साल 2019 की बात है लखनऊ के प्रसिद्ध हनुमान सेतु मंदिर के सामने दूसरे भिखारियों के साथ बैठे भीख माँग रहे प्रहलाद को नहीं पता था कि उस दिन से उनके जीवन में बदलाव की शुरुआत होगी।
उस दिन को याद करते हुए प्रहलाद गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “मैं भी मंदिर के सामने दूसरे भिखारियों के साथ भीख माँगता था, उस दिन भी, हर दिन की तरह बैठा था कि कोई आए और कुछ दे जाए। वहीं पर एक भिखारी ने मुझे बदलाव के बारे में बताया कि कोई हम जैसे भिखारियों के लिए काम कर रहा है।”
“बदलाव की तरफ से मुझे इतना सहयोग मिला है कि आज मैं यहाँ बैठा हूँ, नहीं तो मेरी भी बद से बदतर स्थिति होती। ” उन दिनों को याद करते हुए प्रहलाद ने आगे बताया।

प्रहलाद जिस बदलाव संस्था के बारे में बता रहे हैं, उसे शरद पटेल चलाते हैं, जिन्होंने अब तक सैकड़ों की संख्या में भिखारियों की ज़िंदगी बदली है और उन्हें बेहतर रोज़गार दिलाया है। प्रहलाद की तरह ही नगर निगम द्वारा संचालित ऐशबाग मील रोड पर बने एक शेल्टर होम में कई ऐसे लोग रहते हैं, शरद की मेहनत की बदौलत अब ये भिखारी हाथ नहीं फैलाते ये अपने हाथों से काम करके पेट भरते हैं।
बदलाव की शुरुआत कैसे हुई के सवाल पर शरद गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “हम मास्टर ऑफ सोशल की पढ़ाई कर रहे थे, एक बार रेलवे स्टेशन पर लगभग 50 से 52 साल का एक व्यक्ति बड़ी लाचारी से बोला कि बाबूजी 10 रुपए दीजिए दो दिन से भूखे हैं। मैं पैसे न देकर उसे पूड़ी-कचौड़ी की दुकान पर ले गया और दुकानदार को 20 रुपए देकर आया और कहा कि इन्हें कुछ खिला दो।”
उस दिन शरद ने सोच लिया कि उन्हें इन लोगों के लिए कुछ करना है। वो आगे कहते हैं, “उनका जो माँगने का तरीका था जो उनका हाव भाव था, जो पहनावा था। वो सारी चीजें दिल को छू गईं। दो तीन दिन तक वही सब दिमाग में चलता रहा। उसके बाद मैंने दो अक्टूबर को गाँधी जयंती के दिन तीन साथियों के साथ मिलकर भिक्षा मुक्ति अभियान की शुरूआत की।”

सैकड़ों भिखारियों की ज़िंदगी बदलने वाले 35 वर्षीय शरद पटेल मूल रुप से उत्तर प्रदेश के हरदोई जिला मुख्यालय से लगभग 35 किलोमीटर दूर माधवगंज ब्लॉक के मिर्जागंज गाँव के रहने वाले हैं।
शरद लखनऊ में 2 अक्टूबर 2014 से ‘भिक्षावृत्ति मुक्त अभियान’ चला रहे हैं। शरद ने 15 सितंबर 2015 को एक गैर सरकारी संस्था ‘बदलाव’ की नींव रखी जो लखनऊ में भिखारियों के पुनर्वास पर काम करती है। शरद ने 3,000 भिक्षुकों पर एक रिसर्च किया जिसमें 98 प्रतिशत भिक्षुकों ने कहा कि अगर उन्हें सरकार से पुनर्वास की मदद मिले तो वो भीख माँगना छोड़ देंगे। राजधानी लखनऊ में जो लोग भीख माँग रहे हैं उनमे से 88 प्रतिशत भिखारी उत्तर प्रदेश के हैं जबकि 11 प्रतिशत अन्य राज्यों से हैं। जो लोग भीख मांग रहे हैं उनमे से 31 फीसदी लोग 15 साल से ज़्यादा समय से भीख माँग कर ही गुजारा कर रहे हैं।
भिखारियों के साथ कई दिनों तक रहने के बाद शरद को लगा कि अगर इन्हें भीख माँगने से रोकना है तो इन्हें कुछ रोज़गार दिलाना होगा। अब शरद और उनके वालंटियर रेलवे स्टेशन, बस अड्डा, मँदिरों पर जाकर भिखारियों को समझा कर यहाँ लेकर आते हैं। कई बार तो इनकी स्थिति बहुत ख़राब होती है।
शरद आगे कहते हैं, “हम कई बार रात में बाहर निकलते हैं और फुटपाथ पर रह रहे लोगों के साथ समय बिताते हैं, जिससे उनके साथ हमारा रिश्ता मज़बूत हो जाए और ख़ुद से हमारे साथ आने को प्रेरित हो जाएँ।

ऐशबाग में स्थित शेल्टर होम में अलग-अलग बैच आते हैं और उन्हें नई चीजें सिखाई जाती हैं। उनमें कुछ सुधार आ जाता है तो उन्हें कोई काम दिला दिया जाता है, जिससे वो अपने पैरों पर खड़े हो सकें। आज इनमें से कोई ई-रिक्शा चलाता है, तो कोई सब्ज़ी बेचता है तो कोई चाय का ठेला लगाता है।
भिखारियों को भीख माँगना छुड़वाकर उन्हें रोज़गार से जोड़कर समाज की मुख्यधारा में सम्मानपूर्वक जीवन जीने का हौसला और हिम्मत देने वाले शरद पटेल बताते हैं, “अगर हम किसी एक व्यक्ति के जीवन में पॉजिटिव चेन्ज ले आते हैं तो बदलाव का नाम सार्थक हो जाता है।”
बदलाव में लोगों को सरकारी योजनाओं से जोड़ा जाता है, कई महीनों के बाद जब ये लोग आत्मनिर्भर बन जाते हैं, उनके घर-परिवार से संपर्क किया जाता है।
सिलाई का काम करने वाले धनीराम रैदास (पप्पू) भी कभी भीख माँगते थे, लेकिन आज ख़ुद का काम करते हैं।

धनीराम बताते हैं, “पहले मैं एक बड़े शोरूम में पर्दे और गद्दियों के कवर की सिलाई करता था। एक हादसे में मेरा पैर टूट गया, हम बैशाखी से चलने लगे। मार्च में जब आराम मिला तो फिर काम करने आ गये पर तब तक कोरोना की चर्चा हो गयी थी। हमें काम पर नहीं रखा गया, पैर टूटने की वजह से अपनों ने भी साथ छोड़ दिया इसलिए घर जाने का मन नहीं किया। चार-पाँच महीने हनुमान सेतु मन्दिर पर भीख माँग कर खाया।” मन्दिर पर गुजारे दिनों को याद करते हुए धनीराम रैदास का गला भर आया।
धनीराम कहते हैं, “बहुत पुलिस की लाठियाँ खाईं हैं। खाना जब बंटता था तब बहुत छीना-झपटी होती थी तब कहीं जाकर खाना मिल पाता था। खाना क्या अपमान का घूंट पीते थे? पास की बगिया में पुलिस से भागकर बैठे रहते थे। ज़िंदगी नरक थी वहाँ, अब जबसे यहाँ आ गये हैं सुकून है, हमने तो जीने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। डेढ़ दो महीने से भैया (शरद) ने सिलाई मशीन दिला दी है। रोड पर यहीं बैठकर सिलाई करता हूँ, दिन के 100-50 रुपए आ जाते हैं, कभी इससे कम तो कभी ज़्यादा भी कमा लेते हैं।”