दिल्ली की गलियों में बच्चों को उम्मीद की किरण दिखा रहे हैं ‘बैक पैक हीरोज’

दिल्ली की गलियों में आजकल आपको बच्चों को पढ़ाते, उनके साथ खेलते कुछ बच्चे नज़र आ सकते हैं । ये हैं ‘बैक पैक हीरोज’, जिन्होंने फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों को पढ़ाने का बीड़ा उठाया है।
Delhi Slums

सुबह के 11 बजे, सूरज अपनी पूरी तपिश के साथ सिर के ऊपर चढ़ रहा है, लेकिन इस ताप को पेड़ों की छाया काफी हद तक ठंडा कर देती है। इस छाया के नीचे कुछ बच्चे दिल्ली के नेहरू प्लेस बस स्टॉप के पास फुटपाथ पर रहने वाले स्ट्रीट चिल्ड्रेन्स के पीछे भागते हुए दिखते हैं। एक लड़की भी अपनी गोद में अपने से छोटी उम्र की बच्ची को लाती हुई दिखती है। कुछ बच्चे जो खुद को संभालने की उम्र में नहीं हैं, वे भी अपनी गोद में अपनी छोटी बहन या भाई को लेकर फुटपाथ पर बिछाई गई दरी पर खेल रहे हैं। आम दिनों की तरह बस स्टॉप पर केवल गाड़ियों की शोर-गुल नहीं बल्कि, बच्चों की आवाजें भी सुनाई दे रही हैं।

बस स्टॉप पर कुछ देर ही में गाड़ियों की हॉर्न की आवाजें एबीसीडी…. वन, टू, थ्री, फोर … की आवाजों से दब जाती हैं। अलग-अलग समूहों में ये बच्चे इन स्ट्रीट चिल्ड्रेन्स को क…ख…ग… भी पहचानना सीखा रही हैं, जिससे अपने रास्तों की पहचान कर सकें, जो स्ट्रीट पर भीख माँगते या गुब्बारे बेचते हुए खोते जा रहे हैं।

इन बच्चों में एक 13 साल का सूरज है, जो अपना नाम ‘एस… यू… आर… ए… जे… (सूरज) बताता है। कहाँ रहते हो के सवाल पर वो तपाक से जवाब देता है, “यहीं, रेड लाइट पर, रात में भी और जब बारिश होती है, तो तिरपाल तान (लगा) लेते हैं।’

इस अभियान की शुरुआत मई, 2023 में महाराष्ट्र के पुणे में की गई थी। फोटो: हेमंत कुमार पांडेय

इस अभियान की शुरुआत मई, 2023 में महाराष्ट्र के पुणे में की गई थी। फोटो: हेमंत कुमार पांडेय

सूरज आगे बताता है कि उसका दिल्ली के सरकारी स्कूल में एडमिशन हुआ था, लेकिन कुछ दिन नहीं गया तो उसका नाम काट दिया गया। उसके बाद वह दोबारा स्कूल नहीं गया। लेकिन अब यहाँ दीदी- भैया आते हैं तो पढ़ते हैं।

इस अनोखे पहल ‘बैग पैक हीरोज’ अभियान की शुरुआत कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन के बाल मित्र मंडल (बीएमएम) के बच्चों ने की है। इसे सबसे पहले यह अभियान मई, 2023 में महाराष्ट्र के पुणे में चलाया गया था। अब दिल्ली में भी इसकी शुरुआत की गई है। बीएमएम, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी की एक पहल है, जो शहरी स्लम इलाकों में बाल अधिकारों पर काम करती है।

मानवाधिकार पर गठित संयुक्त राष्ट्र आयोग की ओर से साल 1994 में स्ट्रीट चिल्ड्रेन्स की तय की गई परिभाषा की मानें तो स्ट्रीट ही जिनका घर है और आजीविका का साधन भी।

इन बच्चों के साथ मौजूद बीएमएम के प्रोजेक्ट ऑफिसर लखन सिंह गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “दिल्ली में यह अभियान चार जगहों- नेहरू प्लेस बस स्टॉप, मोती बाग मेट्रो स्टेशन, डीडीए फ्लैट्स महिपालपुर बाइपास और खजान सिंह पार्क के पास शुरू किया गया है। इन चारों जगहों पर करीब 150 स्ट्रीट चिल्ड्रेन को पढ़ाया जा रहा है। ये बच्चे अपनी गर्मी की छुट्टियों में सोमवार से शुक्रवार तक दो घंटे पढ़ाते हैं।”

कुछ बड़े बच्चों ने अपनी गर्मी की छुट्टियों में सड़क और झुग्गियों में रहने वाले बच्चों की पढ‍़ाई की ज़िम्मेदारी अपने नन्हे से कंधों पर ले ली हैं। फोटो: कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन

कुछ बड़े बच्चों ने अपनी गर्मी की छुट्टियों में सड़क और झुग्गियों में रहने वाले बच्चों की पढ‍़ाई की ज़िम्मेदारी अपने नन्हे से कंधों पर ले ली हैं। फोटो: कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन

लखन सिंह आगे कहते हैं, “इन बच्चों की उम्र तीन साल से 14 साल के बीच की है। इन बच्चों को ‘स्ट्रीट क्लास’ में पढ़ाई के साथ तरह- तरह दूसरी गतिविधियाँ जैसे ,पेंटिंग, खेल, म्यूजिक भी सिखाई जाती है।”

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में क़रीब 18 लाख बेघर लोग हैं। इनमें से आधे से अधिक यानी 9.42 लाख शहरी क्षेत्र में रहते हैं।. कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन ने कोविड काल ( जून-जुलाई 2021) में दिल्ली के स्ट्रीट चिल्ड्रेन्स पर सर्वे किया था। इसके तहत 50 जगहों पर 4182 बच्चों के बीच सर्वे किया गया था। इनमें से 29 फीसदी बच्चों ने बताया था कि वे कभी स्कूल नहीं गए। वहीं, 75 फीसदी बच्चों ने कहा कि कोविड महामारी के बाद वे स्कूल नहीं गए।

बीएमएम के बच्चे स्ट्रीट चिल्ड्रेन्स को व्यवस्थित ढँग से बैठाकर उनके बीच कॉपियाँ और कलम बाँटकर पढ़ाने का काम कर रहे हैं। उन्होंने इस अभियान को ‘बैग पैक हीरोज’ का नाम दिया है। इस अभियान की शुरुआत मई, 2023 में महाराष्ट्र के पुणे में की गई थी।

वहीं, जो बच्चे स्कूल से बाहर हैं या किन्हीं कारणों से दाखिला नहीं हो रहा है, उनका भी एडमिशन करवाया जाता है। इन बच्चों में एक 15 साल के रणजीत कुमार भी हैं । मूल रूप से बिहार के रहने वाले रणजीत अभी ओखला सरकारी स्कूल में 10वीं के छात्र हैं। रणजीत बताते हैं, “तीन साल पहले मैं बिहार गया था, उसके एक साल बाद जब वापस दिल्ली आया तो फिर स्कूल में एडमिशन नहीं हो रहा था। तब बीएमएम के भैया ने स्कूल में मेरा एडमिशन करवाया।’ रणजीत बड़े होकर एक बिजनेसमैन बनना चाहते हैं।

बीएमएम, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी की एक पहल है, जो शहरी स्लम इलाकों में बाल अधिकारों पर काम करती है। फोटो: कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन

बीएमएम, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी की एक पहल है, जो शहरी स्लम इलाकों में बाल अधिकारों पर काम करती है। फोटो: कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन

इनमें 13 साल की निशा भी हैं। वह खुद आठवीं में पढ़ाई कर रही हैं, लेकिन अपनी गर्मी की छुट्टियों में इन बच्चों की भी ज़िम्मेदारी अपने नन्हे से कंधों पर ले ली हैं। वह इस बस स्टॉप पर पढ़ाने वाले बच्चों की लीडर हैं और डेटा कलेक्शन का काम करती हैं।

निशा गाँव कनेक्शन से बताती हैं, “हम बच्चों ने सोचा कि गर्मी की छुट्टियों में उन बच्चों के लिए काम किया जाए, जो रेड लाइट पर भीख मांगते हैं। शिक्षा से बड़ा और कोई काम नहीं होता, तो हमने सोचा कि क्यों न उन्हें पढ़ाया जाए।” वे आगे बताती हैं कि हम बच्चों की जानकारियों को एमएलए और एमपी के साथ शेयर करते हैं और उनसे कहते हैं कि इन बच्चों की मदद कीजिए।

दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग (डीसीपीसीआर) और कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन सहित अन्य संगठनों की ओर से समय-समय पर किए सर्वेक्षणों की मानें तो दिल्ली में स्ट्रीट चिल्ड्रेन की कुल संख्या करीब 60,000 है। इनमें ऐसे बच्चों की भी बड़ी संख्या है, जिन्होंने दिल्ली की सड़कों पर ही जन्म लिया है। इसके अलावा यह बात भी सामने आई है कि इन बच्चों में 7-14 साल की उम्र के बच्चों की हिस्सेदारी 61 फ़ीसदी है। वहीं, कई बच्चों के माता-पिता ने भी अपनी पूरी ज़िंदगी इन्हीं फुटपाथों पर गुजारी है।

इन्हीं में से एक 50 साल की गीता देवी हैं, जो कचरा इकट्ठा करने का काम करती हैं। वे अपना घर तो राजस्थान बताती हैं। गीता कहती हैं, “हमारा तो जन्म ही दिल्ली में हुआ है, हमारे बच्चे तो यहीं पैदा होते हैं…और यहीं मर जाते हैं।” इस पर उनकी बहू कारी कहती हैं, “पहले हमलोगों के पास झुग्गी थी, उसमें हम रहते थे। लेकिन पुलिस वालों ने उसे तोड़ दिया।” वे आगे बताती हैं कि उनके परिवार में पाँच बच्चे हैं और सभी बीएमएम के बच्चों के पास पढ़ने के लिए जाते हैं।”

‘बैग पैक हीरोज’ अभियान को आम लोगों का भी साथ मिल रहा है। फोटो: कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन

‘बैग पैक हीरोज’ अभियान को आम लोगों का भी साथ मिल रहा है। फोटो: कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन

कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउन्डेशन (केएससीएफ) के कार्यकारी निदेशक (कार्यक्रम) राकेश सेंगर गाँव कनेक्शन से कहते हैं, “हमारी यह पहल हाशिये के बच्चों के लिए न केवल एक प्रेरक के रूप में काम करेगी बल्कि, यह उम्मीद है कि उन्हें स्कूल तक पहुँचाने का रास्ता भी तैयार करेगी।”

इन पढ़ाने वालों में 11वीं में पढ़ने वाली अंजलि भी हैं। वह बताती हैं, ‘हम बच्चों से पूछते हैं कि उन्हें क्या नहीं आता है, फिर उनकी ज़रूरत के हिसाब से सीखाते हैं। कुछ बच्चों के माँ-बाप नहीं हैं, कुछ बच्चे पढ़ना चाहते हैं, लेकिन उनके मॉं-बाप नहीं पढ़ाते। कुछ बच्चों के माँ -बाप चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़ें, लेकिन बच्चे नहीं पढ़ना चाहते हैं।”

‘बैग पैक हीरोज’ अभियान को आम लोगों का भी साथ मिल रहा है। 66 साल के सेवानिवृत्त शिक्षक कैलाश चंद्र सैनी राजस्थान के दौसा से हैं। वे बाल मित्र मंडल के बच्चों के साथ इन बच्चों के साथ पढ़ाने में शामिल हो जाते हैं। कैलाश चंद्र गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “मैं दिल्ली किसी काम से आया हुआ हूँ। इन बच्चों के साथ तो मुझे बहुत अच्छा लगा। ऐसा लगा…जैसे मैं अपने पुराने दिनों में वापस लौट गया हूँ।”

बीएमएम के बच्चे स्ट्रीट चिल्ड्रेन्स को व्यवस्थित ढँग से बैठाकर उनके बीच कॉपियाँ और कलम बाँटकर पढ़ाने का काम कर रहे हैं। फोटो: हेमंत कुमार पांडेय

बीएमएम के बच्चे स्ट्रीट चिल्ड्रेन्स को व्यवस्थित ढँग से बैठाकर उनके बीच कॉपियाँ और कलम बाँटकर पढ़ाने का काम कर रहे हैं। फोटो: हेमंत कुमार पांडेय

“ये गरीब बच्चे हैं, पैसे वाले बच्चे तो अच्छे स्कूलों में पढ़ते रहते हैं, हमारी आत्मा गरीब बच्चों के साथ है। हम चाहते हैं कि वे अधिक से अधिक पढ़ें, जिससे वे सपने देख सकें। बहुत सारे बच्चे ऐसे हैं, जो सपनों के बारे में सोच भी नहीं सकते, “उन्होंने आगे बताया।

10 साल की निशु भी उन्हीं बच्चों में से एक है। जब हमने उससे पूछा कि बड़ी होकर क्या बनना है तो उसने अपना मुँह फेरकर चुप्पी साध ली। उसके पापा मज़दूरी करते हैं और माँ ट्रैफिक सिग्नल्स पर गुब्बारा बेचती हैं। कुछ देर बाद निशु ने कहा, “‘… कुछ नहीं सोचा है।” इतना कहकर फिर वह चुप्पी साध लेती हैं।

ये बच्चे न केवल सपने देख सकें, बल्कि बच्चों के सपने यूँ ही गुम न हो जाएँ, इसके लिए बाल मित्र मंडल की निशा कहती हैं, “हम चाहते हैं कि गर्मी की छुट्टी खत्म भी हो जाए तो भी हम छुट्टी के दिनों में आकर इनसे मिलकर इनकी पढ़ाई को आगे बढ़ा सकें, जिससे ये अपने सपने पूरे कर सकें।”

देश में हज़ारों स्ट्रीट चिल्ड्रेन्स के सपनों का पूरा होना, केवल उनके भविष्य के लिए नहीं, बल्कि एक नए और बेहतर भारत के निर्माण के लिए भी ज़रूरी है। और इसको साकार करने में ‘बाल मित्र मंडल (बीएमएम)’ अपना छोटा सा ही सही, लेकिन महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है।  

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