तमाशा : जिसे ढूंढा ज़माने में मुझ में था

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तमाशा : जिसे ढूंढा ज़माने में मुझ में थागाँव कनेक्शन

इससे पहले कि आप किसी नामी-गिरामी फिल्म समीक्षकों की समीक्षा को आधार बनाते हुए मेरी पसंद पर लानतें भेंजे, मेरी पहली बात, पिछले पांच साल में बनी किसी भी फिल्म से बेहतर ओपनिंग क्रेडिट है फिल्म 'तमाशा' का। और हां, मैं ग्राफिक्स की बात नहीं कर रहा। मेरे कहने का मतलब ओपनिंग सीक्वेंस से भी है।

फिल्म 'तमाशा' उन लोगों के लिए बनी हुई फिल्म नहीं है, जिनको चार ट्रॉली और तीन क्रेन शॉट पर एक पूरा गाना फिल्म लिए जाने में कोई बुराई नज़र नहीं आती लेकिन कायदे की बनी फिल्म की कहानी को

वह बिखरी हुई कहानी कहने से पहले सांस तक नहीं लेते। 'तमाशा' सलीके से बुनी हुई बेहतर फिल्म है जिसमें कम से कम तीन अदाकारों ने जान फूंक दी है। रनबीर, दीपिका और पीयूष मिश्रा। 'तमाशा' देखेंगे तो कई दफ़ा लगेगा आपको कि यह 'रॉकस्टार' और 'जब वी मेट' के बीच की फिल्म है। या कहीं न कहीं इसमें 'लव आज कल' की सोच भी है।

लेकिन इस फिल्म के संपादन और इसको रचने के क्राफ्ट से मेरे मुंह से कई बार वाह निकला। किसी को इनकार नहीं होगा कि 'तमाशा' जरा अलग तरह के प्यार का किस्सा है। उस तरह का प्यार, जिसमें प्रेमी एक-दूसरे को चाहते भी हैं और दुनिया को और खुद को ये जताना चाहते हैं कि उन्हे प्यार भी नहीं है।

तमाम दुनियावी बातों के बीच यह फिल्म हमसे कहती है कि हमें वही काम करना चाहिए, जिसके लिए हम पैदा हुए हैं। यह बात भी सौ टका सच है कि हम सब किसी खास काम के लिए बने हैं। यह फिल्म मीडियोक्रिटी के खिलाफ फतवा है। इस फिल्म की सिनेमैटोग्राफी जबरदस्त है और इरशाद कामिल के गीतों के बोल शानदार है। 

'तमाशा' हमारे भीतर के वजूद को आवाज़ लगाने वाली फिल्म है। जो आपके भीतर होता है उसी को आप बाहर ढूंढते हैं। यह फिल्म हीर तो बड़ी सैड है कहते हुए भी एक बड़ी कंपनी में उसके विकास को दिखाती है, कि जिन पलों में हमारी हीर को सबसे ज्यादा खुश होना चाहिए, वह सैड है। 'तमाशा' हमसे कहती है कि आप करिअर और समाज की बंदिशों की वजह से महज एक रोबोट या पालतू शख्स में तब्दील न हो जाएं। मैं इस फिल्म के शानदार संपादन के लिए निर्देशक और संपादक का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं। 

'तमाशा' एक विचार के तौर पर दुनिया की हर कहानी को हर जगह पाई जाने वाली कहानी के तौर पर पेश करता है। आप अगर गौर से देखें तो पाएंगे कि वेद के किरदार के मनोविज्ञान को निर्देशक ने बहुत गहराई से पकड़ा है। आखिरी दृश्यों में आप देखेंगे कि नायक अपने अवचेतन में बसे सभी बाधाओं को पार करता है और हर दृश्य में उसके साथ एक जोकर होता है। जिन जिन जगहों की, गणित की स्कूल की, इंजीनियरिंग के बोझिल कॉलेज की गांठ उसके मन में थी, वह खुल जाती है। वह जो होना है, हो जाता है। नायिका के कहने पर, और याद दिलाने पर कि तुम्हारे अंदर की प्रतिभा दुनिया के मीडियोक्रिटी पर जोर देने की वजह से कुंद हो गई है, नायक खुद की तलाश में निकलता है। वह उसी किस्सागो के पास जाता है जो बचपन से उसे कहानियां सुनाता आया है। उसके कहानी कहने का तरीका इम्तियाज़ी है। किस्सागो अलहदा किस्सो को दुनिया के हर हिस्से की कहानी के तौर पर पेश करता है जिसके लिए रोमियो-जूलियट और हीर-रांझा और सोहिनी-महिवाल में ज्यादा फर्क नहीं है। वेद यह पूछता है कि आखिर उसकी खुद की कहानी का अंत क्या है। किस्सागो उसके बाद जो कहता है, वह सूफी परंपरा का आधार है। वह कहता है अनलहक-अनलहक। गुस्से में किस्सागो वेद से कहता है तू अपनी कहानी का अंत मुझसे क्यों पूछता है, खुद क्यों नहीं तय करता। सच ही तो है हम अपनी कहानियों का क्लाइमेक्स किसी और क्यों तय करने देते हैं। तमाशा हमारे खुद के वजूद के तलाश को उकसाने वाली ऐसी कविता है जिसे इम्तियाज़ ने परदे पर रचा है। भारत के जो दर्शक इस फिल्म के शिल्प को समझना चाहते हैं, उनके लिए यह फिल्म जरूरी है।

 (लेखक पेशे से पत्रकार हैं ग्रामीण विकास व विस्थापन जैसे मुद्दों पर लिखते हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

 

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