अपनी मेहनत के मुकाबले कम पैसों में जीवन काट रहे ज़रदोजी कलाकार

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अपनी मेहनत के मुकाबले कम पैसों में जीवन काट रहे ज़रदोजी कलाकारबिचौलियों के कारण कारीगरों को मेहनत के हिसाब से नहीं मिल पाता है मुनाफा

कम्यूनिटी जर्नलिस्ट- आसिफ अली (16 वर्ष)

स्कूल- बाल विद्यामंदिर इंटर कालेज (गंगागंज)

रायबरेली। जहां एक तरफ केंद्र सरकार बुनकरों के हित में कल्याणकारी योजना चला रही है वहीं दूसरी तरफ ज़रदोजी कारीगरों के लिए सरकार कोई भी योजना नहीं चला रही है।

रायबरेली जिले में कहारों के अड्डे, डलमऊ और लोहानीपुर में बनाई गई ज़रदोजी की कढ़ाई वाली साड़ियों की कीमत 2,000 रुपए से 5,000 रुपए तक है, लेकिन इसे बनाने वाले कारीगरों को इसकी मामूली कीमत ही मिल पाती है।

रायबरेली से लगभग 18 किमी. दूर लालगंज ब्लॉक के डलमऊ गाँव के ज़रदोजी कारीगर मो. अल्ताफ (21 वर्ष) पिछले 12 वर्षों से इस काम में लगे हैं। अल्ताफ बताते हैं, ''हमें एक कपड़ा तैयार करने के हिसाब से पैसा मिलता है। एक कपड़े पर 100 से 150 रुपए मिलते हैं और एक दिन में मुश्किल से दो कपड़े बन पाते हैं। ''वो आगे बताते हैं कि जो भी कपड़ा (कुर्ता और लहंगा) हम बनाते हैं वो लखनऊ की बाजारों में 2000 रू. तक आराम से बिकता है और हमारे हाथ में आते हैं सिर्फ 150 रुपए।

देश में ज़रदोजी उद्योग सबसे ज़्यादा वाराणसी, राजस्थान और गुजरात में फैला हुआ है। उत्तर प्रदेश में बरेली, वाराणसी, लखनऊ और आगरा में ज़रदोजी का कारोबार है। रायबरेली में ज़रदोजी के लिए अधिकतर सामान कानपुर, लखनऊ और बरेली से आता है और जिले में बनाया गया ज़रदोजी का सामान दिल्ली, उत्तराखंड और हरियाणा जैसे राज्यों में होता है।

ज़रदोजी में मेहनत के हिसाब से मुनाफा न मिलने का एक कारण बिचौलियों का होना है। ज़्यादातर कारीगर सीधे माल नहीं लेते क्योंकि इसमें उन्हें एक साथ पैसा मिलता है जबकि बिचौलिये उन्हें रोज का रोज पैसा देते हैं, जिससे उनके घर का खर्चा चलता है।
मो. सलमान, ज़रदोजी के निर्यातक

रायबरेली में खालीसहाट, लोहानीपुर और किला बाज़ार जैसे कस्बों में 100 से ज़्यादा कारीगर काम करते हैं। कलाकारों की मानें तो हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बनारस के बुनकरों को नई तकनीक से जोड़ने और बुनकरों के प्रशिक्षण के लिए समिति का गठन किया है लेकिन दूसरी ओर ज़रदोजी के लिए अभी तक कोई भी योजना नहीं चलाई गई है।

This article has been made possible because of financial support from Independent and Public-Spirited Media Foundation (www.ipsmf.org).

   

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