माटी के कलाकारों की दीपावली न हो जाए सूनी

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माटी के कलाकारों की दीपावली न हो जाए सूनीदीपावली के दो महीने पहले से सभी जुट जाते हैं मेहनत करने में।

अरविंद सिंह परमार (कम्यूनिटी रिपोर्टर)

ललितपुर। ग्रामीण क्षेत्रों में कुम्हार समुदाय का मुख्य व्यवसाय मिट्टी के दीये, घड़े और सुराही बनाने का था। मगर बाजारीकरण में इनके दृारा निर्मित दीयों को तवज्जो नहीं दिया जाता, क्योंकि बाजार में डिजाइनर दीए आदि लोगों की पहली पसंद बने हुए हैं। ऐसे में दीपावली से अहम आस लगाए माटी के ये कलाकार लोगों की इस बेरुखी से मायूस हो रहे हैं। उन्हें इस बार फिर दीपावली से खास उम्मीदें लगी हुई हैं।

रंग-बिरंगे माटी के बर्तन एक समय में सभी की थे पहली पसंद।

ग्रामीण क्षेत्रों में कुम्हार के चाक बहुत कम ही मिलेंगे। चाक के माध्यम से मिट्टी के बर्तन व दीये का चलन कुछ वर्ष पहले जोरों पर था लेकिन अब नहीं। चार पैसे कमा लेता था। दीपावली आने पर पूरा परिवार काम में लग जाया करता था क्योंकि जितना ज्यादा काम कर लेते थे, उतनी ज्यादा बिक्री हो जाती थी। मजे से गुजारा हो सके, इतना रुपया भी कमा लेते थे मगर अब नहीं। ललितपुर शहर के मुहल्ला चौबयाना में चाक पर कठोर हाथों से माटी की कोमल चीजें बनाने वाले विजय कुम्हार (उम्र 40 वर्ष) कुछ ऐसा ही बयां करते हैं।

कुम्हारों के बच्चे अब इस पेशे से रहना चाहते हैं दूर।

वे आगे बताते हैं, "मेरे दादा परदादा भी यही काम करते थे। मिट्टी के बर्तन बनाना हमारा पुस्तैनी काम है। उन्हीं से हमने ये कला सीखी है। जब से डिजाइनर दीये बाजार में आए हैं तबसे बिक्री कम होने लगी है। ऐसा नहीं है कि वे ज्यादा मजबूत होते हैं मगर लोग उन्हें ही ज्यादा पसंद करते हैं। पहले के मुकाबले वर्तमान में देशी दीयों को खरीदने की ललक कम दिखती है। मुझे चिंता है कि ये कारोबार ज्यादा वर्षों तक नहीं चलेगा।"

बर्तनों को रंगने का काम करती हैं घर की महिलाएं।

छह लोगों का परिवार है। सारा खर्च पुस्तैनी कारोबार पर ही चलता है। मिट्टी के दीये, खिलौने, मटका, सुराही आदि चाक पर ही बनाते हैं। दीपावली आने के दो माह पहले से काम शुरू कर दिया जाता है। बनाने के लिए मिट्टी, पकाने के लिए ईधन (गोबर के कन्डे, लकड़ी, भूसा) सबकुछ मोल खरीदना पड़ता है। मगर कठिन मेहनत के बाद भी उतना मुनाफा नहीं हो पाता है जितना होना चाहिए। दिनोँदिन हमारे काम को ग्रहण लग रहा है। अगर औसतन खर्चा जोड़ज्ञ जाए तो 200 रुपया मजदूरी भी नहीं मिल पाती। यह कहना है, चौबयाना ललितपुर में रहने वाले पप्पू कुम्हार (42 वर्ष) का।

बच्चों का भी मिलता है पूरा योगदान।

पंचम कुम्हार (56 वर्ष) बताते हैं, "घर कि महिलाएं मिट्टी के खिलौने रंगने का काम करती हैं। इससे दो पैसा ज्यादा मिल जाता है। सरकार ने हम लोगों को बढ़ावा नहीं दिया व सरकार विदेशों से माल मंगवा रही है। डर लगता है कहीं हमारी आने वाली पीढ़ी के पहले पुस्तैनी काम खत्म हो जायेगा।"

This article has been made possible because of financial support from Independent and Public-Spirited Media Foundation (www.ipsmf.org).

    

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