सिकल सेल नामक अनुवांशिक रोग की चपेट में गुजरात के कई हजार आदिवासी

गुजरात में एक अनुवांशिक रोग सिकल सेल धीरे धीरे बड़ा रूप ले रहा है। गुजरात में रहने वाले 89 लाख आदिवासियों में 93 हजार आदिवासी इस रोग से गंभीर रूप से पीड़ित हैं। धीरे धीरे ये अनुवांशिक रोग गुजरात के अन्य इलाकों में भी अपने पांव पसार रहा है।

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo

उमेश अमीन, कम्युनिटी जर्नलिस्ट

छोटा उदयपुर(गुजरात)।गुजरात में एक अनुवांशिक रोग सिकल सेल धीरे धीरे बड़ा रूप ले रहा है। गुजरात में रहने वाले 89 लाख आदिवासियों में 93 हजार आदिवासी इस रोग से गंभीर रूप से पीड़ित हैं। धीरे धीरे ये अनुवांशिक रोग गुजरात के अन्य इलाकों में भी अपने पांव पसार रहा है। गुजरात की महिलाओं को इस बीमारी की वजह से शादी न करने की भी सलाह दी जाती है। किसी महिला से ये बोलना कि उसे मां नहीं बनना है, यह उस महिला के लिए सबसे दुखद होगा।

2050 तक 1.54 करोड़ हो जाएगी मरीजों की संख्या

एक सर्वे के के अनुसार अगर सिकलसेल की बीमारी इसी तरह लगातार बढ़ती गई तो 2050 तक इस बीमारी से पीड़ित लोगों की संख्या 1.54 करोड़ तक पहुंच जाएगी। ये बीमारी पहले आदिवासी इलाकों तक ही सीमित थी, लेकिन धीरे धीरे इसका दायरा बढ़ता ही जा रहा है। इसका पहला वाहक 1952 में नीलगिरी में पाया गया था और इस समय पूरे देश में इस रोग के 10 लाख के आसपास वाहक है।

गुजरात का उदयपुर क्षेत्र है अत्याधिक प्रभावित

गुजरात के छोटे उदयपुर की धधोदा गांव की टीना बहन राठवा बताती हैं कि उनके हाथ पैर पहले से ही दुखते थे। काम करती थी तो उन्हें बहुत थकान हो जाती थी। हल्का सा बुखार रहता था हमेशा। जब उनकी लड़की गायत्री हुई वो स्कूल जाने लगी तो वह भी वही शिकायत करने लगी। एक दिन गायत्री के स्कूल में सिकल सेल की जांच को लेकर कैम्प का आयोजन किया गया। जांच में गायत्री को सिकल सेल का वाहक पाया गया। टीना ने बताया कि जब उसकी बेटी ने ये बात घर आकर बताया, तो उसने भी जाकर अपनी जांच कराई। जांच में उसे भी ये बीमारी पाई गई।

टीना राठवा कहती हैं कि उनको दो लड़कियां है। अगर इस बीमारी का पता समाज में सबको पता चल गया, तो उनकी शादी नहीं होगी। इसीलिए वो अस्पताल भी नहीं जाती। वह बताती है कि, जब वो अस्पताल जाती हैं तो लोग उसे घूरते है और उसे यह अच्छा नहीं लगता।

कम्युनिटी जर्नलिस्ट उमेश अमीन बताते हैं कि गांव की रहने वाली छवि बेन राठवा को पिछले 10 सालों से यह बीमारी थी। सरकारी अस्पताल में उनका इलाज भी चल रहा था। पिछले 6 महीने से वह अस्पताल नहीं आ रही थीं। जब उनके घर जाकर देखा तो पता चला उनकी मौत हुए 5 महीना हो चुके हैं। उनके घरवाले बताते हैं 5 महीने पहले उनको टाइफाईड हो गया था। यहां एक डॉक्टर को दिखाया, तो उन्होंने बरोदा बड़ी अस्पताल में ले जाने की सलाह दी। लेकिन उन्होंने अस्पताल के रास्ते में ही अपना दम तोड़ दिया।

छोटा उदयपुर के ही रहने वाले अब्दुल हाफिज बताते है कि उनको सिकल सेल है। यह बात उन्हें 5 साल पहले मालूम हुई। उनके हाथ-पैर बहुत दर्द करते है। टाइफाइड और पीलिया हर छह महीने में हो जाता है। इसी के कारण वो कोई भारी काम नहीं कर पाते। घर में एकलौते वो ही कमाने वाले है, लेकिन उनकी हालत दिन ब दिन बिगड़ती जा रही है। उनकी एक 5 साल की लड़की भी है। उसे भी सिकल सेल से पीड़ित पाया गया।

छोटा उदयपुर के ही रहने वाल्व रामभाई ओर उनके लड़के सुनील भाई भी इसी बीमारी से पीड़ित है। सुनील जो कि अक्सर बीमार ही रहता है। कुछ दिनों पहले उसको तेज बुखार हो गया था। उसी दौरान उसकी हालत और भी खराब हो गई थी। वो बताते हैं कि घर मे दो मर्द है और दोनो को यह बीमारी है। दोनों कोई भी भारी काम नही कर पाते।

ये भी पढ़ें- यूपी के प्रत्येक जिले में होगी जापानी इंसेफेलाइटिस के उपचार की व्यवस्था

कैम्प लगाकर लिया जाता है ब्लड सैंपल

अर्जुन राठवा, सिकल सेल बीमारी के एक सरकारी कार्यक्रम तहत काउंसलर है। वो बताते है कि लगभग हर महीने अलग अलग गांव में इस बीमारी की जागृति के लिए कैम्प होते है। वहां हम लोगों के ब्लड का सैम्पल लेते है। वो सारे सैंपल हम स्थानीय PHC में लाते है। बाद में उसे नजदीक के बड़े सरकारी अस्पताल में पहुंचाया जाता है। वहां इन सारे लोगों के ब्लड का HPLC टेस्ट होता है। जो भी लोग इस टेस्ट में पॉजीटिव पाए जाते हैं फिर उनका इलाज शुरू किया जाता है। उनको सारी दवाइयां नजदीक के PHC से मिल जाती है। जो भी इस बीमारी से पीड़ित हैं, उनकी शादी हो गई है, उनको भी सलाह दी जाती है कि बच्चे पैदा मत करो। इसके पीछे वजह दी जाती है कि यह एक आनुवंशिक बीमारी है। सरकार की ओर से इस बीमारी से पीड़ित लोगों को 500 रूपये महीने सहायता भी दी जाती है।

सिकल सेल बीमारी के लक्षण

स्थानीय आदिवासी डॉक्टर हितेश राठवा ने सिकलसेल के लक्षण के बारे में बताया कि" इस बीमारी में जब बच्चे छोटे होते हैं, तब लक्षण दिखाई नहीं देते। बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते हैं, उनमें लक्षण दिखाई देने शुरू हो जाते हैं। दर्द, बार-बार न्यूमोनिया, हाथों और पैरों में दर्द के साथ सूजन, प्लीहा/ स्प्लीन (अंग जो संक्रमण से लड़ने में मदद करता है) में अचानक सूजन, स्ट्रोक, देखने में परेशानी, शरीर का विकास ठीक से न होना या हड्डियों में अन्य जटिलताएं" ये सब सिकलसल की बीमारी के लक्षण है।

डॉ. हितेश ने कहा, "वर्तमान में देश के कई हिस्सों में नवजात शिशुओं की जांच के लिए स्क्रीनिंग प्रोग्राम शुरू किए गए हैं ताकि बीमारी से पीड़ित बच्चों को जल्द से जल्द पहचाना जा सके। समय पर सही इलाज शुरू किया जा सके। अगर परिवार के किसी बच्चे में ऐसा जीन पाया जाता है, तो अगली गर्भावस्था में ही इसकी जांच करानी चाहिए। क्योंकि समय पर पता चल जाने पर परिवार के पास गर्भपात का विकल्प हेता है."उन्होने कहा, "इलाज के मौजूदा विकल्पों के साथ मरीज अच्छा जीवन जी सकता है और उसे रोग के लक्षणों, खास तौर दर्द से बचाया जा सकता है। लेकिन आदिवासी इलाकों में जागरूकता कम होने के कारण इस बीमारी से होने वाली मृत्यु दर काफी ज्यादा है।

    

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.