लाल किनारे की सफेद साड़ी पहने अनामिका भगत छोटे ब्रश से जंगल, पेड़ और फूलों वाली पेंटिंग बनाने में व्यस्त थीं। उनकी हर एक पेंटिंग में प्रकृति को करीब से देख सकते हैं। इनकी एक खास बात और भी है, ये सभी पूरी तरह से प्राकृतिक रंगों से बनाईं जाती हैं।
अनामिका भगत, छत्तीसगढ़ के जसपुर जिले के शायला गाँव की रहने वाली हैं और अपनी उरांव जनजाति की कला को दुनिया तक पहुंचा रहीं हैं। अनामिका गाँव कनेक्शन से बताती हैं, “बचपन में हम अपने घरों की दीवारों पर चित्र बनाते थे, लेकिन लगभग 16 साल पहले हमने इन्हीं चित्रों को कागज और कैनवास पर बनाना शुरू किया ताकि इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचा सकें।”
वो आगे कहती हैं, “अब बहुत कम लोग हैं जो इस कला को जानते हैं, हमारी कोशिश है कि हम इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचा पाएं, जिससे हमारी जनजाति के बारे में लोग ज़्यादा जान पाएं।”
उरांव पेंटिंग ज्यादातर प्रकृति और लोक कथाओं पर आधारित होती हैं, जैसे कि एक पेंटिंग में एक महिला घोड़े पर सवार है और उसने ऊंची तलवार पकड़ रखी है। यह महिला रोहतासगढ़ की तीन वीर आदिवासी महिलाओं — सिंगी दाई, कैली दाई, और चंपा दाई — के साहस का प्रतीक है, जिन्होंने तीन बार दुश्मनों से उरांव गांव वालों की रक्षा की थी। इसी तरह जंगल, पहाड़, पशु इनकी पेंटिंग में देखे जा सकते हैं।
दूसरी आदिवासी समुदायों की तरह, उरांव जनजाति की अपनी समृद्ध परंपराएं और कहानियां हैं। मध्य भारत गोंड और भील जनजातियों की आदिवासी पेंटिंग्स के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन उरांव पेंटिंग्स कम ज्ञात हैं, जिन्हें पूरी तरह प्राकृतिक सामग्रियों जैसे मिट्टी और मिट्टी से बनाया जाता है। हर चित्र उरांव जनजाति के इतिहास और संस्कृति से जुड़ी कहानी बताता है।
“यह चित्र जनी शिकार पर्व की भी याद दिलाता है, जो हर 12 साल में इन महिलाओं के सम्मान में मनाया जाता है। इस अवसर पर उरांव जनजाति की महिलाएँ जानवरों का शिकार करती हैं, “अनामिका की बहन सुमंती देवी ने बताया, जो उनके साथ पेंटिंग बनाती हैं।
अनामिका के साथ सुमति भी इस कला को बचाने के लिए मेहनत कर रहीं हैं, दोनों बहनें टाटा स्टील फाउंडेशन के कार्यक्रम संवाद में शामिल हुईं थीं, जहाँ उन्हें अपनी कला के प्रदर्शन का मौका मिल जाता है। सुमंती देवी ने और अनामिका, जो जमशेदपुर के गोपाल मैदान में अपने चित्रों से घिरी बैठी थीं।
उरांव पेंटिंग्स में रंगों का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न रंगों की मिट्टी से आता है। आदिवासी कलाकार लाल, भूरे और लाल मिट्टी को पानी में घोलकर उसे रंग के रूप में उपयोग करते हैं।
सुमंती बताती हैं, “हम लाल रंग कभी-कभी भूसे को जलाकर बनाते हैं, और सफेद के लिए चावल के आते का इस्तेमाल करते हैं। काले रंग के लिए कोयले का इस्तेमाल करते हैं। हमने हमेशा रंग घर पर ही बनाए हैं। हम कभी भी दुकान से खरीदे हुए या रासायनिक रंगों का उपयोग नहीं करते हैं।” सुमंती देवी और उनकी बहन अनामिका आज भी रंगों की खोज में जंगलों और खेतों में जाती हैं।
दीवारों पर गोत्रों की पेंटिंग छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में आदिवासी समुदाय अपने घरों की दीवारों पर पेंटिंग करते हैं। इन दीवारों पर पक्षी, जानवर, पेड़ और लोग चित्रित होते हैं, और प्रत्येक चित्रण के पीछे एक कहानी होती है। उरांव समुदाय हर साल अपने घरों की दीवारों पर पेंटिंग करता है। जो चित्र बनते हैं, वे उनके गोत्र या उपजाति का प्रतिनिधित्व करते हैं।
सुमंती देवी समझाते हुए कहती हैं, “12 गोत्र होते हैं, जो विभिन्न जीवों से जुड़े होते हैं। उदाहरण के लिए, बाघ लकड़ा गोत्र के लिए है, तिर्खाई पक्षी तिर्की गोत्र के लिए, मछली मिंज गोत्र के लिए, और कछुआ कच्छप गोत्र के लिए होता है।”
इन पेंटिंग्स के कुछ नियम भी होते हैं। उनके वेदी पर किए गए चित्र केवल पुरुषों द्वारा बनाए जाते हैं। इसे ‘डंडपट्टा’ कहा जाता है। यह आमतौर पर पूजा स्थल पर शुभ समारोहों को चिह्नित करने के लिए बनाया जाता है।
अनामिका अपनी जनजातीय कला को संरक्षित करना और उरांव इतिहास और संस्कृति के बारे में जागरूकता फैलाना चाहती थीं और यह संभव नहीं था अगर यह केवल उनके घरों की दीवारों तक सीमित रहता। इसलिए उन्होंने कागज और कैनवास पर पेंटिंग शुरू की।
“हम इस कला को उन बच्चों को सिखाते हैं जो रुचि रखते हैं, जब भी हमें सांस्कृतिक सेमिनारों या इस तरह के प्रदर्शनों के दौरान अवसर मिलता है, जिसे जमशेदपुर में टाटा स्टील फाउंडेशन द्वारा आयोजित किया जाता है। हम संवाद की बदौलत यहां 10 साल से यहाँ या रहें हैं, “अनामिका भगत ने गाँव कनेक्शन को बताया।
एक कलाकार को एक पेंटिंग बनाने में लगभग तीन से चार दिन लगते हैं। रंगों को परतों में लगाया जाता है और इसलिए हमें दूसरी परत लगाने से पहले एक परत के सूखने का इंतजार करना पड़ता है। पेंटिंग के आकार, उसकी जटिलता और उपयोग किए गए रंगों के आधार पर, पेंटिंग्स 150 रुपये से लेकर 2,000 रुपये तक में बिकती हैं।
2018 में, सुमंती देवी को टाटा स्टील फाउंडेशन से एक फेलोशिप मिली, जिसके तहत उन्होंने उरांव पेंटिंग्स पर एक किताब तैयार की और उसी पर एक वीडियो डॉक्यूमेंट्री भी बनाई।
पेंटिंग को जारी रखना मुश्किल है क्योंकि यह मेहनत भरा काम है और इसके बदले मिलने वाला पैसा पर्याप्त नहीं होता लेकिन वे अपनी कला को छोड़ना नहीं चाहतीं, क्योंकि उरांव कहानियों, कला और संस्कृति को कागज और कैनवास पर उतारना ही एकमात्र तरीका है जिससे वो इसे दुनिया तक पहुंचा सकती हैं।