खेती से आदिवासी परिवारों की ज़िंदगी बदल रहा ये किसान
Divendra Singh 13 Aug 2018 6:00 AM GMT
कभी बैंक में नौकरी करने वाले राजाराम त्रिपाठी आज 20 हजार से ज्यादा किसानों के लिए मददगार बन रहे हैं साथ ही अपने औषधीय उत्पादों को अमेरिका, ब्रिटेन जैसे कई देशों में निर्यात करते हैं।
छत्तीसगढ़ की पहचान घने जंगलों से है, नक्सलवाद से यहां के सैकड़ों परिवार प्रभावित हैं, लेकिन यहीं के बस्तर जिले में कोड़ागाँव के डॉ. राजाराम त्रिपाठी औषधीय फसलों की खेती कर सैकड़ों आदिवासी परिवारों की जिंदगी बदल रहे हैं।
डॉ. राजाराम त्रिपाठी (54 वर्ष) मूल रूप से उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के रहने वाले हैं, इनके बाबा बस्तर में जाकर बस गए थे। राजाराम त्रिपाठी बताते हैं, "मेरे बाबा भी अपने समय में अपने समय के किसान थें, उनको बस्तर के राजा ने खेती में जानकारी के लिए बुला लिया था, तब पहली बार में बाबा ने वहां पर आम का कलमी पौधा लगाया था।"
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खेती में शुरुआत के बारे में वो बताते हैं, "मैं बैंक में नौकरी करने लगा था, तब मुझे लगा खेती में कुछ नया करना चाहिए, तब मैंने खेती की शुरुआत विदेशी सब्जियों की खेती से की, वो सब्जियां जो बड़े होटलों में बिकती थीं, लेकिन हमारे यहां अभी ऐसी सुविधा नहीं है, जिससे सब्जियों को खराब होने से बचाया जा सके, काफी नुकसान भी हुआ था।
तब राजाराम ने जड़ी-बूटियों की खेती करने को सोचा और सबसे पहले 25 एकड़ जमीन पर सफेद मूसली की खेती की। इससे उनको काफी मुनाफा हुआ, उसके बाद उन्होंने अपनी खेती का दायरा बढ़ाया और ज्यादा कृषि भूमि पर सफेद मूसली के अलावा स्टीविया, अश्वगंधा, लेमन ग्रास, कालिहारी और सर्पगंधा जैसी जड़ी-बूटियों की भी खेती शुरू कर दी। खेती के अलग-अलग तरीकों को जानने व कृषि आधारित सेमिनारों में भाग लेने के लिए डॉ. त्रिपाठी अब तक 22 देशों की यात्राएं कर चुके हैं।
राजाराम बताते हैं, "औषधीय खेती करने से पहले उसके बाजार के बारे में पता किया, तब जाकर खेती की। धान, गेहूं, दलहन जैसी फसलों में 100 रुपए से ज्यादा किसी का दाम नहीं मिलता है, वहीं औषधीय पौधों में सौ रुपए से ही दाम की शुरुआत होती है, सबसे अच्छी बात इसमें पौधे का अस्सी फीसदी भाग बिक जाता है।"ये भी पढ़ें- एलोवेरा की खेती का पूरा गणित समझिए, ज्यादा मुनाफे के लिए पत्तियां नहीं पल्प बेचें, देखें वीडियो
इसमें में मार्केटिंग की परेशानी होती थी, इसलिए उन्होंने किसानों का संगठन बनाया है। वो बताते हैं, "अब हमसे हजारों किसान जुड़े हुए, बाजार में आढती और व्यापरियों का संगठन होता है, लेकिन किसानों का नहीं, ऐसे में अब हमारा भी संगठन मिलकर काम करते हैं।" इससे निजात पाने के लिए डॉ. त्रिपाठी ने सेंट्रल हर्बल एग्रो मार्केटिंग फेडरेशन की स्थापना की। आज इस फडरेशन से देशभर के 22 हजार किसान जुड़े हैं।
जैविक तरीके से करते हैं औषधियों की खेती
राजाराम पूरी तरह से जैविक तरीके से औषधियों की खेती करते हैं। करीब 70 प्रकार की जड़ी-बूटियों की खेती करने वाली डॉ. त्रिपाठी अपनी खेती में रासायनिक खाद व कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं करते। जैविक खेती में उनके योगदान को देखते हुए बैंक ऑफ स्कॉटलैंड ने 2012 में अर्थ हीरो के पुरस्कार से नवाजा था। भारत सरकार ने उनको राष्ट्रीय कृषि रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया।
सैकड़ों आदिवासी परिवारों को मिला रोजगार
उन्होंने मां दंतेश्वरी हर्बल प्रोडक्ट्स लिमिटेड के नाम से एक कंपनी भी बनायी है। इस कंपनी से कंपनी नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के 350 परिवारों के 22 हजार लोगों को रोजगार मिला है। मां दंतेश्वरी हर्बल ग्रुप आदिवासी क्षेत्रों के मुश्किल हालात में काम करते हुए कई तरह के हर्बल फूड सप्लीमेंट का उत्पादन और मार्केटिंग सेंट्रल हर्बल एग्रो मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया की मदद से करता है।
प्रतापगढ़ में भी शुरु करेंगे औषधीय फसलों की खेती
बस्तर के बाद अब प्रतापगढ़ में भी डॉ. राजाराम त्रिपाठी औषधीय खेती करने वाले हैं। राजाराम त्रिपाठी बताते हैं, "प्रतापगढ़ किसान किसान नीलगाय, जंगली सुअर जैसे जंगली जानवर से परेशान हैं, ऐसे में किसान औषधीय फसलों की खेती करके मुनाफा कमा सकता हैं। मैं भी प्रतापगढ़ का रहने वाला हूं इसलिए जल्द ही औषधीय फसलों की खेती करने को सोच रहा हूं।" उनकी संस्था 'संपदा' औषधि की खेती के इच्छुक किसानों को प्रशिक्षित भी करती है।
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