वो कहानियां तो आज तक आप किस्सागो नीलेश मिसरा की आवाज़ में रेडियो और ऐप पर सुनते थे अब गांव कनेक्शन में पढ़ भी सकेंगे। #कहानीकापन्ना में इस बार पढ़िए नीलेश मिसरा की मंडली की सदस्या अनुलता राज नायर की लिखी कहानी ‘सूखी हुई पंखुड़ियां’
इश्क़ किस चिड़िया का नाम है ये तो सही वक्त आने पर सबको खुद-ब-खुद पता लग जाता है। बचपन के पार होते ही भीतर ही भीतर चुपके से कुछ रसायन सक्रिय होते हैं और मन में प्रेम हिलोर लेने लगता है और ये रोग तब आक्रमण करता है जब आप एकदम निहत्थे होते हैं। बस अनजाने ही दिल आ जाता है इस लाइलाज रोग की गिरफ्त में।
हल्का-हल्का सुरूर, मीठा-मीठा दर्द और एक अजब सी ख़ुमारी, ये हैं इस रोग के लक्षण!
इश्क़ के रोग की बारीकियों को समझाने वाला मैं कोई डॉक्टर नहीं बल्कि खुद एक मरीज़ हूं, मैं कब और कैसे इस रोग की चपेट में आया और इसने मेरी सुस्त रफ़्तार ज़िन्दगी में क्या-क्या गुल खिलाए उसका हर किस्सा मुझे मुंह ज़ुबानी याद है।
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लड़कपन का इश्क़ बड़ा विकट होता है। इसमें या तो लड़के हद से ज्यादा सुधर जाते हैं और किताबी कीड़ा बनकर लड़की की गुड बुक्स में शामिल रहना चाहते हैं या फिर वे बिलकुल निठल्ले हो जाते हैं जिन्हें खुली आँखों से सपने देखने के सिवा कुछ नहीं भाता।
तब मैं बारहवीं कक्षा में था और ये बरस हमारे कैरियर की सबसे ज़रूरी सीढ़ी था और इसलिए क्लास का हर लड़का पूरे ज़ोरों से पढ़ाई में लगा हुआ था। लड़कियों की तो बात ही और थी, वे तो आदतन पढ़ाकू और सिंसियर होती ही हैं फिर बोर्ड की परीक्षाओं का खौफ़ उन्हें लड़कों से कहीं ज्यादा था। यानी सब के सब पढ़ाई में डूबे थे।
टीचर्स भी हर बच्चे पर अलग से ध्यान दे रहे थे और खूब मेहनत कर रहे थे, आखिर स्कूल के रिजल्ट का सवाल था। सत्र की शुरुआत से ही सबको समझा दिया गया था कि ज़िन्दगी में कुछ बनना हो, कोई मकाम हासिल करना हो तो यही एक साल है, जी भर के मेहनत कर लो और सभी छात्र छात्राओं ने अपने मां बाप और टीचर्स की ये बात गांठ बाँध ली थी, मगर मैं एक अपवाद साबित हुआ था। मैंने अपने भविष्य को दांव पर लगा कर इश्क़ का जूनून पाल लिया था। मैं दीवाना हो गया था किसी का।
लड़कपन का इश्क़ बड़ा विकट होता है। इसमें या तो लड़के हद से ज्यादा सुधर जाते हैं और किताबी कीड़ा बनकर लड़की की गुड बुक्स में शामिल रहना चाहते हैं या फिर वे बिलकुल निठल्ले हो जाते हैं जिन्हें खुली आँखों से सपने देखने के सिवा कुछ नहीं भाता।
मैं इस दूसरी केटेगरी में आता था।
यानी मुझे पढ़ाई से कोई वास्ता न रहा था। मैं तो बस उसकी एक झलक पाने के लिए ही स्कूल आता था। हेयर जेल लगा-लगा कर अपने बाल संवारते, कपड़ों में इस्त्री करते और किस्म-किस्म के इत्र-फुलेल छिड़कते हुए मुझे घर पर ही इतनी देर हो जाती कि कई बार मैं अपना बस्ता ही घर भूल आता। क्लास में मैं ऐसी जगह हड़पने की कोशिश करता जहां से मुझे उसकी सूरत दिखाई पड़ती रहे। कसी हुई चोटियों में गुंथे हुए लम्बे काले बाल, जिन्हें वो हर रोज़ अलग-अलग रंग के फूलों वाले रबर बैंड से सजा कर आती थी। उसकी बारीक काजल से सजी बड़ी-बड़ी आंखें हमेशा पानी से तर रहती थीं जैसे अब बरसीं कि तब, होंठ गुलाब की पंखड़ियों जैसे मुलायम दिखाई पड़ते थे।
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सुबह की ओस के जैसी ताज़गी भरी थी मेरी माशूका, ‘आशना’ नाम था उसका।
हंसती थी तो ऐसा लगता जैसे अशर्फियों की पोटली खुल कर बिखर गई हो फर्श पर।
इश्क़ तो होना ही था।
आशना यानी मेरी माशूका जिससे मुझे एकतरफ़ा, मगर बेपनाह मोहब्बत हो गई थी, अभी कुछ समय पहले ही स्कूल में आई थी। स्कूल के पहले दिन उसने जब सहमते हुए अपने फैंसी स्कूल बैग को सुरक्षा कवच की तरह सीने से लगाए हुए पहली बार क्लास में कदम रखा था तभी उसकी सलोनी सूरत देख कर मेरे मन में कुछ गुदगुदी सी हुई थी। वो पहली नज़र का पहला प्यार था ये मैंने बाद में जाना।
उसके क्लास में आते ही जैसे कमरे की आबोहवा ताज़ा हो गयी थी। मेरे सिवा सब बारी-बारी उसके पास जाकर अपना परिचय दे आये थे। मैं पता नहीं किस मौके की तलाश में चुपचाप अपनी सीट पर बैठा रहा था।
क्लास का हर लड़का मुस्तैदी से तैनात हो गया था उसकी मदद करने के लिए, सब अपनी-अपनी कापियां उसको ये कहते हुए जबरदस्ती थमा आये कि ‘पिछले एक माह में जो भी मिस हुआ है उसको नोट कर लो और आराम से कर लेना, लौटाने की कोई जल्दी नहीं।’ मुझे अचानक याद आया था कि पिछले सप्ताह बुखार की वजह से मेरी जो पढ़ाई छूटी है वो मैं अब तक रिकवर नहीं कर पाया हूं। कोई अपनी कॉपी मुझे देने को तैयार ही नहीं था।
इश्क की हिम्मत थी इसलिए इक रोज़ मैंने एक हिमाकत भी कर डाली। स्कूल में आशना का कोई चौथा पांचवा दिन ही रहा होगा और मैंने एक कागज़ पर आई लव यू लिखा। उसको तोड़-मरोड़ कर एक बॉल बनाई और उसकी ओर उछाल दी।
आशना क्लास की सबसे खूबसूरत लड़की थी और मैं साधारण सी शक्ल-सूरत वाला, ज़रूरत से ज्यादा पतला और लंबा लड़का था। इतना पतला कि मुझे आते-जाते मोहल्ले पड़ोस के शुभचिंतक मुफ्त में वज़न बढ़ाने और चर्बी चढ़ाने के नुस्खे बताते रहते। मगर मैं अपना अक्स आईने में देख कर खुद को आनंद फिल्म का अमिताभ बच्चन समझा करता था। शायद इसी आत्मविश्वास की वजह से मैं आशना से इश्क़ करने की हिम्मत कर बैठा था।
इश्क की हिम्मत थी इसलिए इक रोज़ मैंने एक हिमाकत भी कर डाली। स्कूल में आशना का कोई चौथा पांचवा दिन ही रहा होगा और मैंने एक कागज़ पर आई लव यू लिखा। उसको तोड़-मरोड़ कर एक बॉल बनाई और उसकी ओर उछाल दी।
मगर मेरा वो प्रेम संदेश आशना तक पहुंचने की जगह क्लास के मॉनिटर के हाथ लग गया। उसने उस मुड़े तुड़े कागज़ को टेबल पर रख कर सीधा किया। उसमें लिखे वो तीन शब्द पढ़े और फिर मुझे घूर कर खा जाने वाली नज़रों से देखा। मैंने भी ढिठाई से मुंह फेर लिया।
मैंने अपने जीवन में इतनी सुन्दर और समझदार लड़की नहीं देखी थी। बहुत कम और जलतरंग की आवाज़ में बात करने वाली इस लड़की की ओर मैं खिंचा जा रहा था।
धीरे-धीरे मैं इश्क़ की गिरफ़्त में इस कदर आता जा रहा था कि मुझे क्लास में किसी से कोई मतलब नहीं रहा था। यार दोस्त तो दूर मुझे टीचर्स क्या पढ़ा रही हैं वो भी सुनाई नहीं देता। मुझे लगता पृथ्वी घूम रही है, मौसम बदल रहे हैं, वक्त गुज़र रहा है तो ‘मुझे क्या !’ मेरे लिए तो आशना पृथ्वी थी और मैं उसका चांद बनने की तमन्ना अपने भीतर पाल रहा था।
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पहले टर्म के नतीजे आए….आशना क्लास में फर्स्ट आई थी और मेरे नंबर अब तक के सबसे बुरे नंबर थे।
मुझे अपने फेल होने तक का ग़म नहीं हुआ था। अलबत्ता पिताजी ने गुस्से से मुझे सारा दिन कमरे में बंद रखा और मां ने चार दिन तक बात नहीं की मगर मेरा attitude वही रहा ‘मुझे क्या !!’
आशना के इश्क़ में मैं बरबाद हुआ जा रहा था। क्लास में सारा दिन उसको ताकते रहने के सिवा मैं और कुछ नहीं करता। मेरी आंखें उसको देखती रहतीं और उंगलियां कॉपी के खाली पन्नों में कुछ गूदती रहतीं। किस्म- किस्म की एब्सट्रैक्ट डिज़ाइनों से भर गयी थी मेरी कॉपियां। मुझे उसकी हर हरकत अच्छी लगती थी। उसका पेन पकड़ने का अंदाज़, अटेंडेंन्स के दौरान उसका हड़बड़ाते हुए उठ कर प्रेजेंट मैम कहना, किताब के पीछे चेहरा छिपा कर अपनी सहेलियों से बतियाना और बात बेबात मुंह दबा कर हंसना……मैं दीवाना था उसका।
अपने से छोटे बच्चों की मदद करना, स्कूल के माली, चौकीदार, ड्राइवर सभी से पूरी तहज़ीब से बात करना जैसी लाखों क्वालिटीज़ भी थी उसमें।
इश्क़ की इस दीवानगी की वजह से मेरा पढ़ने में ज़रा मन नहीं लगता। आशना को देखने के पहले मैं बारहवीं पास करके एनआईडी में एडमिशन लेना चाहता था जो मेरा बचपन का सपना था । मुझे देश का बेहतरीन डिज़ाइनर बनना था और ये लड़की मुझे लगातार आने वाले ‘ए’ ग्रेड से ‘बी’ ‘सी’ और ‘डी’ की तरफ धकेल रही थी। मेरे सुनहरे कैरियर का बरबाद होना तकरीबन तय था।
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पर मुझे मंज़ूर था। आशना से इश्क़ के एवज में मुझे कुछ भी खोना मंजूर था। अपने सपनों को टूटते देखना मंज़ूर था क्यूंकि डिज़ाइनर बनने से ज़्यादा सुनहरे ख्व़ाब मैं अब देखने लगा था।
हालांकि अब मुझे लगता है कि आख़िर ये कैरियर बनाने वाले दिन और पहली-पहली मोहब्बत वाले दिन कमबख्त एक साथ क्यूं आते हैं ?
कई दिनों तक एकतरफ़ा इश्क़ पालने के बाद मुझे लगने लगा कि अब ये भी पता लगना ज़रूरी है कि आखिर आशना के दिल में मेरी लिए क्या फीलिंग्स हैं। मोहब्बत न सही, ज़रा सा कोई नाज़ुक एहसास तो हो, जिसे भले ही वक्ती तौर पर वो दोस्ती का नाम दे रही हो।
मगर ये पता लगता भी तो कैसे ?
आशना से सीधे बात करने की मेरी हिम्मत नहीं थी और वो मुझसे बात करती नहीं थी। हां कभी कभार हमारी नज़रें मिल जाया करती थीं और मुझे लगता जैसे वो हौले से मुस्कुराई हो, हालांकि मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता। हां वो क्लास के मॉनिटर को देख कर अक्सर मुस्कुराती दिखाई दे जाती थी मगर मैंने उस बात को संजीदगी से नहीं लिया। आशना और मेरी लाइफस्टाइल में ज़मीन आसमान का फर्क था। वो कार में आती थी और मैं भाई की रिजेक्ट की हुई सेकंड हैंड साइकिल पर। स्कूल से बाहर निकलते वक्त मैं साइकिल से उसकी कार का तब तक पीछा किया करता था जब तक कार मेरी नज़रों से ओझल न हो जाती या मेरी साइकिल की चेन न उतर जाती।
मुझे पूरा यकीन था कि कार के रेयर व्यू मिरर में वो ज़रूर मुझे देखती होगी।
मेरा यकीन उस रोज़ कुछ और पक्का हुआ जब एक बार स्कूल के बाहर हम टकराए। वो रोड के उस पार थी और मैं इस पार। चौराहे पर लगी बत्तियां हरी- पीली -लाल होती रहीं। न वो इस पार आयी न मैं उधर गया। न उसने सड़क पार की न मैंने मगर कितना कुछ चलता रहा था हम दोनों के बीच।
उस रोज़ मैं पूरी रात सोया नहीं। बस अपने तसव्वुर में आशना और अपने इश्क़ के ख़याल को सींचता रहा। बीच- बीच में पिताजी आकर देख जाते और मेरी खुली आंखें और उसके सामने खुली किताब देखकर निश्चिन्त होकर चले जाते। इस इश्क़ ने मुझे पिताजी को धोखा देना भी सिखा दिया था।
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उन दिनों पंद्रह सोलह साल की सभी लड़कियां मिल्स एंड बूंस जैसे रूमानी उपन्यास पढ़ा करती थी मगर आशना के हाथ में हमेशा कोर्स की किताबें ही होतीं। वो अपने भविष्य को लेकर बहुत संजीदा थी। संजीदा तो मैं भी बहुत था मगर अब सिर्फ उसके और अपने रिश्ते को लेकर।
स्कूल में रहता तो आशना के करीब होने का एहसास मुझे खुश रखता था। घर पहुंचते ही मेरी परेशानियां शुरू हो जातीं।
पिताजी अक्सर सवाल जवाब करने लगते, ‘क्यूँ बरखुरदार? कैसी चल रही है पढ़ाई? कोई दिक्कत हो तो एक्स्ट्रा ट्यूशन जॉइन कर लो। पैसे का बंदोबस्त मैं कर लूँगा।’
उस रोज़ मैं पूरी रात सोया नहीं। बस अपने तसव्वुर में आशना और अपने इश्क़ के ख़याल को सींचता रहा। बीच- बीच में पिताजी आकर देख जाते और मेरी खुली आंखें और उसके सामने खुली किताब देखकर निश्चिन्त होकर चले जाते। इस इश्क़ ने मुझे पिताजी को धोखा देना भी सिखा दिया था।
मैं सर झुका कर बैठा रहता। उनके जाने के कुछ देर बाद तक अपना ध्यान आशना से हटा कर किताबों में लगाने की कोशिश भी करता मगर दिल कब उड़ कर आशना के पास पहुंच जाता मुझे पता ही नहीं लगता।
उन्हें दिनों एक और एग्जाम का रिजल्ट आया और मेरे ग्रेड और भी नीचे आ गए थे। मैं घबरा गया और इस बार तो मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि मार्कशीट ले जा कर पिताजी को दिखाऊं। उस रोज़ मैंने मार्कशीट पर पिताजी के नकली हस्ताक्षर किए थे। ज़रा सी आत्मग्लानि भी हुई थी, थोड़ी सी शर्म भी आई होगी मगर एक बार फिर इश्क़ हावी हो गया था। ये इश्क़ मुझे बदलता जा रहा था।
इस बार के वाहियात रिजल्ट के बाद मैंने ठान लिया कि अब तो आशना के मन की बात जानना ही पड़ेगी वरना यूं ही मैं बेवजह बरबाद होता चला जाऊंगा और उसके दिल पर किसी और का कब्ज़ा हो जाएगा। अचानक उस क्लास मॉनिटर की शक्ल मेरे ज़ेहन में कौंध गयी।
उफ़्फ़ ! इस ख्याल से ही मेरा दिल बैठने लगा था।
आशना के लिए अपनी मोहब्बत अब मुझे तकलीफ देने लगी थी। अब मुझे मरहम चाहिए था ,अपने लिए उसकी मोहब्बत का मरहम।
उस रोज़ मैं सुबह से ही आईने के सामने खड़े होकर खूब प्रैक्टिस करता रहा कि आशना से कैसे इज़हार करूंगा अपनी मोहब्बत का और कैसे जानूंगा उसके दिल की बात!
जहां तक मुझे याद है उस दिन भी मैं स्कूल बैग ले जाना भूल गया था।
क्लास ख़त्म होते ही सब लड़के-लड़कियां सैलाब की तरह बाहर निकलते थे, मैंने अक्सर देखा था कि आशना सब्र के साथ अपनी बेंच पर बैठी रहती और सबसे आखिर में निकलती थी। उस रोज़ मैं भी अपनी बेंच पर बैठा रहा और सबके बाहर निकलते ही आशना के सामने जाकर खड़ा हो गया। वो मुझे यूं अपने सामने, इतने करीब देख कर बुरी तरह चौंक गई। उसके हाथ से किताब गिर गयी और उसमें से सुर्ख लाल गुलाब की सूखी पंखुड़ियां भी निकल कर बिखर गईं। मैं उसका चेहरा ताकने लगा, वो मुझे देख रही थी बिना पलकें झपकाए। कुछ घबराई सी, किसी फिल्म के सीन की तरह हम एक- दूसरे को देख रहे थे। उसकी आंखें कुछ कहती सी लग रही थीं। मुझे उसकी मोहब्बत का कुछ-कुछ यकीन सा होने ही लगा था तभी क्लास मॉनिटर यानी मेरे रकीब की आवाज़ सुनाई दी।’ क्या हुआ आशना? जल्दी चलो’
मेरा खून खौल उठा, मैंने चुपचाप पंखुड़ियां बीन कर उसके हवाले कर दीं और बिना कुछ कहे सुने क्लास से बाहर निकल गया।
मेरे रतजगे वाली रातों में एक और रात का इजाफ़ा हो गया था। पूरी रात मैं यही सोचता रहा कि आखिर उसे किसने दिया होगा वो गुलाब जिसकी सूखी पंखुड़ियों को वो इस तरह सहेजे घूम रही है।
मेरा दिल टूट गया था, मेरे इश्क का सफर अपनी मंजिल नहीं पा सका था।
मुझे दुःख भी हो रहा था कि मैंने इतनी देर क्यूँ लगाई अपनी मोहब्बत का इज़हार करने में। मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था कि मैंने आखिर मोहब्बत की ही क्यूं। मुझे शर्म आ रही थी अपने ऊपर कि बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाला मैं आखिर अपनी पढ़ाई को छोड़ कर प्यार मोहब्बत के चक्कर में पड़ा ही क्यूं। मुझे हंसी भी आ रही थी अपने बचकाने इश्क़ पर। शायद इस एक नाकाम इश्क़ ने मुझमें समझदारी ला दी थी।
खैर वो चंद सूखी पंखुड़ियाँ मेरे डूबते कैरियर को तिनके के सहारा देकर बचा ले गई थीं।
कुछ दिन तक आशना याद आती रही फिर धीरे-धीरे मेरा उदास दिल और भटकता हुआ दिमाग़ अपने ट्रैक पर आ गए।
मैं फिर कभी बिना स्कूल बैग के स्कूल नहीं गया। क्लास में आशना की उपस्थिति या अनुपस्थिति मुझे बेचैन भी नहीं करती थी। दरअसल उस वाकये के बाद मैंने उसकी ओर देखा ही नहीं। मेरा मन फिर से पढ़ाई में लगने लगा था। देर रात जब पापा मेरे कमरे में झांकते तो मैं सचमुच पढ़ाई में डूबा हुआ होता। वे मेरे सर पर हाथ फेर कर चले जाते।
मेरे सर से इश्क़ का भूत उतर गया था और तो और मन ही मन अब आशना से इश्क़ की जगह पढ़ाई में कॉम्पटीशन करने लगा था। मन बस इतना चाहता था कि फाइनल एक्जाम्स में मेरे नंबर उससे ज्यादा आ जाएं। किसी और से गुलाब कबूल फरमा कर उसने अच्छा नहीं किया था।
स्कूल के आखिर डेढ़ महीने बाक़ी थे। ग्यारहवीं क्लास के बच्चों ने मिलकर शानदार फेयरवेल का आयोजन किया सभी दोस्तों ने औपचारिक विदाई ली। मैंने भी अपने गिने-चुने दोस्तों की स्क्रैप बुक में कुछ संदेश लिखे मगर मैं हैरान रह गया जब आशना भी अपनी गुलाबी रंग के फूलों वाली स्क्रैप बुक लेकर मेरी सामने आ गई।
मुझे समझ नहीं आया कि मैं आखिर क्या लिखूं? तब मैं मात्र अट्ठारह साल का था। ज्यादा शेरो शायरी की समझ नहीं थी वरना लिख देता-
‘अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें’
मैंने बस एक स्माइली बना कर औपचारिकता पूरी कर दी।
एक्जाम्स के लिए पंद्रह बीस दिन बाक़ी थे, क्लासेस ख़त्म हो चुकी थीं।
मैंने खुद को पूरी तरह पढ़ाई में डुबा लिया और खूब मेहनत करने लगा। मन के भटकने के लिए कोई कारण नहीं था इसलिए जब नतीजा आया तो मैं खुशी से उछल पड़ा। मैंने स्कूल में टॉप किया था।
उस रोज़ हम सब स्कूल पहुंचे। एक-दूसरे से रिजल्ट पूछते रहे।
आशना का रिजल्ट बहुत बुरा आया था। वो बमुश्किल पास हो पायी थी। उसका उदास चेहरा देखकर अचानक मेरी खुशी भी काफूर हो गई। न जाने क्यूं उससे ज्यादा नंबर पाकर मैं बिल्कुल खुश नहीं था।
सभी टीचर्स भी हैरान थीं कि आखिर के तीन महीनों में आशना के रिजल्ट में इतना उतार कैसे आया?
मैं भी हैरान था। मैंने आशना की ओर देखा। उसकी पलकों के किनारे भीगे हुए थे। मेरा मन भी भीग गया जिस इश्क से मैं खुद को अलग कर चुका था वो मुझे फिर अपने शिकंजे में कस रहा था। मैं आशना का उदास चेहरा देख नहीं पा रहा था। मैं उसका रिजल्ट बदलना चाहता था। मैं उसका नाम टॉप पर देखना चाहता था, मैं उसके रिजल्ट से अपना रिजल्ट बदलना चाहता था।
मैं पहली बार उससे सीधे बात करने पहुंच गया।
‘आशना, तुम्हारा रिजल्ट इतना खराब? क्यूं ? कैसे?’
मेरे सर से इश्क़ का भूत उतर गया था और तो और मन ही मन अब आशना से इश्क़ की जगह पढ़ाई में कॉम्पटीशन करने लगा था। मन बस इतना चाहता था कि फाइनल एक्जाम्स में मेरे नंबर उससे ज्यादा आ जाएं। किसी और से गुलाब कबूल फरमा कर उसने अच्छा नहीं किया था।
‘मन ही नहीं लगता था पढ़ने में’…और तुम्हारा रिजल्ट इतना शानदार?’ पूछते हुए वो हल्का सा मुस्कुराई थी।
‘हां! आख़िरी दिनों में बड़ा मन लगा कर पढ़ाई की थी।’ मैंने डरते- डरते जवाब दिया। जैसे मन लगा कर पढ़ना कोई गुनाह हो।
‘तुम्हारा मन पढ़ने में क्यूं नहीं लगता था?’ मैंने हिम्मत करके पूछ ही लिया।
उसने जवाब नहीं देकर एक सवाल किया-
‘जिस दिन वो गुलाब की बिखरी पंखुड़ियां तुमने बीन कर मुझे दी थीं उस दिन तुम क्या कहना चाहते थे?’
‘वो पंखुड़ियां मैंने तुम्हें नहीं दीं थीं। वो तुम्हारी किताब से गिरी थीं’, मैंने मौक़ा देखकर उलाहना दे ही डाला।
‘और उस कमबख्त सूखे गुलाब ने मेरी लव लाइफ चौपट कर दी थी’ मेरी हिम्मत फिर बढ़ने लगी थी।
‘हां, मगर तुम्हारा रिजल्ट तो सुधार दिया, उसने संजीदगी से कहा।
‘पर तुम्हारा किसने बिगाड़ दिया?’ मैंने उसको फिर कुरेदा।
‘उन्हीं पंखुड़ियों ने, जिन्हें मैंने कबसे तुम्हारे लिए सहेज रखा था।’
पर हां, मुझे अफ़सोस नहीं है। उसने धीरे से कहा।
किस बात का? रिजल्ट बिगड़ने का? मैंने हैरानी से पूछा?
‘नहीं, तुमसे कम मार्क्स लाने का, वो फिर से मुस्कुरा रही थी।
उन सूखी पंखुड़ियों पर मेरा ही हक़ था इस ख़याल से ही मेरा दिल ज़ोरों से धड़क गया।
मैं भी मुस्कुरा दिया। मुझे आशना से फिर इश्क़ हो चला था और किस्मत से इस बार मेरा रिजल्ट, मेरा करियर दांव पर नहीं लगा था और इश्क़ भी इकतरफ़ा कहाँ था !!