ़सोस था अपकी उलझी सोच का, उन्हें गर्व हुआ अपने बेटे पर, अपनी बेटियों पर भी, जिन्होंने उनके मन की गिरहों को खोल दिया था। उनकी पलकें भीग गयीं। उन्होंने पेन निकाला और चुपचाप दस्तखत कर दिए।

अनवार उनके गले में झूल गया।

ईद मुबारक अब्बा, ईद मुबारक।।

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