महिलाओं को श्मशान घाट जाने की मनाही है, महिलाएं अंतिम संस्कार नहीं कर सकतीं? लेकिन कुछ महिलाओं ने ये धारणा तोड़ दी वो भी ऐसे अनजान लोगों के लिए जिनके अंतिम समय में उनका कोई अपना साथ नहीं होता।
जून, 2023 का वो दिन, रेल गाड़ी के टुकड़े दूर-दूर तक फ़ैले थे, दर्जनों लोगों ने अपनी जान गवां दी थी, शवों की हालत इतनी वीभत्स थी कि कोई पास नहीं आना चाह रहा था, उसी दिन कुछ महिलाएं बिना डरे शवों को निकाल रहीं थीं।
ये थीं मधुस्मिता पृष्टि, स्मिता मोहंती और स्वागतिका राव जो पिछले कई वर्षों से लावारिस शवों का अंतिम संस्कार करती आ रहीं हैं, लेकिन उस ट्रेन एक्सीडेंट ने उन्हें हौंसला दिया आगे बढ़ने का।
ये वो दिन था जब ओडिशा में सबसे बड़ा ट्रेन एक्सीडेंट हुआ था, जिसे ओडिशा कोर्ट ने भारत का सबसे खतरनाक ट्रेन एक्सीडेंट घोषित किया था, तब इन तीनों महिलाओं ने आगे कदम बढ़ाया। बहंगा रेल हादसे के चार महीने बाद, जिसमें 296 यात्री मारे गए थे और 900 से अधिक घायल हुए थे, राज्य सरकार ने एम्स, भुवनेश्वर में रखे 28 लावारिस शवों के अंतिम संस्कार करने की शुरुआत की।
उस दिन को याद करते हुए 40 साल की मधुस्मिता पृष्टि गाँव कनेक्शन से कहती हैं, “जब हमें BMC (भुवनेश्वर म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन) से आदेश मिला कि बहंगा स्टेशन पर एक्सीडेंट हुआ है और वहाँ से 28 डेड बॉडीज को भरतपुर क्रिमेशन ग्राउंड में अंतिम संस्कार के लिए ले जाना है, तब मैंने सोचा कि अकेले यह संभव नहीं होगा। इसलिए मैंने अपने ट्रस्ट की दोनों महिलाओं से बात की और वे सभी सहमत हो गईं।”

“यह मेरा पहला अनुभव नहीं था, फिर भी मुझे डर लग रहा था, पर इन दोनों को बिल्कुल भी डर नहीं लग रहा था। हम तीनों ने मिलकर शाम 5 बजे से सुबह 5-6 बजे तक सभी शवों का अंतिम संस्कार किया। यही नहीं, अगर हमें रात में भी कोई कॉल आता है, तो हम तीनों महिलाएँ या मैं अपने पति के साथ क्रिमेशन ग्राउंड में शव जलाने के लिए जाती हूँ, “मधुस्मिता आगे कहती हैं।
लेकिन ये सब शुरू हुआ था कई साल पहले मधुस्मिता पश्चिम बंगाल में नर्स की नौकरी कर रही थीं। एक दिन उनके पास कॉल आयी कि उनके पति का पैर फ्रैक्चर हो गया है। जब वह ओडिशा आईं और उनकी हालत देखी, उसी दिन उन्होंने फ़ैसला किया लिया कि वह अपने पति के साथ मिलकर अंतिम संस्कार के काम में उनके NGO में योगदान देंगी।
मधुस्मिता के पति प्रदीप पृष्टि, प्रदीप सेवा ट्रस्ट के संस्थापक हैं, जो पहले से ही लावारिस शवों का अंतिम संस्कार करतें आ रहा हैं, लेकिन फिर मधुस्मिता का भी साथ मिल गया। आज उनका साथ दे रहीं हैं स्मिता मोहंती, स्वागतिका राव और स्नेहांजलि।
मरने के बाद जिनका कोई नहीं होता, उनके पास सबसे पहले यही महिलाएँ पहुँचती हैं।
प्रदीप सेवा ट्रस्ट के शुरू होने के पीछे भी दुखद कहानी है, ट्रस्ट के संस्थापक प्रदीप गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “मेरी माँ ट्रेन एक्सीडेंट में चल बसी थीं और हमें उनका शव तीन दिन बाद मिला था। इतने बड़े-बड़े ट्रस्ट होने के बावजूद कोई यह काम नहीं कर रहा था, तब हमने निर्णय लिया कि हमें यह ट्रस्ट शुरू करेगें ।”
प्रदीप आगे कहते हैं, “महिलाएँ इस काम के लिए पुरुषों से ज्यादा इच्छुक होकर आगे बढ़ रही हैं। जब बहंगा ट्रेन एक्सीडेंट हुआ था, तब इन तीनों महिलाओं (मधुस्मिता, स्मिता और स्वागतिका) ने मिलकर शाम से सुबह तक काम किया और एक दिन में 28 शवों का अंतिम संस्कार किया।”

ऐसी ही कुछ कहानी स्मिता की भी है, एक दूसरे के दुख ने इन्हें जोड़े रखा और नए लोग भी जुड़ते गए, ऐसी ही तो स्मिता भी हैं, वो कहती हैं, “मैंने अपने भाई को ट्रेन एक्सीडेंट में खो दिया था और हमें उनका शव भी नहीं मिला था। तब से मुझे यह अच्छा नहीं लग रहा था। तभी से मेरे मन में एक इच्छा थी कि मुझे यह काम करना है। मुझे न पैसे चाहिए, न ही बड़ा घर।”
दिन हो या रात, इन महिलाओं के लिए सब समान है, क्योंकि अगर उन्हें कभी भी कॉल आती है, तो वे तुरंत पहुँचती हैं। ये महिलाएँ अपने काम से कभी पीछे नहीं हटतीं। सबसे बड़ा कारण यह है कि शव को लंबे समय तक छोड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि वह धीरे-धीरे खराब होने लगता है।
जब महिलाओं ने शवों का अंतिम संस्कार शुरू किया तो लोगों की बातें भी सुननी पड़ी कि महिलाएं कैसे अंतिम संस्कार कर सकती हैं?
लेकिन प्रदीप समाज की विचारधारा तोड़ना चाहते थे, वो कहते हैं, “भगवान ने सृष्टि में पुरुष और महिला दोनों को बनाया है, तो क्यों सिर्फ पुरुष यह काम कर सकता है और महिला नहीं? मैं देखता हूँ कि मेरे पुरुष सहकर्मियों की तुलना में मेरी महिला सहकर्मी अधिक अच्छे से काम कर रही हैं।”
24 साल की स्नेहांजलि सेठी, जो खुद एक पत्रकार हैं और प्रदीप सेवा ट्रस्ट के साथ काम भी कर रहीं हैं, गाँव कनेक्शन से कहती हैं, “जब लावारिस शवों को उठाते हैं तो बहुत दुख होता है, पर हमेशा से यही सोच थी कि जब किसी का कोई नहीं होता, तो हम उनके साथ होते हैं।”
“मैं यह काम कभी नहीं छोड़ूँगी, चाहे जितनी भी आगे बढ़ जाऊँ। मेरे घरवाले बहुत सपोर्ट करते हैं। लोगों की सोच को पीछे छोड़कर मैं यह काम करती हूँ, “स्नेहांजलि आगे कहती हैं।
स्मिता, मधुस्मिता, स्नेहांजलि सेठी और स्वागतिका ने मिलकर बहुत सारे शवों का अंतिम संस्कार किया है। ये चारों महिलाएँ हमेशा यह सोचकर काम करती हैं कि आत्मा को शांति देने के लिए उनके परिवारजन मौजूद नहीं हो सकते, पर वे उनके अंतिम समय में उनके साथ रहेंगी।
लेकिन समाज में बदलाव लाने के लिए बहुत कुछ पीछे छोड़ना पड़ता है, समाज से लड़ना पड़ता है, लोग साथ नहीं देते, यहाँ तक की रिश्तेदार भी साथ छोड़ देते हैं, स्मिता कहती हैं, “ मेरे घर में कोई आता नहीं था, न कोई पानी पीता था।”
स्वागतिका राव, गाँव कनेक्शन से कहती हैं, “मैंने जब मधुस्मिता मैम को देखा, तो उनसे प्रेरित होकर मैंने भी सोचा कि अगर वे एक महिला होकर यह काम कर सकती हैं, तो मैं क्यों नहीं? तभी मैं इनके साथ जुड़ी हुई हूँ। मैंने बहंगा ट्रेन एक्सीडेंट में भी काम किया है।”
चारों का मानना है कि मरने के बाद हर किसी को सम्मान से विदा करने की जरूरत है चाहे उनके साथ कोई हो या न हो। अगर हादसे के बाद उनके परिवारजन उन तक नहीं पहुँच पाते या शवों की पहचान नहीं हो सकती, तब भी उनका सम्मानजनक अंतिम संस्कार होना चाहिए।
आनंद चंद्र परिडा, कारगिल बस्ती के सेक्रेटरी, गाँव कनेक्शन से कहते हैं, “मैं 2010 से प्रदीप सेवा ट्रस्ट से जुड़ा हूँ। उनकी वजह से जो असहाय लोग हैं, उनके शवों का अंतिम संस्कार हुआ है। लगभग 60-70 शवों का अंतिम संस्कार किया गया है। उनके कारण जिन बच्चों के माता-पिता नहीं होते, उनके लिए यह ट्रस्ट बहुत मददगार है। साथ ही, उन महिलाओं को धन्यवाद देता हूँ जो बिना किसी घृणा के यह काम कर रही हैं।”
जब मरने के समय उनके परिवार का कोई सदस्य मौजूद नहीं होता, उनकी आत्मा की शांति के लिए मधुस्मिता, स्मिता, स्नेहांजलि और स्वागतिका होती हैं। वे सोचती हैं कि अगर उनके मरने के बाद उनके साथ कोई नहीं होगा, तो वे इन लावारिस शवों को अपना समझकर उनका अंतिम संस्कार करेंगी।
हजारों बेजान शव ट्रेन के मुड़े हुए डिब्बों के नीचे दबे हुए थे। तब इन महिलाओं ने मिलकर उन्हें वहाँ से निकाला। अपने दुःख और भावनाओं को पीछे रखकर उन्होंने एक सुपर वीमेन की तरह काम किया और यह साबित कर दिया कि जो काम पुरुष कर सकते हैं, वही काम महिलाएं भी कर सकती हैं।