तलाक, तलाक, तलाक : यह महिला उत्पीड़न है
डॉ. शिव बालक मिश्र 7 Dec 2015 5:30 AM GMT
हमारे देश के कर्णधार कहते नहीं थकते कि देश में महिलाओं और पुरुषों को बराबर के अधिकार हैं। परन्तु समाज के एक बड़े हिस्से की महिलाओं से शादी के पहले तो पूछा जाता है 'कुबूल है' परन्तु 'तलाक, तलाक, तलाक' कहते समय फैसला एकतरफा कर लेते हैं। समाज का दूसरा बड़ा हिस्सा लड़कियों को वर के साथ सात फेरे घुमा देता है पर फेरे उल्टे घुमाने का रिवाज़ नहीं। उसके लिए कोर्ट के चक्कर काटने होंगे।
जमाने से हमारे देश में महिलाओं ने उत्पीडऩ झेला है और आज भी झेल रहीं हैं। बालीवुड के लोग गाना फिल्माते हैं, धरती की तरह तू सब सह ले, सूरज की तरह तू ढलती जा। सच यह है कि लड़कियां चाहे इस धर्म के परिवार
में जन्मी हों या उस धर्म के परिवार में, उन्होंने भेदभाव, अन्याय और हिंसा को लगातार झेला है। हमारा मीडिया चटखारे मार कर रेप, गैंगरेप, लूट, भ्रूण हत्या और दहेज उत्पीडऩ की बातें करता है लेकिन मलाला और लक्ष्मी की कहानियां संक्षेप में बताता है।
भारत के मनीषियों ने कहा था, जिस देश में महिलाएं पूजी जाती हैं वहां देवता रहते हैं। उन्होंने यह नहीं बताया कि जहां महिलाओं का अपहरण, बलात्कार होता है वहां कौन रहता है। देश में ऐसा दिन नहीं होता जब अखबार वाले रेप और गैंग रेप की घटनाएं न छापते हों, टीवी वाले ना दिखाते हों। इस बात का महत्व नहीं कि पीडि़ताओं का नाम क्या था, उनकी जाति, धर्म या शहर क्या था। महत्व इस बात का है कि हमारा समाज इसे रोकने में अपने को लाचार पाता है।
कहते हैं भारत के सर्वाधिक लोग लड़कियों को गोद लेना चाहते हैं। यह अच्छा संकेत हैं परन्तु गोद लेने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि एक तरफ शिशु लड़कियां बेसहारा हैं दूसरी तरफ नि:सन्तान दम्पति बच्चों के लिए तरसते हैं। एक बहुत कड़वी सच्चाई है कि समाजसेवी संस्थाएं ही बच्चों को गोद लेने की प्रक्रिया को जटिल बनाती है क्योंकि उनके आश्रम में बच्चे घटेंगे तो उनकी ग्रान्ट कम हो जाएगी।
बड़ी होकर लड़कियों का जीवन, सीमाओं में बंधा रहता है, सुरक्षा, सामाजिक तौर-तरीके और व्यवसाय अथवा कॅरियर का चयन सब में सीमाएं हैं। जीवन साथी तलाशने में भी सीमाएं हैं और माता-पिता पर दहेज का अंकुश है। इस बीमारी का इलाज स्वयं लड़के-लड़कियों को तलाशना होगा परन्तु यह तभी संभव होगा जब बुज़ुर्ग उनका समर्थन और सहयोग करेंगे। राजनेताओं को खाप जैसी संस्थाओं का मुकाबला करने का साहस जुटाना होगा, दो टूक बात कहने का साहस।
छोटी उम्र की लड़कियोंं की शादी अधेड़ पुरुषों के साथ कर दी जाती है और इनसे पूछा भी जाता है 'कुबूल है, कुबूल है, कुबूल है?' या फिर सात फेरे घूम कर सात जनम का रिश्ता बना दिया जाता है। यह सब या तो विदेशी दौलतमंद के लालच में या फिर दहेज की मजबूरी में होता है। ध्यान रहे हमारे देश में 18 साल से कम उम्र की लड़कियों की रज़ामन्दी का कोई महत्व नहीं।
तमाम चुनौतियों के बावजूद पिछले एक दो साल में महिला पत्रकारों ने जो साहस दिखाया है, खुलकर बोलने और निर्भीकता से लिखने का, बस यही है आशा की किरन। महिलाएं मुखर होकर बोलने लगी हैं कि उनके साथ आपराधिक व्यवहार हुआ है, उनका यौन शोषण हुआ है। यदि तहलका में काम करने वाली महिला पत्रकार या आसाराम की शिष्या ने सब कुछ सह लिया होता तो तेजपाल और आसाराम पर से पर्दा न उठता, उनका व्यवहार भी नहीं बदलता और वे सलाखों के पीछे न होते।
अब लोगों ने समझ लिया है कि राक्षसी आदतें तेज़ी से तब बढ़ती हैं जब अपराधियों के लिए अपराध करके बच निकलना सरल होता है। अमेरिका जैसे देशों में लड़के-लड़कियों के मिलने-जुलने की आज़ादी है परन्तु यौन उत्पीडऩ करने वालों के रजिस्टर बने हैं, आप उनके नाम, पता आदि इन्टरनेट पर देख सकते हैं परन्तु हमारी व्यवस्था में समाज ने रक्षात्मक रुख अपनाते हुए महिलाओं को पर्दे में डाल दिया अथवा बाल विवाह कर दिया। यह समाधान नहीं है। महिला उत्पीडऩ के खिलाफ कड़े कानूनों के बावजूद अपराधों में कमी नहीं दिख रही। उल्टे उत्पीडऩ की महामारी जैसी फैल रही है। लगता है कि कड़े कानूनों को ठीक प्रकार से लागू नहीं किया जाता, आखिर कानूनों को लागू करने वाली मशीनरी तो वही है जो पहले थी। प्रशासनिक मशीनरी को अपनी कार्य प्रणाली बदलनी होगी।
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