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सपेरों के कालबेलिया समुदाय की बूटेदार रजाई बनाने वाली कला को पुनर्जीवित करने का प्रयास

कालबेलिया समुदाय का अपना पारंपरिक शिल्प है जिसमें ऐक्रेलिक ऊन व रेशम के चटकीले धागों और शीशे जड़कर कपड़े के रिसायकिल टुकड़ों पर चित्रों को उकेरा जाता है। फिर उससे गूदड़ी या रजाई बनाई जाती है। कालबेलिया क्राफ्ट रिवाइवल प्रोजेक्ट इस कला को फिर से जिंदा करने और इससे जुड़े उन कलाकारों को रोजगार दिलाने में मदद कर रहा हैं, जो कमाई का कोई जरिया नहीं होने की वजह से दिहाड़ी मजदूरों के रूप में काम करने के लिए मजबूर हैं।
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नई दिल्ली। ऐक्रेलिक ऊन व रेशम के चटकीले धागों और छोटे-छोटे शीशे से जड़ी जीवंत चित्रों से सजी कला हाल ही में ‘कालबेलिया क्राफ्ट रिवाइवल प्रोजेक्ट’ की ओर से आयोजित प्रदर्शनी में आए मेहमानों का स्वागत करती नजर आई। 19 जुलाई से 26 जुलाई तक इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (आईआईसी), नई दिल्ली में आयोजित प्रदर्शनी में राजस्थान के आदिवासी कालबेलिया समुदाय के मुट्ठी भर कलाकारों ने अपनी जटिल और पारंपरिक कढ़ाई और रजाई बनाने की कला का प्रदर्शन किया।

कालबेलिया समुदाय मुख्य रूप से खानाबदोश है, जो भारत, पाकिस्तान के थार रेगिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों में पाये जाते हैं। राजस्थान में वे आमतौर पर बूंदी, अजमेर, उदयपुर और पुष्कर इलाकों में मिल जाते हैं।

इस आदिवासी समुदाय का अपना शिल्प है जिसे कालबेलिया कला के नाम से जाना जाता है। इस कला को इस समुदाय की महिलाएं पीढ़ियों से आगे बढ़ाती आ रही हैं। गूदड़ी या रजाई बनाने का काम कपड़े के रिसाइकिल टुकड़ों पर किया जाता है। धागों से उकेरी गई इन तस्वीरों में नारियल फूल, चिड़िया के पंख, बाजूबंद, बच्चों की मांगर (हाथ पकड़े हुए बच्चों की कतार) आदि नजर आती हैं।

आईआईसी में लगी इस प्रदर्शनी में मेवा सपेरा (अंतरराष्ट्रीय स्तर की एक लोकप्रिय कालबेलिया नर्तकी) की रजाई शामिल की गई। उन्होंने प्रदर्शनी का उद्घाटन भी किया था। यहां पाकिस्तान में बनी कुछ रजाई भी थीं, जिन्हें बटवारे से पहले बनाया गया था। कला के हाल के कामों में कालबेलिया ने अपनी बेटियों की शादी के लिए तैयार किए गए साजो समान को शामिल किया था।

अभी तक कालबेलिया के इस पारंपरिक शिल्प का कोई संरक्षक नहीं है और यह लुप्त होने के कगार पर है।

आईआईसी में प्रदर्शन करने वाली कलाकारों में से एक मीरा बाई ने गांव कनेक्शन को बताया, ” रजाई बनाने और कढ़ाई करने वाली केवल तीन या चार महिलाएं ही बची हैं।” उनके मुताबिक, इस पारंपरिक शिल्प के बारे में शायद ही कोई जानता हो और इसे जारी रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

उन्होंने कहा, “प्रत्येक महिला को रजाई बनाने के लिए प्रतिदिन (दिहाड़ी या दैनिक मजदूरी) 300 रुपये मिलते हैं। और एक रजाई को पूरा होने में लगभग एक महीने का समय लगता है। यह कड़ी मेहनत और कम आमदनी वाला काम है। संयुक्त परिवार का पेट भर पाने के लिए इतना काफी नहीं है।”

कालबेलिया क्राफ्ट रिवाइवल प्रोजेक्ट

कालबेलिया क्राफ्ट रिवाइवल प्रोजेक्ट 2019 से 2021 तक किए गए एक शोध का परिणाम है, जिसे वॉयसिंग द कम्युनिटी: ए स्टडी ऑन द-नोटिफाइड एंड नोमेडिक ट्राइब्स ऑफ राजस्थान, मध्य प्रदेश एंड गुजरात नाम दिया गया।

मदन मीणा ने गांव कनेक्शन को बताया, “मैंने एक अंतिम संस्कार में कालबेलिया रजाई को देखा था और इस कला की सुंदरता से प्रभावित हो गया। मैंने सोचा कि इस शिल्प को दुनिया के सामने पेश करना जरूरी है। ” वह परियोजना समन्वयक और भाषा रिसर्च और पब्लिकेशन सेंटर के ट्रस्टी हैं- एक संगठन जो आदिवासी और डिनोटिफाइड समुदायों के लिए काम करता है और जनजातीय मामलों के मंत्रालय के अंतर्गत आता है।

कालबेलिया समुदाय मुख्य रूप से खानाबदोश है, जो भारत, पाकिस्तान के थार रेगिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों में पाये जाते हैं।

कालबेलिया समुदाय मुख्य रूप से खानाबदोश है, जो भारत, पाकिस्तान के थार रेगिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों में पाये जाते हैं।

मदन मीणा ने कहा, “इस परियोजना का उद्देश्य न केवल उनकी आमदनी के जरिया को बढ़ाना है, बल्कि इस समुदाय को लेकर समाज के उस नजरिए को भी बदलना है जिसकी वजह से उन्हें गलत समझा जाता है।” उनका इशारा उस तरफ था जहां डिनोटिफाइड समुदाय को अक्सर संदेह की नजर से ‘अपराधी’ के रूप में देखा जाता है। इस तथ्य के बावजूद कि उन्होंने 1980 के बाद से भारत महोत्सव में भाग लिया और दुनिया का दौरा किया।

मदन मीणा ने बताया कि कालबेलिया के लिए वो गौरव का पल था, जब उनके नृत्य और संगीत को 2010 में यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत का टैग मिला था। लेकिन वह टैग उनके लिए कुछ भी खास नहीं कर पाया। क्योंकि यहां उनके लिए ऐसा कोई मंच नहीं है जहां वे अपनी सांस्कृतिक विरासत का प्रदर्शन कर सकें।

कालबेलिया समुदाय के संघर्ष

कालबेलियों को कभी सांपों के बारे में उनके ज्ञान के लिए जाना जाता था। पीढ़ियों से, इस समुदाय का पारंपरिक व्यवसाय सांप पकड़ना, सांप के जहर का व्यापार करना और सर्पदंश का इलाज करना था। लेकिन 1972 में अस्तित्व में आए वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम के बाद उनका यह व्यवसाय धीरे-धीरे कम होता गया और लगभग गायब हो गया। समुदाय को दिहाड़ी मजदूरी करके और घर-घर जाकर मसाले और अनाज बेचकर अपना गुजारा चलाना पड़ता है।

मीरा बाई ने कहा, “रजाई बनाना आसान नहीं है। यह कमर तोड़ने वाला काम है। इसमें लंबे समय तक कपड़े पर झुककर बैठकर किनारी बनाने, बॉर्डर लगाना और कढ़ाई का काम करना पड़ता है। यह आंखों पर भी असर डालता है।”

घोर गरीबी ने इस समुदाय के लोगों के लिए अपनी कला और शिल्प का प्रचार करना मुश्किल कर दिया। मीरा बाई, जिन्होंने आईआईसी में अपना काम भी प्रदर्शित किया है, ने कहा कि समुदाय के पास शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य देखभाल आदि जैसी कुछ बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं।

कालबेलिया कलाकार ने कहा, “हमारे समुदाय के बच्चों को स्कूल जाने के लिए कम उम्र में अपना घर छोड़ना पड़ता है या फिर वे बिल्कुल भी नहीं पढ़ पाते हैं।”

धीरे-धीरे आदिवासी समुदाय के लिए आय का एकमात्र स्रोत अकुशल दैनिक श्रम बन गया। उसने उदासी भरे लहजे में कहा, “हममें से कुछ लोग तो कचरा बीनने या भीख मांगने के लिए मजबूर हैं।”

कालबेलिया क्राफ्ट रिवाइवल प्रोजेक्ट महामारी के दौरान सामने आया था। मदन मीणा ने कहा, “इस समुदाय के लिए सरकार की तरफ से न तो कोई राशन था और न ही चिकित्सा सुविधाएं। उनके लिए जीवन सामान्य से ज्यादा मुश्किल था। मैंने सोचा कि रजाई बनाने से उन्हें आय का कुछ स्रोत मिल जाएगा। “

नई दिल्ली में हाल ही में आयोजित की गई जैसी कुछ प्रदर्शनियां शिल्पकारों की मदद कर रही हैं। उन्हें अब कढ़ाई वाले बैग, कुशन कवर, फोन केस, टेबल रनर, यात्रा बैग और अन्य रोजाना की जरूरत में इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुएं बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। आधुनिक घरों के लिए सामान बनाते हुए वह प्राकृतिक तौर पर रंगे धागों और कपड़ों का इस्तेमाल कर रहे हैं।

कालबेलिया क्राफ्ट रिवाइवल प्रोजेक्ट इन कलाकारों को डिजाइन बताने और कच्चे माल उपलब्ध कराने में मदद करता है।

चंद्रप्रकाश पाठक गाँव कनेक्शन के लिए इंटर्नशिप कर रहे हैं

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