जब पशुपालक खुद बन जाते हैं डॉक्टर

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जब पशुपालक खुद बन जाते हैं डॉक्टरबंगलुरु, पशुपालक, वसंती हरिप्रकाश, गाँव कनेक्शन

बंगलुरु। ननजप्पा (46 वर्ष), अपने छोटे से खेत पर बैठकर अपनी चार साल की हॉलेस्टाइन फीजि़यन गाय गौरी की देखरेख कर रहा था। गौरी के थनों में सूजन है वो तीन दिनों से दूध भी नहीं दे रही। ''मैं मंदिर के किनारे वाली दवा की दुकान तक जा रहा हूँ, मास्टीवेक की एक खुराक से जल्दी ही सही हो जाएगी।"

बंगलुरु से 27 किमी दूर रजनाकुंते में सात गायों के मालिक ननजप्पा कोई पशुचिकित्सक नहीं हैं। पढ़ाई भी बस हाईस्कूल तक ही है। ''पशुचिकित्सक का कौन इंतज़ार करेगा? अगर वो आते हैं तो वो भी यही दवाई देंगे," दुकान की तरफ जाते हुए वे बताते हैं।

इंसानों व पशुओं की दवाइयां, सिरप और एंटीबायोटिक इंजेक्शन से लदे दवाईघर से वो बिना किसी सवाल-जवाब के मास्टीवेक खरीदते हैं। दवाईघर पर खड़ी भीड़ को देखने से ज़ाहिर हो जाता है कि यहां काउंटर पर बिना किसी डॉक्टरी सलाह या पर्चे के आसानी से अपने पशु का स्वास्थ्य खरीदा जा सकता है।

पशुओं पर बिना रोक-टोक धड़ल्ले से हो रहे एंटीबायोटिक, हार्मोन और अन्य दवाओं का प्रयोग भारत के पशुधन के लिए एक ऐसा खतरा है, जिसे अभी तक देश पहचान नहीं पाया है। ''पशुओं पर एंटीबायोटिक्स के इस्तेमाल से कई बार उनके दूध या अन्य डेयरी उत्पादों में इसके अंश बचे रह जाते हैं। जब इंसान दूध को पीते हैं तो उनमें एंटी-माइक्रोब्स के प्रति प्रतिरोध यानि एएमआर की समस्या विकसित हो सकती है। तात्पर्य यह कि शरीर में उपस्थित बैक्टीरिया पर एंटीबायोटिक का असर होना कम या बंद हो जाता है।" डॉ. एमएनबी नायर ने कहा। वे बंगलुरु की ट्रांस डिसिप्लिनरी यूनिवर्सिटी के सेवामुक्त प्रोफेसर हैं।

एक अच्छा पशुचिकित्सक, पशु की बहुत बारीकी से जांचने के बाद ही एंटीबायोटिक दवा देने का सुझाव देता है। सिप्रोफ्लोक्सिन का उदाहरण दिया जा सकता है, इसका इस्तेमाल इंसानों में बैक्टीरिया के संक्रमण से लडऩे के लिए किया जाता है। बच्चे को दूध पिलाने वाली मांओं और 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चे को इस दवाई से दूर रहने की सलाह दी जाती है, क्योंकि मां के दूध के ज़रिए यह एंटीबायोटिक बच्चे के शरीर में जाकर नुकसान पहुंचा सकता है। इस दवाई का इस्तेमाल गायों के इलाज में भी किया जाता है। बिना डॉक्टरी सलाह के ये दवाई दौरे, घुमनी, भूख में कमी, आंख और त्वचा के पीले पडऩे या बुखार का कारण बन सकती है।

एंटीबायोटिक जैसी दवाइयां कैसे इतनी आसानी से किसानों के हाथों में इस्तेमाल के लिए पहुंच जाती हैं? पहला कारण, बिना किसी निगरानी-नियम के दवाओं की बिक्री। अगर सबसे बड़े दुग्ध उत्पादक देशों में से एक नीदरलैण्ड का उदाहरण लें तो वहां सरकार दवाइयों के इस्तेमाल पर कड़ी निगरानी रखती है, पशुचिकित्सक ही पशुओं को दवाइयां देता है, दवाई देने की तिथि व जानकारी दर्ज करता है, निगरानी में रखे गए पशु और उसके मामले पर नज़र बनाए रखता है।

''आदर्श स्थिति में तो जिस भी जानवर को कुछ खास तरह की एंटीबायोटिक्स दी गई हों, उनका मांस और दूध अगले 168 घण्टों तक इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। पर पशुपालक इसे मानेगा?" डॉ. नायर ने सवाल उठाया।

डॉ. नायर के सहयोगी, असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. एसके कुमार बताते हैं, ''किसान समझता है किसी भी दवा का इंजेक्शन गाय के थन में दिया जाता है, तो वे खुद भी इंजेक्शन लगाना सीख लेते हैं।"

बिना जानकारी दिए गए इंजेक्शन के गाय के खून में घुलने से होने वाले दुष्प्रभावों से अंजान किसान, पशुओं का जीवन खतरे में डालते हैं। सरकारी पशुधन विभाग के पशुमित्र या निरीक्षक भी अपना काम ठीक से नहीं करते। साथ ही एंटीबायोटिक उद्योग ऊपरी मुनाफे और एशोआराम का बहुत बड़ा मकडज़ाल है। बड़ी फार्मा कंपनियां इन अधिकारियों को अपनी दवाई पशुपालकों को सुझाने पर फायदे पहुंचाती हैं। 

''पशुमित्र दवाई देने को अधिकृत नहीं होते, पर वे पशुपालकों से ज़्यादा घुले-मिले होते हैं, पशुपालक अपनी सारी समस्याएं इन्हीं पशुमित्रों या निरीक्षकों को बताते हैं। कर्नाटक में 12वीं तक पढ़े लोग, पशुमित्र बनने के लिए आवेदन दे सकते हैं, ट्रेनिंग पाकर सरकारी चिकित्सालयों में नौकरी भी पा जाते हैं। मैंने बंगलुरु के पास ही ऐसे पशुमित्र देखे हैं जिन्होंने कुछ साल फील्ड पर काम करने के बाद खुद का क्लिनिक खोल लिया और खुद को पशु चिकित्सक कहने लगे!" डॉ. नायर ने कहा।

केरला में 80 फीसदी सरकारी पशु चिकित्सक महिलाएं हैं। डॉ. नायर बताते हैं, ''उनके काम का समय तीन बजे तक है, उसके बाद पशुपालक कहां जाए? ऐसे में पशुपालक, पशुमित्र-कम्पाउंडर पर आश्रित होते हैं।" कर्नाटक दुग्ध संघ एक अच्छा उदाहरण है। केएमएफ अपनी हर तालुका में संचालित राज्य दुग्ध उत्पादन को-ऑपरेटिव सोसाइटी को पशुचिकित्सक और कृत्रिम गर्भाधान कार्यकर्ता उपलब्ध कराता है। रजनाकुंते के पास ही स्थित कार्यालय में एक पशुचिकित्सक है। वे बताते हैं, ''एक पशुपालक जिसकी गाय बीमार या गर्भधारण की अवस्था में है वो अपने पास की सोसाइटी में जाकर पंजीकरण करा सकता है। हर सुबह जब कृत्रिम गर्भाधान कार्यकर्ता गाँवों में भ्रमण को निकलता है तो वो सामान्य बीमारी से पीडि़त पशुओं को भी देख लेता है। ज़्यादा बीमार है तो पशुचिकित्सक पशु को देखता है।

ट्रांस डिसिप्लिनरी यूनिवर्सिटी के पास दक्षिण भारत में थन सूजन, थन-गुनिया, पेट फूलना और पशुओं की डायरिया जैसी 15 अलग तरह की समस्याओं से हर्बल और प्राकृतिक उपचारों से निपटने के लिए 154 पशुचिकित्सक और 2700 पशुपालक हैं।

 

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