वो कहानियां तो आज तक आप किस्सागो नीलेश मिसरा की आवाज़ में रेडियो और ऐप पर सुनते थे अब गांव कनेक्शन में पढ़ भी सकेंगे। गांव कनेक्शन ने अपने पाठकों के लिए #कहानीकापन्ना आप हफ्ते में दो दिन कहानियां पढ़ सकेंगे। कहानी का पन्ना में इस बार पढ़िए नीलेश मिसरा की मंडली की सदस्या और उपान्यासकार अनुलता राज नायर की कहानी ‘यारियां’
मैं बरसों बाद अपने शहर लौट रहा था, स्टेशन आने में कुछ ही समय बाक़ी था। पेड़ पौधे पहाड़ सब तेज़ी से पीछे छूट रहे थे और मंज़िल क़रीब आ रही थी। मंज़िल यानी मेरा घर, मेरे अपने और मेरी मोहब्बत- आफ़िया
एक झटका खाकर ट्रेन प्लेटफार्म पर रुक गयी, मैं अपना सामान लेकर उतर गया….स्टेशन पर अजीब सा सन्नाटा था……भीड़भाड़ वाली जगह ऐसी चुप्पी देख कर मैं हैरान था।
कुछ सोचता समझता उसके पहले सामने से अरमान चचा आते हुए दिखाई दिए…. बरसों से बाबूजी की गाड़ी वही चलाते आये थे…“ये क्या माजरा है चच्चा?”-मैंने उन्हें सलाम करते-करते सवाल किया…
मैं ख़ामोशी से खिड़की के कांच से सर टिका कर बाहर देखने लगा…. शहर बदला-बदला सा लग रहा था…. स्टेशन की तरह रास्ते भी सूने पड़े थे…. यहां-वहां पुलिस की गाड़ियों के और कोई गाड़ियां भी नज़र नहीं आ रही थीं।
चच्चा ने मेरे हाथ से सूटकेस ले लिया और तेज़ी से चलने लगे। अपने सवाल का जवाब न पाकर मुझे बेचैनी हुई और मैं अनमना सा उनके पीछे चलने लगा…
बाहर वही पुरानी सफ़ेद एम्बेसडर कार खड़ी थी, बाबूजी की कार… मैं मुस्कुरा दिया… ये हमारे घर की पहली कार थी और हम सब गर्व से फूले नहीं समाये थे जब बाबूजी ने पहली बार इसको लाकर घर के सामने पार्क किया था… शायद वो मोहल्ले की भी पहली कार थी।
तब मैं पंद्रह सोलह साल का रहा होगा और आफ़िया होगी कोई तेरह-चौदह बरस की जब घर के सब लोग कार को अच्छी तरह देख-परख कर अन्दर चले गए थे तब मैं और आफ़िया चुपके से सामने की सीट्स पर जाकर बैठ गए थे…. मोहब्बत तो नहीं मगर दिलों में कुछ नाज़ुक एहसास ज़रूर थे।
मुझे ख्यालों में खोया देख चच्चा ने कार का दरवाज़ा खोल कर मुझे भीतर धकेल सा दिया और जल्दी से ड्राइविंग सीट पर आकर बैठ गए और कार स्टार्ट कर दी…
यारियां स्टोरी नीलेश मिसरा की आवाज़ में नीचे सुनिए
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मैं ख़ामोशी से खिड़की के कांच से सर टिका कर बाहर देखने लगा…. शहर बदला-बदला सा लग रहा था…. स्टेशन की तरह रास्ते भी सूने पड़े थे…. यहां-वहां पुलिस की गाड़ियों के और कोई गाड़ियां भी नज़र नहीं आ रही थीं।
मेरे सब्र का बांध टूटने लगा….‘यहाँ कोई कर्फ्यू लगा है क्या अरमान चच्चा? मैंने हैरानी से पूछा…’ “ हाँ बेटा,कर्फ्यू लगा है… बड़े ज़ोरों का दंगा भड़क गया था उसके बाद हालात इतने बिगड़े कि पूरे शहर में धारा 144 लगा दी गयी है…” अरमान चच्चा की आवाज़ में फ़िक्र साफ़ झलक रही थी।
“कर्फ्यू?” मैं घबरा गया….” घर पर सब ठीक तो हैं न चचा?”
“हाँ सब ठीक हैं”… कह कर चचा फिर चुप हो गए….
आफ़िया मेरे बचपन की मोहब्बत थी, यानी जब से दिमाग ने मोहब्बत के मायने जाने, मैंने दिल के सांचे में हमेशा आफ़िया को ही ढाला और वो एक दम फिट लगी मुझे…. मैं नहीं जानता कि आफ़िया ने मुझसे मोहब्बत करना कब शुरू किया, मगर अब करती है इसका मुझे पूरा यकीन था…
न जाने क्यूं मुझे उनकी बात पर यकीन नहीं हुआ….मेरा दिल घर पहुंचने को बेचैन हो उठा। मैं दुआ करने लगा कि काश सब पहले जैसा ही हो-मेरा घर, मेरा परिवार और मेरी आफ़िया…
आफ़िया मेरे बचपन की मोहब्बत थी, यानी जब से दिमाग ने मोहब्बत के मायने जाने, मैंने दिल के सांचे में हमेशा आफ़िया को ही ढाला और वो एक दम फिट लगी मुझे…. मैं नहीं जानता कि आफ़िया ने मुझसे मोहब्बत करना कब शुरू किया, मगर अब करती है इसका मुझे पूरा यकीन था…
पहले हम इशारों-इशारों में अपने जज़्बातों को एक दूसरे तक पहुंचाते थे फिर एक रोज़ हिम्मत करके मैंने उससे अपनी मोहब्बत का इज़हार लफ़्ज़ों में कर ही दिया|
वो दिसम्बर की सर्दियों वाली शाम थी, जब फूलों की क्यारियां अपने शबाब पर थीं और आफ़िया की खूबसूरती भी…
मैंने उसके झीने दुपट्टे से उसके गालों को गुलाबी होते हुए देखा था…. उस रोज़ सब कुछ कह डाला था मैंने…….अपनी मोहब्बत के बारे में, अपने ख़्वाबों के बारे में, उसकी और अपनी ज़िन्दगी को लेकर अपने इरादों के बारे में… और वो पलकें झुकाये चुपचाप सुनती रही थी…..
ऐसी ही थी आफ़िया, एक खामोश, खोयी खोयी सी लड़की।
उसका घर हमारे घर के ठीक पड़ोस में था… उसके अब्बा यानी जावेद चचा बाबूजी के सबसे गहरे दोस्त थे… उसके पहले उनके अब्बा और मेरे दादा दोस्त थे। हमारे घर और धर्म ज़रूर अलग थे मगर हम रहते एक परिवार की तरह थे।
बाबूजी सरकारी नौकरी पर थे और जावेद चचा एक छोटा सा स्कूल चलाते थे। काम से फ़ारिग होकर शतरंज की बाज़ियां ज़माना उन दोनों का पसंदीदा टाइमपास था……इन दो घरों के बीच दीवारें ज़रूर थीं पर ऐसा कुछ नहीं था जो दोनों परिवार के बीच छिपा हुआ हो… बाबूजी और जावेद चच्चा जितने अच्छे दोस्त थे उतना ही क़रीब थीं अम्मा और चच्ची…. और मैं, आफ़िया और मेरी बहन छुटकी भी।
मैं आफ़िया के ख्यालों में गुम रहा और कार घर तक पहुंच गयी…
भीतर मां-बाबूजी और छुटकी से मिलने के बाद मेरी नज़रें पूरे घर में दौड़ने लगीं…. कहां है आफ़िया? वो जानती थी कि आज मैं आने वाला हूं फिर वो यहां क्यूं नहीं आयी?
घर में पसरा सूनापन मेरे दिल के भीतर बैठता जा रहा था…..
मुझे याद आया कि पांच बरस पहले जब मैं आगे की पढ़ाई के लिए यूएस जा रहा था तो ऐसी ही बेचैनियां थीं हमारे दिलों में….. एक घबराहट, एक अनमनापन था जो बार-बार मुझे जाने से रोक रहा था…..मोहब्बत में यूं जुदा हो जाना मुझे बहुत अखर रहा था।
मैं बार-बार उसको कसमें खिलाता रहा कि वो मेरा इंतज़ार करेगी…न जाने कितने वादे हमने एक दूसरे से किए थे कि हम कभी नहीं बदलेंगे…..
सारी दोपहर हम घर के पिछवाड़े लगे पीपल के तने से पीठ टिकाये कभी कुछ कहते, कभी सुनते और कभी यूं ही ख़ामोश बैठे रहे थे…..
मैं सोचने लगा…….कि उसको अपनी कसमें और मेरे वादे याद होंगे भी या नहीं?
मैंने सन्नाटे में डूबे घर का कोना-कोना छान मारा…..मैं जानना चाहता था कि आफ़िया कहां है….मगर कैसे पूछूँ, किससे पूछूँ…. अपने दिल की बेचैनी ज़ाहिर भी तो नहीं कर सकता था…
तभी बाबूजी की आवाज़ आयी…..“प्रशांत”
मैं जाकर उनकी चारपाई के कोने पर बैठ गया, उन्होंने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख दिया……
मुझे पांच बरस बाद भी बाबूजी का ये स्पर्श एकदम जाना पहचाना लगा। बचपन से ही जब भी मैं परेशान होता वे यूं ही मेरे हाथों को अपने हाथ में लेकर बैठ जाते और मुझे लगता जैसे मेरी सारी परेशानियां सारी तकलीफें धीरे-धीरे कम होती जा रही हैं……जैसे मेरा दर्द बाबूजी सोख रहे हो।
मैंने आहिस्ता से सवाल किया…..“जावेद चचा कहां हैं बाबूजी?” जबकि मैं पूछना चाहता था कि कहां है मेरी आफ़िया?”
“मैं नहीं जानता वो कहां चले गए”……..बाबूजी ने हिचकते हुए जवाब दिया….
“जब शहर में दंगे भड़के तो हालात एकदम बेकाबू हो गए थे……हमने घर का दरवाज़ा कस के बंद कर लिया था….”
“बाहर से आता शोर सुनकर हम कांप रहे थे बेटा”…माँ बोलीं….
“और उसी शोर में जावेद दरवाज़ा खटखटाता रहा हमें पता ही नहीं चला….
अगर हम जानते कि बाहर जावेद और उसका परिवार है तो क्या यूं अनसुना करते उस आवाज़ को?”
मैं जानता था बाबूजी दंगाइयों से डर कर कभी भी जावेद चचा और उनके परिवार के लिए अपने घर के और अपने दिल के दरवाज़े बंद नहीं कर सकते थे…..कभी नहीं…..
बाबूजी हारी हुई आवाज़ में कह रहे थे –“जावेद ने मुझे ग़लत समझा प्रशांत……वो मुझसे नाराज़ है, बहुत ज़्यादा नाराज़….”
वे ऐसे बोल रहे थे जैसे उन्होंने कोई अपराध किया हो ।
“मैं उसे नहीं रोक पाया बेटा…..शायद वो रुकना ही नहीं चाहता था”…..कहते कहते बाबूजी ख़ामोश हो गए….
माँ बताने लगीं, “जब वो अपने घर में ताला डाल कर जा रहे थे तब हमने उन्हें बहुत समझाया…..मगर जैसे वो समझना ही नहीं चाहते थे……”
मैंने उनके हाथ पर अपना हाथ धर दिया…….अब शायद मेरी बारी थी कि मैं उनकी परेशानियां उनकी तकलीफ़ों को किसी भी तरह कम करूँ, पर कैसे ये मैं नहीं जानता था। शहर के माहौल से मैं ख़ुद परेशान हो उठा था…
बीते दिन कितने सुन्दर थे, हमारे भीतर बचपन को विदा करके अभी-अभी जवान हुए दिलों की मासूमियत थी और मैं पक्का मंजनू हुआ जा रहा था….
एकसाथ रोमांटिक उपन्यास पढ़ना, बात-बेबात में ठहाके लगाना, एक दूसरे को देख कर फ़िल्मी गाने गुनगुनाना, चच्ची के पकाए रेशमी कबाब और माँ के हाथ की कचौरियों को सबसे छिप कर एक ही थाली में खाना…. ऐसी न जाने कितनी यादें इस घर और आफ़िया से जुड़ी थीं….
मेरे दिल ने चुपके से एक दुआ पढ़ ली कि काश इन दो परिवारों और मेरे और आफ़िया के बीच का रिश्ता पहले जैसे हो जाए…..
मेरे घर पहुंचने के बाद एक पूरा दिन बीत चुका था…..
जावेद चचा सचमुच वापस नहीं लौटे थे…….आफ़िया की कोई ख़बर नहीं थी।
पड़ोस के घर में और मेरे दिल में सन्नाटा पसरा हुआ था…..उम्र भर एक परिवार की तरह रहने वाले दो घरों के बीच आस्थाओं की दीवार खड़ी हो ही गयी थी….. मैं नहीं जानता कि इस हादसे के बाद मेरा और आफ़िया का रिश्ता इश्क़ की तराज़ू पर तौला जाएगा या धर्म की? आज के पहले मेरे और आफ़िया के बीच ये बात कभी नहीं आयी कि उसका और मेरा खुदा अलग है….
और बाबूजी और जावेद चचा तो हर मायने में एक-दूसरे के करीब थे…कलफ़ लगे सफ़ेद, लखनवी कुर्ते-पायजामे में सजकर वे सुबह साथ-साथ घर से निकलते थे….चचा मस्जिद और बाबूजी मंदिर की ओर चले जाते।
पड़ोस के घर में और मेरे दिल में सन्नाटा पसरा हुआ था…..उम्र भर एक परिवार की तरह रहने वाले दो घरों के बीच आस्थाओं की दीवार खड़ी हो ही गयी थी….. मैं नहीं जानता कि इस हादसे के बाद मेरा और आफ़िया का रिश्ता इश्क़ की तराज़ू पर तौला जाएगा या धर्म की? आज के पहले मेरे और आफ़िया के बीच ये बात कभी नहीं आयी कि उसका और मेरा खुदा अलग है….
सारे त्यौहार हम साथ मनाते थे, ईदी पर मेरा और छुटकी का भी बराबर का हक़ होता था और होली में सबसे ज़्यादा रंगों से सराबोर मैं आफ़िया को ही करता……दोनों घरों का एक ही तो मज़हब था-मोहब्बत !!
बाबूजी और जावेद चचा की यारी की तो मोहल्ले भर में चर्चा होती…..वे राजनीति से लेकर सामाजिक और धार्मिक सभी मसलों पर धुआंधार बहस करते….कई बार होता कि उनके विचार टकरा जाते मगर दिलों में कभी दूरियाँ नहीं आयीं….
सच कितने अच्छे दिन थे वे……
बचपन में छुटकी और आफ़िया को साथ-साथ पढ़ाने का ज़िम्मा मेरे सर था…
मैं शुरू-शुरू में ये काम सिर्फ़ बड़ों का आदेश समझ कर करता था फिर जब दिल जवान हुआ तो जी करता कि मैं हर वक्त आफ़िया को पढ़ाता रहूँ….और शायद वो भी यही चाहती थी….वो मेरे और आफ़िया के इश्क़ के शुरुआती दिन थे…..
मैं पढ़ाते वक्त एक कड़क मास्टर बनने का ढोंग करता….आफ़िया ग़लती करती तो पहले उसे सख्ती से टोकता…सजाएं तय करता…फिर माफ़ करके उसके दिल में अपनी छोटी सी एक जगह बना लेता।
मुझे देखना है बीते सालों में वो जगह अब भी बाक़ी है या नहीं……..बाबूजी ने जो घर के दरवाज़े नहीं खोले तो क्या जावेद चचा और आफ़िया ने भी अपने दिल के दरवाज़े बंद कर लिए…..मेरे लिए भी?
मुझे याद है कि पढ़ाते वक्त मैं एक पतली सी छड़ी उठाता और आफ़िया डर कर अपनी हथेलियाँ आगे कर देती…..उसकी हथेलियों के ठीक बीच में एक काला तिल था….”सौभाग्य का तिल”…माँ कहती थी…
उस तिल पर नज़र पड़ते ही मैं अपनी छड़ी पीछे कर लेता और छुटकी की नज़र बचा कर उस तिल को अपनी उंगलियों से छू देता…..
मुझे देखना है कि सौभाग्य का वो तिल उसकी हथेलियों पर अब भी है कि नहीं…..
अपने शहर और परिवार के हालात देख कर मैं बुरी तरह घबरा गया था, दो परिवारों में आयी इस दूरी पर मेरी मोहब्बत दांव पर लग गयी थी। शहर में बहुत सख्त कर्फ्यू था, सब कुछ ठप्प पड़ा था…
मैं हर हाल में आफ़िया से मिलना चाहता था, उससे बात करना चाहता था…..मुझे बहुत कुछ कहना और सुनना था……
पिछले सालों में आफ़िया कभी-कभी STD बूथ से मुझे फोन लगा लिया करती थी…हाँ कुछ कहती नहीं थी बस चुप रहती और मैं भी कहाँ कुछ कह पाता…..बिना कुछ कहे हम अपनी चुप्पियों से दिल के हाल जान लिया करते थे…… फिर कुछ देर बाद अचानक उसकी आवाज़ आती…..”या अल्लाह! 200 रुपए हो गए”….और फोन कट जाता…इश्क़ की खामोशियां सुनने सुनाने के लिए शायद ये कीमत ज़्यादा नहीं थी…..
दो दिन बाद कर्फ्यू में ढील हुई तो मैं पुराने शहर की तंग गलियों में निकल पड़ा…..मेरा हंसता-मुस्कुराता शहर कैसा वीरान पड़ा था……मैं यहां-वहां भटकता हुआ वो चेहरा खोजता रहा जो बीते पांच बरसों में एक पल के लिए भी मेरे ज़हन से नहीं हटा था…..मैं खोजता रहा जावेद चचा का चेहरा, उनकी दो छोटी-छोटी आँखें जिनमें मैंने हमेशा अपने लिए प्यार देखा था…..और ढूंढता रहा चच्ची को जिनके दुपट्टे के किनारे बंधे नोट मैं खोल कर भाग जाया करता था……
शाम ढलने लगी मगर कुछ हासिल नहीं हुआ….. इस शहर की तरह मेरी भी धड़कनें भी सुस्त पड़ गयी और मैं घर लौट गया…. पड़ोस के घर के दरवाज़े पर अब भी ताला लटका था।
मेरा मन अपने आज से घबराकर बार-बार पीछे को चला जा रहा था…. पाँच बरस पहले बाबूजी ने मुझे पढ़ाई करने विलायत भेजा था। मुझे लेकर उनके मन में बड़े-बड़े सपने थे…. जावेद चचा का भी बड़ा मन था कि मैं पढ़ाई के लिए बाहर जाऊं।
बाबूजी पैसों की जुगाड़ में लगे थे तब जावेद चचा ने अपने फिक्स डिपोजिट्स लाकर बाबूजी के हाथ में धर दिए थे। बाबूजी की आँखें भर आई थीं……” मियाँ तुमसे नहीं ले सकता ये पैसे….आखिर आफ़िया की शादी के लिए भाभी ने बड़ी मेहनत से जोड़े हैं।”
“जब हमारे बीच कुछ भी मेरा और तुम्हारा नहीं तो फिर ये कागज़ के चंद टुकड़े मेरे कैसे हुए? और रही बात आफ़िया की शादी की, तो वो भी हो जाएगी”
चचा मेरी ओर देखकर मुस्कुराए थे….उस पल मुझे लगा था जैसे उन्होंने आफ़िया का हाथ मेरे हाथ में दे दिया हो….
न जाने कहां चला गया वो वक्त……वो हसीन पल कहाँ गुम हो गए?
कुछ दिनों में शहर यूं शांत हो गया जैसे उन दंगे फसादों के लिए ख़ुद ही शर्मिंदा हो…
मैं सारा दिन बारी-बारी शहर की और अपनी यादों की गलियों में भटकता रहता… आफ़िया यादों में तो हर जगह थी मगर शहर में उसका कोई पता नहीं चला…
मैं फिर खाली हाथ घर लौट आया था….बाबूजी ठंडी सांस भर कर बोले, “कितने अफ़सोस की बात है प्रशांत हम अपने घर में अपनों को ही पनाह नहीं दे पाये….
बात सचमुच बहुत अफ़सोस की थी……..आफ़िया कहीं नज़र नहीं आ रही थी….वो मुझे दूर जा चुकी थी….
ठीक ऐसे ही पांच साल पहले जिस दिन मुझे जाना था उस दिन भी आफ़िया कहीं नज़र नहीं आ रही थी, फिर शाम के धुंधलके में अचानक आकर उसने मेरी बाहों में एक तावीज़ बांध दिया था…..उसकी उंगलियों का हल्का सा छू जाना मुझे अब तक याद है….
मैंने धीरे मुस्कुराते हुए से पूछा था……क्या फूंक मार कर लाई हो इसमें?
उसने बड़ी संजीदगी से कहा था, “बस मुट्ठी भर दुआएं हैं….”
“दुआएं मेरे लौट आने की?” मैंने पूछा….
“तुम्हारी खैरियत की”…..उसने जवाब दिया था…
इतने साल विलायत में रहने के बाद मुझे आफ़िया की वो मुट्ठी भर दुआएं ही तो वापस खींच लाई थीं…..
मुझे अफ़सोस हुआ कि मैंने आफ़िया के बाजुओं में ताबीज़ क्यूं नहीं बांधा था….
अगले दिन सुबह मैं और बाबूजी बाज़ार से लौट रहे थे कि गली के मोड़ पर अचानक जावेद चचा मिल गए……आफ़िया भी साथ थी…..कुछ पल को जैसे सारी कायनात बर्फ हो गई थी….हम चारों वहीं खड़े रह गए थे….
मैं दुआ सलाम भूल कर चचा के गले लग गया….” आपको कितना खोजा चचा….न जाने कहां-कहां… क्यूं चले गए आप घर छोड़ कर…..मैं बड़बड़ाते हुए बोला….
बाबूजी ख़ामोश खड़े रहे…..
मुझे देख कर चचा भी जैसे भूल गए कि वे बाबूजी से नाराज़ हैं….उन्होंने मुझे अपने सीने में कस के भींच लिया….मैंने धीरे से उनके कान में फुसफुसा कर कहा…..बाबूजी ने तीन रोज़ से खाना नहीं खाया है….शतरंज की बाज़ी टेबल पर अब भी जमी है और माँ और छुटकी का आफ़िया के बिना दिल नहीं लग रहा…….घर लौट आइये ना जावेद चचा…….
चचा ने मुझे झटके से अलग कर दिया……मगर उनके कुछ कहने के पहले बाबूजी उनका हाथ पकड़ कर घर की तरफ ले जाने लगे…..
चचा ने बाबूजी को नज़र भर कर देखा और चल पड़े उनके साथ……थोड़ी सी देर की ख़ामोशी थी बस….फिर दोनों ऐसे बतियाने लगे मानों कुछ हुआ ही नहीं हो….
ज़रा सी ग़लतफ़हमी थी….ज़रा में दूर हो गयी……..पुरानी यारियों के अपने रंग-ढंग हुआ करते हैं….
मैं और आफ़िया भी चुपचाप उंगलियां थामे उनके पीछे चल पड़े………..हमारी यारी का ये अपना ढंग था…
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