बचपन के गलियारों में जब आप वापस जाएँगे तो यादों के पिटारे में आपको रात के वक्त आसमान में चमकते तारे और हवा में चमचमाते जुगनू ज़रूर देखने को मिल जाएंगे।
ज़रा याद करिए, रात के अंधेरे में, घर की छतों पर, कभी घर के बगीचे में, तो कभी तालाब के पास, आपको जुगनू दिख जाया करते थे। लेकिन आखिर ऐसा क्या हुआ आज वे गायब हैं?
अब अगर आपकी किस्मत अच्छी हुई और कभी कहीं जुगनू दिख जाएँ तो समझ जाइएगा उस जगह की आबोहवा और ज़मीन ताज़ा और साफ-सुथरी है। जुगनू कभी हमारे जीवन का हिस्सा हुआ करते थे।
जुगनुओं को लेकर बहुत सारी धारणाएँ हैं। वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के सीनियर प्रोफेसर और वैज्ञानिक डॉ. वीपी. उनियाल गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “जुगनू को जंगल की भाषा में लाइटनिंग बग या फायरफ्लाइज कहते हैं, लेकिन ये न तो बग हैं न फ्लाइज, क्योंकि कीट विज्ञान का जो वर्गीकरण है उसमें अलग-अलग ऑर्डर्स हैं, उसमें बग का अलग ऑर्डर है और फ्लाइज का अलग; कीट विज्ञान की भाषा में जुगनू बीटल्स हैं; अगर आप गाँव की तरफ जाएं या जंगलों की तरफ तो धीरे-धीरे जुगनू खत्म हो रहे हैं।”
वो आगे कहते हैं, “दुनिया भर में जुगनू की लगभग 2200 प्रजातियाँ हैं और हिंदुस्तान में 50 किस्म के जुगनू पाए जाते हैं, जो जियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट है; लेकिन इसका अभी बहुत गहन आकलन नहीं हुआ है कि ये 50 प्रजातियां किन-किन जगहों पर पाई जाती हैं; जुगनू के ऊपर अभी बहुत ज़्यादा अनुसंधान नहीं हुआ है, लेकिन अब वैज्ञानिक, कीट विशेषज्ञ और पर्यावरण प्रेमी इसकी तरफ आकर्षित हो रहे हैं।”
जब आप या हम बीमार होते हैं या होने वाले होते हैं, तो हमारा शरीर बहुत सारे संकेत देना शुरू करता है जिससे हमें पूर्वानुमान हो जाता है कि कुछ गड़बड़ है। वैसे ही जुगनू भी एक तरह का बायो इंडिकेटर है जो हमें ये बताता है कि हमारा वातावरण शुद्ध है या दूषित।
डॉ. उनियाल कहते हैं कि “किसी भी जगह के सूचकों को जैव संकेतक (Bioindicators) कहते हैं; जैसे हमारे शरीर के इंडिकेटर होते हैं, वैसे ही हम पर्यावरण के इंडिकेटर की बात करें तो जुगनू उसमें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जुगनू हमेशा उस स्थान पर मिलेगा जहाँ का वातावरण स्वच्छ होगा; ज्यादातर जुगनू पत्तों में, मिट्टी के नीचे अंडे देते हैं तो इसके लिए आपका वातावरण एकदम शुद्ध होना चाहिए।”
“लेकिन अगर वहाँ कीटनाशक या गंदगी होगी, तो वे वहाँ अंडे नहीं देते हैं; इसके लार्वा और प्यूपा लगभग एक से चार सप्ताह तक मिट्टी के नीचे रहते हैं, धीरे-धीरे जब इनका शरीर विकसित होता है तो ये उड़ना शुरू करते हैं और ब्लिंक करने का काम करते हैं, “उन्होंने आगे कहा।
वो आगे कहते हैं, “आपके घर के आस-पास का वातावरण, आपका किचन गार्डन, आपके जंगल का क्षेत्र, किसान जहाँ खेती करते हैं, जहाँ कभी जुगनू आपको मिलते थे, वहाँ किसी तरह की गंदगी होगी तो जुगनू उस जगह नहीं दिखेंगे और अब दिखने लगभग बंद भी हो गए हैं; यह हमें एक संकेत मिल रहा है, एक चेतावनी मिल रही है कि हमारा वातावरण दूषित हो चुका है, अगर हम गाँव की बात करें तो लगभग सभी किसान खेतों में पेस्टिसाइड का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो वहाँ से उस क्षेत्र में जुगनू लगभग ख़त्म होने शुरू हो गए हैं।
जुगनू को एक तरह से किसानों का मित्र भी कहा जा सकता है क्योंकि ये शत्रु कीट, जो कि पत्तों और फसल को नुकसान पहुंचाते हैं, उन्हें खा जाते हैं। पिछले चार सालों से दून वैली में जुगनुओं पर शोध कर रही 29 वर्षीय निधि राणा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “जुगनू बहुत अच्छे प्रिडेटर होते हैं, जो एक तरह से बायो कंट्रोलर का काम करते हैं। लेकिन हम ये कह सकते हैं कि जुगनू बहुत तेजी से कम हो रहे हैं; जुगनुओं के कम होने के पीछे बहुत से प्रेशर काम कर रहे हैं, जिनमें शहरीकरण, स्ट्रीट लाइट प्रदूषण और किसानों द्वारा अधिक मात्रा में कीटनाशकों और रसायनों का प्रयोग करना शामिल है।”
कीट विशेषज्ञ की मानें तो जुगनू सिर्फ शुद्ध वातावरण में ही पनपते हैं, लेकिन अगर किसी जगह की जमीन दूषित है तो जुगनू वहाँ नहीं पनपते हैं। जुगनुओं की गिरती संख्या के पीछे प्रकाश प्रदूषण का भी बहुत बड़ा हाथ है, जिसकी वजह से जुगनुओं की समागम प्रक्रिया बाधित हुई है। लेकिन इसको समझने के लिए आपको ये समझना होगा कि आखिर जुगनू टिमटिमाते क्यों हैं?
जुगनू के एब्डोमेन में एक एंजाइम होता है लूसिफ़ेरेज़ (luciferase) और ये एंजाइम ऑक्सीजन से रिएक्ट करने के बाद जुगनू टिमटिमाना शुरू करता है। जुगनू की एक खास बात ये भी है कि उसके जीवन चक्र में अंडे, लार्वा और प्यूपा सब में लाइट होती है। जुगनू के टिमटिमाने की जो प्रक्रिया होती है, वह उनकी मेटिंग के व्यवहार की होती है।
जो नर जुगनू होता है, वह लगभग ज़मीन से तीन फीट की ऊंचाई पर घूमता रहता है और टिमटिमाता रहता है। जो फीमेल होती है, वह ज़मीन पर बैठी होती है, कभी पत्तों के नीचे, कभी मिट्टी के नीचे और जैसे ही मादा जुगनू नर जुगनू की रोशनी को देखती है तो वह नर जुगनू को टिमटिमा कर जवाब देती है। इस प्रक्रिया के बाद नर नीचे आता है और फिर समागम की प्रक्रिया शुरू होती है।
डॉ. उनियाल बताते हैं, “अब देखिए, हमारे यहाँ लाइट की संरचना पूरी तरह बदल चुकी है। अब हमने एलईडी लाइट लगाना शुरू कर दिया है; पहले लाइट थोड़ी सी पीली होती थी, लेकिन अब ब्राइट लाइट हो गई है, हमने सबसे बड़ी गलती यह की है कि जहाँ लाइट की ज़रूरत नहीं थी, वहाँ भी लाइट लगा दी है।”
जैसे अगर हम अपने घरों के गार्डन की बात करें तो जहाँ सिर्फ एक लाइट से काम चल सकता था, हमने पूरे गार्डन में रौशनी कर दी, जिसने जुगनुओं की समागम प्रक्रिया को डिस्टर्ब कर दिया है, क्योंकि जुगनू जब अंधेरे में टिमटिमाता है तभी मादा जुगनू को पता चलता है, तो जब बहुत ज़्यादा लाइट होगी तो यह प्रक्रिया पूरी तरह असफल हो जाएगी।”
बरसात के बाद, या कहें जून से लेकर अक्टूबर तक, जुगनू दिखाई दिया करते थे। लेकिन अब धीरे-धीरे जुगनुओं की संख्या कम हो रही है। दुनिया के कीट विज्ञानी और जितने भी लोग जुगनुओं पर काम कर रहे हैं, उनकी बड़ी चिंता जुगनुओं की घटती संख्या को लेकर है।
लोग कहते हैं कि अगर जुगनू खत्म हो भी गए तो क्या फर्क पड़ेगा, लेकिन जुगनू ही नहीं, कोई भी जीव जिसमें जान है, वह हमारे इकोसिस्टम का हिस्सा है और उसके न होने से हमें फर्क पड़ेगा। भले वह अभी दिखाई न दे, लेकिन आगे चलकर हमें परेशानी का सामना करना पड़ेगा।
जुगनुओं की गिनती के लिए पोर्टल
अगर आप भी जुगनू के संरक्षण में अपना योगदान देना चाहते हैं, तो आप डॉ. उनियाल के इस काम में मदद कर सकते हैं। डॉ. उनियाल ने गाँव कनेक्शन से बताया, “हम पिछले तीन वर्षों से 3 और 4 जुलाई को भारत में जुगनू की गिनती कर रहे हैं। हमने एक पोर्टल बनाया है, उस पोर्टल पर एक फॉर्मेट है जिसमें आपको अपना नाम, ईमेल और लोकेशन जैसी जानकारी देनी होती है।
“उसमें हमने कुछ इंस्ट्रक्शन दिए हैं कि आपको करना क्या है; आपको शाम में सात या आठ बजे निकलना है और जहाँ भी आपको जुगनू दिखे, उसकी जानकारी आपको भरनी है और अगर आपको एक भी जुगनू न दिखे, तो आप वहाँ जीरो लिखें; तो हमारे पास पूरे देश से जुगनू के आंकड़े आ रहे हैं, जिन्हें हम भारत के नक्शे पर उतार देते हैं। यह लॉन्ग टर्म डाटा आगे पॉलिसी बनाने में डिपार्टमेंट की मदद करेगा, “डॉ. उनियाल ने आगे कहा।