उजड़ता उत्तराखंड ... आखिर क्यों उत्तराखंड के गाँवों से पलायन कर गए आधे से ज्यादा लोग

बीते एक दशक में उत्तराखंड में पलायन इस कदर बढ़ा है की गाँव के गाँव वीरान हो गये हैं बूढ़ी आँखे अपने बच्चों के इन्तजार में है पर शायद ही अब वो वापस आये ?

Ashwani Kumar DwivediAshwani Kumar Dwivedi   1 Jun 2019 5:56 AM GMT

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उजड़ता उत्तराखंड ... आखिर क्यों उत्तराखंड के गाँवों से पलायन कर गए आधे से ज्यादा लोग

लखनऊ।" बीते एक दशक में उत्तराखंड में पलायन तेजी से बढ़ा है, गाँव के गाँव वीरान हो गये हैं बहुत से गाँवों में सिर्फ वो लोग बचे हैं, जिनके पास कोई विकल्प नहीं है या जो बुजुर्ग हैं और जीते जी अपनी पुश्तैनी देहरी को छोड़ना नही चाहते। कभी पहाड़ के ग्रामीण क्षेत्र की हालत सुधरेगी यहां पर कनेक्टीविटी और इन्फ्रास्ट्रक्चर, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और रोजी-रोटी की तलाश में बाहर गये इन गांवो के ग्रामीण और युवा फिर से घर वापसी करेंगे। इस आस की बदौलत आज भी उत्तराखंड के गांवो में अपने माटी को सर माथे लगाये न्यूनतम सुविधाओं में जीवन यापन करते बुजुर्ग जिन्दा हैं।" ये कहना है उत्तराखंंड के टिहरी जिले के राजेन्द्र नौटियाल का जो की क्यार्दा ग्राम पंचायत के निवासी है और काम की वजह से गाँव छोड़कर टिहरी के शहरी क्षेत्र में बस गये हैं।

पलायन आयोग की साल 2018 की रिपोर्ट के अनुसार पिछले सात वर्षों में उत्तराखंड के सात सौ गाँव वीरान हो गये हैं। जिनमें पहाड़ी क्षेत्र के जिलों में पलायन का प्रतिशंत सबसे अधिक हैं।

राजेन्द्र आगे बताते हैं, "ऐसा नहीं है कि गाँव और पहाड़ की खूबसूरत वादियों को छोड़कर गये युवा बाहर बहुत खुश हैं, जब भी वो वापस गाँव आते हैं या जो नहीं पहुंच पाते उनकी बातों में अपनों से बात करते हुए चाहे वो सोशल मीडिया हो या गाँव की चौपाल बात-बात में गाँव छूटने का दर्द छलक आता है। पलायन यहां के लोग विलासिता के लिए नहीं कर रहे है बल्कि जिन्दगी की जरुरी जरूरतों को पूरा करने के लिए करना पड़ रहा हैं।"

पलायन की वजह से उत्तराखंड में बंद हो रहे है सरकारी स्कूल

राजेन्द्र बताते हैं, "उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल, पौढ़ी गढ़वाल, चमोली और उत्तरकाशी से पलायन सबसे ज्यादा हुए हैं पलायन की वजह से पूरे उत्तराखंड में अब तक करीब 250 सरकारी स्कूल बंद हो चुके हैं, क्योकि सरकार का ये नियम है कि जिस गाँव के विद्यालय में छात्रों की संख्या 10 से कम है, उन्हें बंद किया जायेगा।"


चिंताजनक है पलायन आयोग की रिपोर्ट

पलायन आयोग के उपाध्यक्ष एस एस नेगी द्वारा उत्तर खंड सरकार को 7950 गांवो के सर्वेक्षण के आधार पर भेजी गयी रिपोर्ट में यह बताया गया की उत्तराखंड के सभी जिलों से पलायन हो रहा है लेकिन पहाड़ी क्षेत्र में आने वाले जिलों में पलायन का प्रतिशत अधिक और चिंताजनक हैं । और इन जिलों में पलायन का प्रतिशत 60 प्रतिशत तक पहुच गया हैं । पलायन के कारणों में आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 50 फीसदी लोगों ने आजीविका के चलते जबकि 73 फीसदी लोगों ने बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य के चलते उत्तराखंड के ही शहरी क्षेत्र या अन्य राज्यों में मजबूरी में पलायन किया हैं।

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उत्तराखंड के उत्तरकाशी के जिलें के नाथेर गाँव जयदेव राणा बताते हैं, "आज भी गाँव जाने के लिए कोई सड़क नही है रोज पांच किलोमीटर पहाड़ चढ़ना-उतरना पड़ता है, पहाड़ी गांवो में पानी की भी बहुत ज्यादा दिक्कत आती है घोड़े-खच्चरों के माध्यम से पानी लाया जाता है या अब जिन गांवो तक सड़कें बन गयी है वहां पानी के टैंकर भी पहुच जाते हैं। पलायन के मुद्दे पर जयदेव राणा बताते है "रोजगार के लिए पढ़ा-लिखा अधिकांश वर्ग गाँव से बाहर रहकर प्राइवेट नौकरी कर रहे है ये युवा या तो उत्तराखंड के शहरी क्षेत्र या उत्तराखंड के बाहर जहाँ काम मिल जाये काम की तलाश में निकल जाते है और कभी साल-छ: महीने में गाँव पहुच पाते हैं। ऐसे करके अगर देखा जाए तो उत्तराखंड के गांवो से पचास से साठ फीसदी लोग बेहतर भविष्य की तलाश में पलायन कर चुके हैं।


क्या है तेजी से बढ़ते पलायन का कारण

उत्तराखंड राज्य के चम्पावत जिलें के राजकीय महाविद्यालय देवीधुरा के प्राचार्य ए एस उनियाल का कहना है, "पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे बड़ी समस्या पानी की हैं पहले पर्वतीय किसान बारिश का पानी पहाड़ पर रोकने के लिए "खाला" बनाते थे, जिससे जंगली पशुओं, पालतू पशुओं को पीने का पानी मिलने के साथ-साथ, वो पानी फसल की सिचाई और पेयजल के भी काम आ जाता था। लेकिन किसान सरकार के सहारे होता चला गया और पुश्तों से पहाड़ में रहने वाली जो ज्ञान अथवा परम्परा थी उनसे दूर हो गया। साथ ही विकास के नाम पर जो काम हुए भी उससे प्रकृति को काफी नुकसान हुआ हैं।

ए एस उनियाल आगे बताते हैं, "दूसरा कारण यहाँ रोजगार की कमी का होना है,साथ ही पर्वतीय क्षेत्रों में बाहर से जैसे कानपूर ,लखनऊ ,हरिद्वार से लोग गाड़ियों में भरकर लंगूर और बंदरों को भारी मात्रा में यहाँ लाकर छोड़ रहे है, जंगलो में वैसे भी फलदार वृक्ष बहुत कम बचे है ये जंगली बंदर, लंगूर और सूअर भी भारी संख्या में होने के चलते किसानों की फसल बर्बाद कर रहे हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए उत्तराखंड के पर्वतीय इलाको के लोगों को काफी मशक्कत करनी पड़ती हैं जिसके चलते भी लोग पलायन करने पर मजबूर हैं।"


एक नजर में उत्तराखंड ..

साल 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर बने राज्य का नाम उत्तरांचल था जो की बाद में सरकार द्वारा बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया। अलग राज्य के गठन के पीछे की मंशा विकास की गति को तेज करने की थी । उत्तराखंड राज्य दो मंडल "गढ़वाल " और कुमायु में बटा हुआ है जिसमें कुल 13 जिलें चमोली ,टिहरी गढ़वाल, उत्तरकाशी, उधम सिंह नगर ,अल्मोड़ा ,बागेश्वेर चम्पावत ,देहरादून ,नैनीताल ,पौढ़ी गढ़वाल ,रुद्रप्रयाग हैं। साल 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड की जनसँख्या एक करोड़ छियासी लाख दो सौ बानवे हैं

"देवभूमि "उत्तराखंड में है रोजगार की अपार संभावनाए

उत्तराखंड को देवभूमि भी कहा जाता है। भारत के धार्मिक, अध्यात्मिक और एतिहासिक दृष्टिकोण से उत्तराखंड काफी महत्वपूर्ण है, उत्तराखंड में भारतीय आस्था के सबसे बड़े प्रतीक "चारधाम" जिनमे बद्रीनाथ धाम,.केदारनाथ धाम, गंगोत्री और यमुनोत्री है। वर्तमान में यहाँ वाराही देवी धाम भी विकसित किया जा रहा है जिसके बाद उत्तराखंड में धामों की संख्या चार से बढ़कर पांच हो जाएगी।

चम्पावत जिलें के पाटी ब्लाक के उप ब्लाक प्रमुख हयात सिंह विष्ट बताते हैं "उत्तराखंड में पर्यटन के क्षेत्र में अपार संभावनाए हैं यहाँ पर धार्मिक पर्यटन स्थल होने के साथ-साथ बहुत सारे आश्रम हैं और एडवेंचर के लिए तो बहुत सारे स्थान है साथ ही यहाँ पर बाहर से आने वाले पर्यटकों "गाँव विश्राम "की सुविधा भी काटेज के माध्यम से दी जा सकती है बहुत से पर्यटकों की इच्छा रहती है की एक दिन वो किसी पहाड़ी गाँव में गुजारे और इससे स्थानीय लोगों को अच्छा रोजगार भी मिल जायेगा।

वो आगे बताते है "हमारे यहाँ पर नीबू,माल्टा ,नाशपाती जैसे फसलों की पैदावार बहुत अधिक है लेकिन सही बाजार नही मिल पाता अगर इन क्षेत्रो में आचार ,जैम,जूस आदि के औद्योगिक इकाईया स्थापित कर दी जाए तो यहाँ के ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति में जरुर सुधार आ जायेगा। साथ ही यहाँ के किसानो को अगर पानी की सुविधा मिल जाये तो फलो ,सब्जियों के लिए यहा का वातावरण बेहद अनुकूल है। सरकार के साथ साथ अगर किसान भी जागरूक हो जाए तो उत्तराखंड के पर्वतीय गांवो को उजड़ने से बचाया जा सकता हैं।

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