सोशल मीडिया पर शायद आपने भी हाथ में ‘साइकिल पे लाइट लगवालो’ लिखा कार्डबोर्ड लिए लड़की का वीडियो देखा होगा; यही नहीं कई बार झुलसती गर्मी में पानी की बोतल तो बारिश में छाता बाँटते हुए भी देखा होगा। आपके मन में भी सवाल आया होगा कि आखिर कौन है ये लड़की और लोगों की मदद क्यों करती रहती है।
गाँव पॉडकास्ट में मिलिए उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में रहने वाली 24 साल की खुशी पांडेय से, जिन्होंने 16 साल की उम्र में समाज सेवा शुरु कर दी थी।
हमने कहीं पर पढ़ा था कि आप लोगों की साइकिल पर लाइट लगाती हैं इसके बारे में बताएँ?
साइकिलिस्ट को लेकर कोई एनजीओ काम नहीं कर रहा था। कोई भी एनजीओ आज रोड सेफ्टी की बात नहीं कर रहा। लोग हंगर पर काम कर रहे हैं, हॉस्पिटल पर काम कर रहे हैं, जानवरों पर काम रहे हैं पर रोड सेफ्टी क्यों नहीं? जब हम लोग समस्या की जड़ को ही पकड़ लेंगे तो ये एक्सीडेंट नहीं होंगे। तो हमारे दिमाग में था की हम सबको कुछ ऐसा करना चाहिए; जिससे एक्सीडेंट कम हो। जब ठण्ड में बहुत ज़्यादा धुंध पड़ रही थी; तब हमने अपना एक इनिशिएटिव प्रोजेक्ट उजाला शुरू किया उस समय पर एक्सीडेंट बहुत ज़्यादा हो रहे थे।
अगर आप अपनी कार से जा रहे हो तो और आपने लाइट जला ली; लेकिन सामने कौन जा रहा हैं वो आपको नहीं दिख रहा और सबसे ज़्यादा दिक़्क़त साइकिल चालक को होती थी। तो हम लोगों ने टेल लाइट लगाना शुरू किया और आगे रिफ्लेक्टर लगाना शुरू किया। तो इस तरह हम लोगों ने प्रोजेक्ट उजाला शुरू किया। प्रोजेक्ट उजाला के दो फेज थे, एक तो साइकिल पर लाइट लगवा लो वाला कैंपेन और दूसरा था रिफ्लेक्टिव स्टीकर ड्राइव जिसमें हम लोगों ने ट्रक पर, ऑटो पर रिफ्लेक्टिव स्टीकर लगाए थे; ताकि कोई टक्कर न हो जाये कोई हादसा न हो जाए।
16 साल की उम्र से समाज सेवा की शुरुआत की इस पर आपके परिवार की क्या प्रतिक्रिया थी?
मेरे घर वाले मेरे हर एक कदम पर मेरे साथ रहे हैं। मैंने क्लास 12th से ही काम करना शुरू कर दिया था। क्योंकि तब से मेरे अंदर था की अपने खर्चों के लिए मुझे मेरे माता पिता से पैसे न माँगने पड़े।
एनजीओ के साथ आपका अनुभव कैसा रहा?
मेरे पास एक अवसर आया जहाँ मुझे एक एनजीओ में काम करने का मौका मिला। तब मुझे एनजीओ की सच्चाई पता चली कि कितना गलत काम हो रहा है। ये लोग एनजीओ का नाम देकर कैसे खुद की जेबें भर रहे हैं। तो मैंने काम तो सीखा, वहाँ पर मुझे समझ भी आया की वास्तविकता क्या है। फिर मुझे लगा कि जिनके लिए एनजीओ पैसे ले रहे हैं, उन तक वो पैसा वो मदद पहुँचनी चाहिए। फिर मैंने वो एनजीओ छोड़ दिया; क्योंकि वहाँ बहुत सी चीज़े गलत हो रही थी।
फिर मैंने दूसरा एनजीओ ज्वाइन किया; लेकिन जब इंटर्नशिप करो तब तक वो आपको थोड़ी थोड़ी चीज़ों से एक्सपोज़र करवाते हैं लेकिन जब जॉब शुरू हुई तब मुझे पता चला की यार यहाँ पर भी यही चीज़ है। लेकिन ऐसा नहीं की मैं वहाँ से तुरंत निकल गयी मैंने वह छह महीने काम किया और बहुत कुछ सीखा और उसके बाद मैंने खुद का एनजीओ शुरू किया।
लेकिन सबसे बड़ी दिक़्क़त जो आयी सामने वो थी फंड्स की, लेकिन ऐसा नहीं था की मेरे पास बिलकुल फंड्स नहीं थे। कुछ सेविंग्स थी मेरे पास। मैंने जब घर में बताया और घर पर बोला की आप लोग मुझे सपोर्ट कर दो, तो घर वालों ने कहा कि तुम काम करो हम हैं साथ में। लेकिन भगवान की कृपा से मेरा इनिशिएटिव तुरंत वायरल हो गया; उसके बाद लोग भी जुड़ने लगे और सपोर्ट मिलने लगा।
आपका सबसे पहला इनिशिएटिव क्या था?
पहला इनिशिएटिव हमारा सपनों की पाठशाला थी; जिसमें हमने हाशियें पर रहने वाले बच्चों को पढ़ाना शुरू किया था। आज भी वहाँ कोई क्लास नहीं हैं, बच्चे पेड़ के नीचे बैठते हैं और पढ़ते हैं। आज भी हमारे स्कूल में 208 बच्चे पढ़ रहे हैं। ये बच्चे हम वहाँ से लेकर के आए हैं। आपने देखा होगा आप ट्रैफिक में गाड़ी रोकते हैं तो कुछ बच्चे आ जाते हैं गाड़ी का शीशा साफ़ करने आ जाते हैं ये वही बच्चे हैं।
सबसे बड़ी दिक़्क़त इन बच्चों के माँ बाप को इस बात के लिए मनाना की वो अपने बच्चों से काम छुड़वा कर उनको पढ़ने के लिए भेजे। दो तीन लोगों ने तो पता नहीं मुझे क्या क्या बोला जैसे आपको क्या मतलब हमसे, आपको अच्छा नहीं लगता हमारे घर की दाल रोटी चल रही है। आपको जलन होती हैं हमसे। हमने 16 बच्चों से शुरू किया था आज इतने सारे बच्चे हमारे साथ है।
आपने एसिड अटैक से पीड़ित महिलाओ के लिए सिलाई सेंटर भी शुरू किया है उसका आईडिया कैसे आया?
जीविका साथी हम बहुत पहले से चला रहे हैं। हम लोगों का कॉन्सेप्ट था कि हम लोग एक एक औरत के जीवन में बदलाव की कोशिश कर रहे थे। लेकिन इस मॉडल में कुछ परेशानियाँ आ रहीं थीं। हम लोगों ने 30 महिलाओं का ट्रांसफॉर्मेशन किया जिनका हमारे पास रिकॉर्ड है, जिन्होंने खुद का व्यवसाय शुरू किया है; लेकिन इसमें ट्रेनर की दिक्कत आ रही थी।
एक ट्रेनर को पर्सनली एक एक महिला को दो घंटे देने पड़ रहे थे; जोकि एक बहुत बड़ी चुनौती हमारे सामने आ रही थी। फिर हमने सोचा कि अब एक सेंटर की शुरुवात करेंगे; क्योंकि घर घर जा कर सीखाना बहुत मुश्किल है। फिर हमने अभी हाल ही में शीरोज़ कैफ़े में एक सेंटर खोला। जहाँ पर एसिड अटैक से पीड़ित महिलाएँ काम सीख कर अपना खुद का व्यवसाय शुरू कर पाए और अगर इन लोगों ने अपना काम अच्छे से सीख लिया तो एक महीने में हम अपने प्रोडक्ट्स लेकर मार्केट में खड़े होंगे।
सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग को लेकर आपकी क्या राय है?
आपने मेरी इंस्टाग्राम पर देखा होगा एक कमेंट आपको ज़रूर मिलेगा कि देखो ये दिखावा कर रही है, सब कुछ दिखने के लिए है, नेकी कर सोशल मीडिया पर डाल या फिर ये सब ये फॉलोवर्स के लिए कर रही है। तो इन सब को लेकर मेरा मानना ये हैं कि जब मैंने 16 साल की उम्र में मैंने ये काम शुरू किया था तब इंस्टाग्राम रील थी भी नहीं। मुझे तब भी इन सब चीज़ों से फर्क नहीं पड़ता था और न आज पड़ता है। मेरा बस एक ही मकसद हैं की समाज में एक पॉजिटिव चेंज आये। बाकी आप कमेंट्स करते रहे मुझे फर्क नहीं पड़ता अगर किसी को अपनी एनर्जी बर्बाद करनी है, तो करते रहें मुझे फर्क नहीं पड़ता क्योंकि आप कहते रहेंगे मैं काम करती रहूँगी।