'फोनी ने हमें कई साल पीछे धकेल दिया'

Nidhi Jamwal

Nidhi Jamwal   31 May 2019 12:12 PM GMT

80 साल की बूढ़ी औरत, एक 13 साल का लड़का और एक गांव को को फिर से बसाने की तैयारी। गांव ने सब कुछ खो दिया है- नाव बह गईं, जाल गायब हो गए, घर बर्बाद हो गए।

ओडिशा। मछुआरन कमोली बेहरा 1,100 वर्ग किलोमीटर में फैली चिल्का झील के झील के अंदर बसे एक टापू गांव बेहरामपुर रहती हैं। उन्हें अपनी असल उम्र का तो पता नहीं, लेकिन वो खुद को 80 साल से ज्यादा का बताती हैं। उन्हें पिछली कई प्राकृतिक आपदाएं याद है, लेकिन कहती हैं कि इस बार तूफान से हुए तबाही का कोई मुकाबला ही नहीं है।

कमोली कहती हैं, "मैंने कई तूफानों का सामना किया है। भारी बारिश और हवाओं से मुझे डर नहीं लगता है। लेकिन जो मैंने 3 मई को देखा उसने मुझे अंदर से पूरी तरह से हिला दिया।" कमोली ने 2 मई की रात और 3 मई अपने घर से आधा किलोमीटर दूर स्थित साइक्लोन शेल्टर में बिताया।

भरी दोपहरी में उसे खोजना बिल्कुल भी आसान नहीं है, न ही राहत अधिकारियों के लिए और न ही दूर शहर से आए किसी रिपोर्टर के लिए।


ओडिशा के तट पर 3 मई को फोनी के तबाही मचाने और 64 लोगों के मरने के 2 हफ्ते बाद गांव कनेक्शन की रिपोर्टर ने तूफान प्रभावित इलाकों में नाव यात्रा की। यह यात्रा- ओडिशा के पिछड़े इलाके के हताश जीवन को दिखाता है कि कैसे राज्य के तटीय इलाकों के लोगों को प्रकृति कहर झेलना पड़ता है। वह सब कुछ खो देते हैं और फिर से नए सिरे से सब कुछ बनाने में लग जाते हैं।

गांव की यात्रा की शुरूआत पुरी शहर से हुई जो खुद तूफान से ग्रसित है। नंगे और जड़ से उखड़े हुए पेड़ सड़क के किनारे पड़े थे। बड़ी घास काटने वाली मशीन की तरह चक्रवात फोनी ने पेड़ों को उखाड़ फेका था। रास्ते में जो भी मिला उसे वह बहा ले गई।

अचानक बंजर खेतों, उजड़े घर, बर्बाद हुए मिट्टी के घरों से लेकर झींगा पालन के लिए बनाए गए छोटे तालाबों के साथ ही बड़े जलस्रोतों का दृश्य बिल्कुल ही बदल गया। इन तालाबों की संख्या सैकड़ों में है। इनका दिखना एक संकेत है कि एशिया की सबसे बड़ी खारे पानी की झील पास में ही है। झींगा पालन स्थानीय लोगों की आजीविका का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। इतना है कि इन तालाबों के स्वामित्व और उपयोग पर अक्सर हिंसक झगड़े भी होते हैं।

सरकार की ओर से फोनी ग्रसित लोगों के लिए गांव में भेजी गए मोबाइल वाटर टैंकर के सामने लोग लाइन लगाए हुए दिखे। गर्मी बहुत थी, लेकिन गांव वालों और बच्चों के पास अपनी बारी के इतंजार के अलावा कोई विकल्प नहीं है। एक परिवार से एक से ज्यादा का लाइन में लगने का मतलब घर के लिए ज्यादा पानी, क्योंकि किसी को नहीं पता है कि दोबारा पानी का टैंकर कब आएगा। साइक्लोन से हुई क्षति के बाद सबसे बड़ी चुनौती पानी की ही थी, क्योंकि तूफान से कई जल योजनाएं ठप हो गई और कई जल स्रोत खारे हो गए हैं।


फिर समुंद्र किनारे पर पहुंचते हैं, जहां से फोनी से प्रभावित गाँव के लिए नाव की यात्रा शुरू होनी थी, पूरा समुंद्र तट केकड़ों से भरा पड़ा था।

सतपड़ा, जहां पर जमीन खत्म हो जाती है, ये वह जगह है जहां से चिल्का झील में स्थित फोनी से सबसे अधिक प्रभावित दो द्वीपीय गाँव बेहरामपुर और मोइसा तक जाने के लिए नाव मिलती है। और कोई दूसरा दिन होता तो यहां पर पर्यटकों की भीड़ होती। चिल्का झील ओडिशा के पुरी, खुर्दा और गंजम जिलों तक फैली 1,100 वर्ग किलोमीटर की खारे पानी की लैगून है। इसको यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल होने की उम्मीद है।

सतपाड़ा का समुद्र तट सुनसान है। ज्यादातर नावें या तो टूट गई हैं या खो गई हैं। चक्रवात के बाद के आघात और डर को दूर होने में समय लगेगा। नाव वाले ने चिल्का के अंदर गांव सतपाड़ा से मोइसा तक नाव की सवारी के लिए प्रति व्यक्ति तीन रुपये का किराया लिया।

चिल्का के अंदर एक द्वीप देख सकते हैं जहां बेहरामपुर और मोइसा गांव स्थित हैं। चिल्का का पानी शांत है। किसने सोचा होगा कि दो हफ्ते पहले इसी झील के पानी ने बड़ी संख्या में नावों को दूर बंगाल की खाड़ी तक ले जाकर नष्ट कर दिया होगा।

नाविक गुरू हमें बेहरामपुर तक ले जाने को तैयार था। 15 से 20 मिनट गांव की सवारी। वह अपनी बड़ी नाव पर चढ़ने के लिए नाव के नीचे एक लकड़ी का तख्ता लगाता है, जो न केवल लोगों को, बल्कि दोपहिया वाहनों को भी चढ़ाने में सहायता करती है। गुरू नाव चलने से पहले उसे चलाने के लिए दो तीन प्रयास करते हैं। वह मोटर स्टार्ट करने के लिए रस्सी खींचता है। मोटर एक भारी अवाज के साथ स्टार्ट हो जाती है। गुरू एक निपुण नाविक की तरह नाव को पानी में उतार देता है।

गुरू बताते हैं कि पर्यटन के मौसम के दौरान वह पर्यटकों को डॉल्फ़िन को देखने के लिए ले जाता है - चिलिका लैगून लुप्तप्राय इरवाड्डी डॉल्फ़िन का घर माना जाता है।

जैसे ही नाव चिल्का झील के पानी के बहाव को काटते हुए आगे बढ़ रही थी, चेहरे पर पानी के छींटों से खारे पानी का स्वाद ले सकता है। एक गर्म दोपहर में, यह बेहद सुखद लगता है। धीरे-धीरे चिल्का के अंदर का द्वीप बड़ा और भी बड़ा दिखाई देने लगता है।


नाव चिल्का झील के अंदर पहुंची। नाव पर चढ़ने के लिए इतंजार कर रहे लोगों ने रिपोर्टर को बताया कि ये मोइसा गांव है। बेहरामपुर जहां बूढ़ी औरत रहती है यहां से आधे किलोमीटर की दूरी पर है। गांव जाने का रास्ता पूरी तरह से साइक्लोन की वजह से टूटा हुआ है। टूटे हुए नाव और फटे हुए जाल का ढेर रास्ते भर दिखाई दिए।

बेहरामपुर के रहने वाले जग्गूबांध जेना पेशे से मछुआरे हैं। वह बताते हैं, "उनके दादा और परदादा सब मछुआरे थे और इसी आइलैड पर उन्होंने अपना जीवन बिताया। एक गांव में रहने वाले 1500 परिवार पूरी तरह से अपने जीवन यापन के लिए मछली पकड़ने के काम पर निर्भर हैं।"

वो आगे कहते हैं, "ज्यादातर परिवार इस व्यवसाय से 3 से 5 हजार रुपए कमा लेते हैं। लेकिन अब साइक्लोन के डर से मछली मारने के काम को पूरी तरह से पूरी तरह रोक दिया गया है। कोई अब कुछ भी नहीं कमा रहा है।

साइक्लोन फोनी ने बेहरामपुर गांव को पूरी तरह बर्बाद कर दिया। इस साइक्लोन में पूरे 1500 मछुआरों के परिवार ने अपनी नाव और मछली पकड़ने के जाल को खो दिया। इसने कई घरों को बहा दिया पूरे गांव को 10-12 फीट पानी में जलमग्न कर दिया।

बड़ी बोट 1.2 लाख रुपए की आती है, मध्यम 80 हजार की और छोटी बोट की कीमत 50 हजार रुपए की होती है। नावों को लेकर हुए नुकसान के एक आकड़े से पता चलता है कि बेहरामपुर गांव में अकेले 7.5 करोड़ रुपयों की नाव का नुकसान हुआ है। इसके अलावा, सभी मछुआरों ने अपने मछली पकड़ने के जाल को भी खो दिया है।

जग्गूबांध बताते हैं, "हम अपनी नाव और मछली पकड़ने के जालों को झील के नजदीक ही रखते थे, क्योंकि हमें रोज झील के अंदर जाना होता है। जब हमें चक्रवात के पास पहुंचने की सूचना मिली, तो हमने अपनी नावों और जालों को ऊंचे मैदान पर पहुंचा दिया। लेकिन हमने सोचा ही नहीं था कि साइक्लोन इतना मजबूत होगा कि सबकुछ बहा ले जाएगा।"

बेहरामपुर गांव के 1,500 घरों में से केवल 40-50 घर ही बचे हुए हैं। बाकी सभी बह गए। जग्गूबांध ने अपना घर खो दिया और बांस के ऊपर काली तिरपाल डालकर रहे हैं। सभी एस्बेस्टस शीट की छतें गायब हैं। मिट्टी और खपरैल की छत से बने मकान चपटे हो गए हैं। चक्रवात ने बेहरामपुर में एक भी नारियल के पेड़ को नहीं छोड़ा।

80 साल की कमली बेहरा उसी गांव में रहती है।

1 मई से ही बेहरा और गांव में रहने वाले लोगों को पता था कि तूफान उनकी ओर आ रहा है। एहतियातन ये फैसला लिया गया कि 2 मई के शाम तक बुजुर्गों, बच्चों और औरतों को साइक्लोन शेल्टर में शिफ्ट कर दिया जाए।


उस शाम बेहरा गांव के अन्य लोगों के साथ साइक्लोन शेल्टर चली गईं। वह अपने साथ कुछ पके हुए चावल भी लेकर गईं, लेकिन पानी ले जाना भूल गईं। साइक्लोन शेल्टर में पीने के पानी और खाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। कमरे शेल्टर होम के पहली मंजिल पर थे तो शौचालय भूतल पर शेल्टर होम के पीछे।

लोगों ने एक छोटे हॉल में जुटकर एकसाथ रात बिताई, यहां जगह कम थी। स्थानीय लोगों के अनुसार साइक्लोन शेल्टर में 3,000 लोगों ने आश्रय लिया लेकिन क्षमता केवल 300 लोगों की थी। 1 मई को कुछ लोग कटक और खुर्दा शहरों में चले गए और ज्यादातर पुरूष अपने घरों की रखवाली करने लगे।

बेहरामपुर के रहने वाले सुशांत जेना ने कहा, "शेल्टर होम 10 साल से अधिक पुराना है और 2013 में फालिन के दौरान क्षतिग्रस्त हो गया था। इसकी दोबारा मरम्मत नहीं की गई। हमारे पास वहां शरण लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।"

बेहरा ने मई 2 और मई 3 की रात भीगे हुए कपड़ों और कपकपाती ठंड में डर के माहौल में अपनी पूरी रात गुजारी। 3 मई की सुबह फोनी ने तट पर दस्तक दिया। शेल्टर होम के कमरे बारिश के पानी और समुद्री जल से भर गए। सब लोग भीग चुके थे। उनमें से कुछ रो रहे थे। इनमें 13 वर्षीय सोहेल बेहरा के माता-पिता भी शामिल थे, जिन्होंने शेल्टर होम में आश्रय लिया था।

सोहल बताते हैं, "तूफान में तेज हवा के अलावा हम कुछ भी नहीं सुन पा रहे थे। अब मुझे तेज हवा से भी डर लगने लगा है। हमारे पास खाने के लिए केवल चूड़ा, चीनी और बिस्कुट थे, जिस पर हम दो दिन तक जीवित रहे।"

कमली बेहरा बताती हैं कि वह मुट्ठी भर चावल और पानी की घूंट जो उसने दूसरों से मांगी थी पर शेल्टर होम में खुद को बचाने में कामयाब रही। "आश्रय में हर कोई भीगा, डरा हुआ, भूखा और पीने के पानी की कमी से इधर उधर भाग रहा था।


जब वह 4 मई की सुबह घर लौटी, तो उन्होंने अपने मिट्टी के घर को गिरा हुआ पाया। उनके मछुआरे बेटे ने अपनी मछली पकड़ने की नाव और जाल को भी खो दिया था।

छोटे सोहेल के पिता ने अपनी मछली पकड़ने की नाव खो दी थी। सोहेल ने बताया" "बाबा ने अपने हाथ की गाड़ी भी खो दी, जिस पर रोज शाम को चिकन पकौड़े बेचते थे।"

उसके पड़ोस में रहने रिलिमोनी बेहरा का कच्चा मकान भी धूल से अटा पड़ा था। अपने मछुआरे पति और तीन बच्चों के साथ वह खुले में बाहर रहने को मजबूर।

रिलिमोनी बताती हैं, "चिल्का की पानी घुसने से हमारे गांव में पानी भर गया, पानी के साथ गांव में बहुत सारी रेत भी साथ आ गई। मुझे अपने परिवार के लिए खाना बनाने के लिए एक छोटी सा चुल्हा बनाने के लिए मिट्टी खोजने में तीन दिन लग गए। अब भी चूल्हा ठीक से नहीं जल रहा है, लेकिन मैं क्या कर सकती हूं?"

बहरामपुर में रहने वाले लोगों को तत्काल राहत के रूप में राज्य सरकार की ओर से 50 किलोग्राम चावल और 2,000 रुपये प्रति परिवार दिया जा रहा है।

यहां कोई घर नहीं, खाना नहीं है, पीने के लिए साफ पानी भी नहीं है

तकरीबन डेढ़ साल पहले, बहरामपुर के लोगों को पीने के पानी की आपूर्ति के लिए एक ओवरहेड टैंक का निर्माण किया गया था। लेकिन इसे कभी चालू नहीं किया गया। रश्मि टी के मुताबिक, "गांव में 300 से अधिक हैंडपंप हैं और पूरी आबादी अपनी पानी की जरूरतों के लिए हैंडपंप पर ही निर्भर है।"

रश्मि ने बताया, "कुछ हैंडपंपों ने काम करना बंद कर दिया है, जबकि बाकी गंदा, खारा पानी दे रहे हैं। "हमारे पास कोई विकल्प नहीं है इसलिए हम उस पानी को पीने को भी मजबूर हैं।

रिलिमोनी बताती हैं कि वह खाना पकाने और पीने के लिए उपयोग करने से पहले हैंडपंप के पानी को एक पतले सूती कपड़े से छान लेती है। लेकिन यहां भी कोई सुरक्षा नहीं है, वह जानती हैं। खारा पानी पीने की आदत डालना बहुत मुश्किल है।

"बच्चों में पेट की समस्याओं की शिकायत आनी काफी पहले ही शुरू हो गई थी, "रिलिमोनी ने कहा।

रश्मि कहती कि उसके शरीर पर जो खुजली के निशान हैं वह इसलिए है क्योंकि वह पूरे दिन खारे पानी के साथ काम करती है, और उस पानी से नहाती है।

बेहरामपुर जीवन अस्त-व्यस्त है। शाम तक, द्वीप गांव अंधेरे में डूब जाता है, क्योंकि गांव बिजली की आपूर्ति नहीं है।

जग्गूबांध कहते हैं, ''हमारी आजीविका नहीं है और हमारे गांव में बिजली आपूर्ति बहाल करने में दो से तीन महीने और लग सकते हैं। "फ़ोनी ने पहले ही हमें एक आदिम युग में धकेल दिया है।"

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