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इस स्कूल से निकले छात्र क्यों कह रहे हैं मेरे गुरु जी का जवाब नहीं है

भोपाल जैसे शहर में रहने वाले डॉ यशपाल सिंह की नियुक्ति जब साल 1987 में आदिवासी बच्चों के एक आवासीय विद्यालय में हुई तब संसाधनों का काफी आभाव था। लेकिन डॉ यशपाल ने हिम्मत नहीं हारी, उन बच्चों के बीच रहते हुए ही उन्हें बहुत कुछ सीखा दिया। राष्ट्रपति ने हालही में उन्हें राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित किया।
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सुनील मंडावी एक आईटी कंपनी में अच्छे पद पर काम कर रहे हैं, लेकिन आदिवासी समुदाय के सुनील के लिए यहाँ तक पहुँचना इतना आसान नहीं था, क्योंकि वो अपने परिवार के पहले सदस्य थे, जिसने किसी स्कूल में कदम रखा था। इस स्कूल के मास्टर डॉ यशपाल सिंह से मिली सीख को वो अपनी सफलता की वजह मानते हैं।

36 साल के सुनील गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “साल 2003 में हम गवर्नमेंट एक्सीलेंस हॉस्टल बैतूल में थे तो वहाँ पर यशपाल सर हमारे वार्डन थे। हम पहले बैच के छात्र थे, सर के साथ ही हम रहते थे। दिन की शुरुआत योग के साथ करते और वो हमें गणित भी पढ़ाते। आज हम जो भी हैं उसमें सर का ही हाथ है आज भी हम सर के साथ जुड़े हुए हैं।”

सुनील अकेले नहीं हैं, जिनकी ज़िदंगी यशपाल सिंह की वजह से बदली है, 20 साल वो अपने परिवार से दूर रहे, लेकिन उन्होंने कई सारे आदिवासी बच्चों को राह दिखाई है।

यशपाल सिंह गाँव कनेक्शन से अपने सफर के बारे में कहते हैं, “साल 1987 में मेरी ज्वाइनिंग ट्राइबल वेलफेयर डिपार्टमेंट में हुई जहाँ हमें आदिवासी बच्चों को पढ़ाने के साथ ही उनकी सारी ज़िम्मेदारी मुझे देखनी होती थी।”

वो आगे बताते हैं, “वो सभी बच्चे पहली पीढ़ी के थे, जिन्हें पढ़ाना आसान तो नहीं था। लेकिन मेरी मुश्किलें भी कम न थीं। मैं हमेशा से भोपाल में रहता था। गाँव में रहना आसान नहीं था, वहाँ बिजली पानी जैसे संसाधन नहीं थे। दूर गाँव में रहना होता, जहाँ लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाता। लेकिन मैंने इन सब को एक चैलेंज की तरह लिया।

ऐसा नहीं था कि शुरू से यशपाल शिक्षक बनना चाहते थे, उनका चयन साइंटिस्ट के रूप में भी हुआ था, लेकिन जब आदिवासी बच्चों को पढ़ाने का मौका मिला तो उन्होंने शिक्षक बनना चुना। वो कहते हैं, “मेरे पढ़ाए हुए बहुत से बच्चे आज आईआईटी और मेडिकल्स में हैं, ये मेरे लिए एक सुखद एहसास है।”

आज स्कूलों में बहुत सारी सुविधाएँ हैं, लेकिन तब इतना आसान नहीं था। उस समय चाक और ब्लैकबोर्ड के अलावा कुछ नहीं था।

यशपाल सिंह बताते हैं, “पहले बच्चे पढ़ाई के लिए रेगुलर नहीं आते थे, इसलिए हमने सोचा कि उन्हें घर जैसा माहौल देना चाहिए। इसलिए मैंने वहाँ बहुत सारे पेड़ लगाए और उन्हीं को इस मुहिम से जोड़ा, बच्चों का ड्रॉपआउट तो कम हुआ ही स्कूल का कैंपस भी अच्छा तैयार हो गया।”

पढ़ाई के साथ उनके बच्चे खेलकूद में भी आगे हैं। यशपाल कहते हैं, “मैं हमेशा बच्चों को स्पोर्ट्स में आगे रखता हूँ। स्विमिंग हो या शूटिंग कोई भी ऐसा गेम नहीं जिसमें मेरे बच्चे आगे न हो, जिसका नतीजा है आज नेशनल लेवल पर गोल्ड से नीचे मेरे बच्चों की ट्रॉफी नहीं आती। मेरे बच्चे स्पोर्ट्स में अच्छा काम कर रहे हैं।”

“इसी बात से भारत सरकार ने देश भर के 100 बच्चों का चयन करके हमें उन बच्चों को ट्रेनिंग देने की ज़िम्मेदारी सौंपी है। ये सभी ओडिशा, बिहार, सिक्किम, कन्याकुमारी, पश्चिम बंगाल के ट्राइबल कम्युनिटी के बच्चे हैं।”

आदिवासियों में लड़कियों की शादी के लिए लड़के वाले पैसे देते हैं, इसलिए उनकी शादी जल्दी हो जाती थी, यशपाल सिंह ने इसके लिए भी लोगों को समझाया और बच्चियों को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया। 

38 साल के प्रमोद खातकर राजस्थान के नवलगढ़ में अल्ट्राटेक सीमेंट कंपनी में मैनेजर पोस्ट पर जॉब कर रहे हैं। ये भी यशपाल सिंह के छात्र रह चुके हैं। वो बताते हैं, “सर की एक आदत जो आज के समय के लिए कितनी फायदेमंद है, सर सुबह जल्दी उठकर हॉस्टल आ जाया करते थे और एक भी बच्चा अगर सोया मिलता था तब उसकी पिटाई होती थी, लेकिन आज वही चीजें हमारे काम आ रही हैं। सर में एक अलग ही एनर्जी होती थी जो पढ़ाई के जोश को बढ़ा देता था, मैथ हम चुटकियों में हल हो जाता था।”

“सर हमेशा कहते थे बच्चे हमेशा छोटे पौधों की तरह होते हैं उन्हें प्यार से और सम्भाल कर रखना होता है , लेकिन उन्हें धूप में भी रखना होता है उसी तरह बच्चे भी होते हैं। ” प्रमोद ने आगे कहा।

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