गेहूं की अपेक्षा कम सिंचाई में कर सकते हैं जौ की खेती

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गेहूं की अपेक्षा कम सिंचाई में कर सकते हैं जौ की खेतीप्रतीकात्मक फोटो।

स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क

लखनऊ। सिंचाई एवं उर्वरक के सिमित साधन और सिंचित दशा में जौ की खेती गेहूं की अपेक्षा अधिक लाभदायक है। पिछले कुछ वर्षों में जौ से बनने वाले उत्पादों से इसकी खेती का क्षेत्रफल बढ़ा है।

उपयुक्त जलवायु

गेहूं की अपेक्षा जौ की फसल प्रतिकूल वातावरण अधिक सहन कर सकती है। इसलिए उत्तर प्रदेश के पूर्वी नम और गर्म भागों में जहां गेहूं की पैदावार ठीक नहीं होती है, जौ की फसल अच्छी होती है। बोने के समय इसे नम, बढ़वार के समय ठंडी और फसल पकने के समय सूखा और अधिक तापमय शुष्क वातावरण की आवश्यकता होती है। नमी अधिक होने पर (विशेषकर पकने से पहले) रोगों का प्रकोप अधिक होता है। जौ सूखे के प्रति गेहूं से अधिक सहनशील है, जबकि पाले का प्रभाव इस फसल पर अधिक होता है।

भूमि का चयन

जौ की खेती लगभग सभी प्रकार की मिट्टियों में की जा सकती है, लेकिन इसके लिए अच्छे जल निकास वाली मध्यम दोमट मिट्टी जिसकी मृदा अभिक्रिया 6.5 से 8.5 के मध्य हो, सर्वोत्तम होती है। भारत में जौ की खेती अधिकतर रेतीली भूमि में की जाती है।

भूमि की तैयारी

जौ के लिए गेहूं की तरह खेत की तैयारी की आवश्यकता नहीं होती है। खरीफ की फसल काटने के बाद खेत में मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई करने के बाद तीन-चार बार देशी हल से जुताई करनी चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए। इससे भूमि मे नमी संरक्षण भी होता है।

खाद एवं उर्वरक

फसल की प्रति इकाई पैदावार बहुत कुछ खाद एवं उर्वरक की मात्रा पर निर्भर करती है। जौ में हरी खाद, जैविक खाद एवं रासायनिक खाद का प्रयोग किया जाता है। खाद एवं उर्वरक की मात्रा जौ की किस्म, सिंचाई की सुविधा, बोने की विधि आदि कारकों पर निर्भर करती है। अच्छी उपज लेने के लिए भूमि में कम से कम 35-40 क्विंटल गोबर की अच्छे तरीके से सड़ी हुई खाद, 50 किलो ग्राम नीम की खली और 50 किलो अरंडी की खली आदि इन सब खादों को अच्छी तरह मिलाकर खेत में बुवाई से पहले इस मिश्रण को समान मात्रा में बिखेर लें। इसके बाद खेत में अच्छी तरह से जुताई कर खेत को तैयार करें, इसके उपरांत बुवाई करें।

सिंचाई

जौ को गेहूं की अपेक्षा कम पानी की आवश्यकता होती है, परन्तु अच्छी उपज लेने के लिए दो-तीन सिंचाई की जाती है। पहली सिंचाई फसल में कल्ले फूटते समय (बोने के 30-35 दिन बाद), दूसरी बोने के 60-65 दिन बाद व तीसरी सिंचाई बालियों में दूध पड़ते समय (बोने के 80-85 दिन बाद) की जानी चाहिए। दो सिंचाई का पानी उपलब्ध होने पर पहली सिंचाई कल्ले फूटते समय बुवाई के 30-35 दिन बाद व दूसरी कल्ले फूटते समय की जानी चाहिये। यदि सिर्फ एक ही सिंचाई का पानी उपलब्ध है, तब कल्ले फूटते समय (बुवाई के 30-35 दिन बाद) सिंचाई करना आवश्यक है। प्रति सिंचाई 5-6 सेमी पानी लगाना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

जौ में प्रायः निराई-गुड़ाई की आवश्यकता नहीं होती है। सिंचित दशा में खरपतवार नियंत्रण हेतु कीटनाशक दवा 2,4-डी सोडियम साल्ट (80%) या 2,4-डी एमाइन साल्ट (72%) 0.75 किग्रा. प्रति हेक्टेयर को 700-800 लीटर पानी में घोलकर बोआई के 30-35 दिन बाद कतार में छिड़काव करना चाहिए, इससे चैड़ी पत्ती वाले खरपतवार नियंत्रित रहते हैं। मंडूसी और जंगली जई के नियंत्रण के लिए आइसोप्रोटुरान 75 डव्लू पी 1 किग्रा या पेंडीमेथालिन (स्टोम्प) 30 ई सी 1.5 किग्रा प्रति हेक्टेयर को 600-800 ली. पानी मे घोलकर बोआई के 2-3 दिन बाद छिड़काव करना चाहिए।

This article has been made possible because of financial support from Independent and Public-Spirited Media Foundation (www.ipsmf.org).

  

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