छुआछूत से फैलता है पशुओं में खुरपका-मुंहपका, बचाने के लिए रखें ये सावधानियां 

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छुआछूत से फैलता है पशुओं में खुरपका-मुंहपका, बचाने के लिए रखें ये सावधानियां खुरपका-मुंहपका रोग

सवाल: गांवों की अर्थव्यवस्था में पशुओं का बड़ा योगदान है, लाखों लोगों की रोजी-रोटी दुग्ध व्यवसाय पर आधारित है लेकिन खुरपका और मुंहपका जैसी बीमारियां पशुपालकों को बहुत नुकसान पहुंचाती हैं। गांव कनेक्शन से सैकड़ों किसानों ने ये सवाल पूछा- कैसे फैलती है ये बीमारी और कैसे हो सकती है रोकथाम।

जवाब: मुंहपका-खुरपका रोग विषाणु जनित रोग होता है। यह रोग बीमार पशु के सीधे सम्पर्क में आने, पानी, घास, दाना, बर्तन, दूध निकलने वाले व्यक्ति के हाथों से, हवा से तथा लोगों के आवागमन से फैलता है। रोग के विषाणु बीमार पशु की लार, मुंह, खुर व थनों में पड़े फफोलों में बहुत अधिक संख्या में पाए जाते हैं। विषाणु जीभ, मुंह, आंत, खुरों के बीच की जगह, थनों तथा घाव आदि के द्वारा स्वस्थ पशु के रक्त में पहुंचते हैं और लगभग पांच दिनों के अंदर उसमें बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं|

रोग के लक्षण :- रोग ग्रस्त पशु को 104-106 डिग्री तक बुखार हो जाता है। वह खाना-पीना व जुगाली करना बन्द कर देता है। दूध का उत्पादन गिर जाता है। बुखार के बाद पशु के मुंह के अंदर,गालों,जीभ,होंठ तालू व मसूड़ों के अंदर,खुरों के बीच तथा कभी-कभी थनों में छाले पड़ जाते हैं। ये छाले फटने के बाद घाव का रूप ले लेते हैं, जिससे पशु को बहुत दर्द होने लगता है।

मुंह में घाव व दर्द के कारण पशु कहां-पीना बन्द कर देते हैं जिससे वह बहुत कमज़ोर हो जाता है। खुरों में दर्द के कारण पशु लंगड़ा चलने लगता है। गर्भवती मादा में कई बार गर्भपात भी हो जाता है। नवजात बच्छे/बच्छियां बिना किसी लक्षण दिखाए मर जाते है। लापरवाही होने पर पशु के खुरों में कीड़े पड़ जाते हैं तथा कई बार खुरों के कवच भी निकल जाते हैं। हालांकि व्यस्क पशु में मृत्यु दर कम है, लेकिन इस रोग से पशु पालक को आर्थिक हानि बहुत ज्यादा उठानी पड़ती है। दूध देने वाले पशुओं में दूध के उत्पादन में कमी आ जाती है।

उपचार- इस रोग की अभी तक कोई दवा नहीं खोजी गई है। लेकिन बीमारी की गम्भीरता को कम करने के लिए लक्षणों के आधार पर पशु का उपचार किया जाता है। रोगी पशु में सेकन्डरी संक्रमण को रोकने के लिए उसे पशु चिकित्सक की सलाह पर एंटीबायोटिक के टीके लगाए जाते हैं। मुंह व खुरों के घावों को फिटकरी या पोटाश के पानी से धोते हैं। मुंह में बोरो-गिलिसरीन तथा खुरों में किसी एंटीसेप्टिक लोशन या क्रीम का प्रयोग किया जा सकता है।

रोग से बचाव-

(1) इस बीमारी से बचाव के लिए पशुओं को पोलीवेलेंट वेक्सीन के वर्ष में दो बार टीके अवश्य लगवाने चाहिए। बच्छे/बच्छियां में पहला टीका एक माह की आयु में, दूसरे तीसरे माह की आयु तथा तीसरा 6 माह की उम्र में और उसके बाद नियमित सारिणी के अनुसार टीके लगाए जाने चाहिए।

(2) बीमारी हो जाने पर रोग ग्रस्त पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए।

(3) बीमार पशुओं की देख-भाल करने वाले व्यक्ति को भी स्वस्थ पशुओं के बाड़े से दूर रहना चाहिए।

(4) बीमार पशुओं के आवागमन पर रोक लगा देना चाहिए।

(5) रोग से प्रभावित क्षेत्र से पशु नहीं खरीदना चाहिए।

(6) पशुशाला को साफ-सुथरा रखना चाहिए।

(7) इस बीमारी से मरे पशु के शव को खुला न छोड़कर गाड़ देना चाहिए।

-डॉ आंनद सिंह, पशु विशेषज्ञ

कृषि विज्ञान केन्द्र कटिया, सीतापुर

     

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