लखनऊ (उत्तर प्रदेश)। “घर में जो झाड़ू-पोछा करने आती है उसे भी महीने में हमसे से ज्यादा पैसे मिलते हैं”… आप ही बताओ भइया इस महंगाई में 2000 रुपए महीने में किसी का घर चलता है?… जब कोई कोरोना पॉजिटिव निकलता था तो अधिकारी उसके घर नहीं जाते थे, हमें दौड़ाया जाता था, लेकिन हमें उसके बदले क्या मिला? लखनऊ में अपनी मांगों लेकर प्रदर्शऩ करने आईं कई आशा कार्यकर्ताओं ने ऐसे सवाल किए।
“घरों जो झाड़ू-पोछा करती है उसे भी महीने में 2000-3000 रुपए मिलते हैं वो एक-दो घंटे ही काम करती है लेकिन हमारी ड्यूटी 24 घंटे की है। हमें 2000 मिलते हैं। उसमें भी कट कर 1700 हाथ आते हैं।” लखनऊ के मडियांव इलाके आशा कार्यकर्ता सरिता दीक्षित ने कहा। सरिता के मुताबिक उन लोगों को अप्रैल महीने से प्रसव कराने के बदले मिलने वाला इंसेटिव भी नहीं मिला है।
आशा कार्यकर्तां और आशा संगिनी को ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की रीढ़ और फ्रंट लाइनवर्कर कहा जाता है। कोविड के दौरान उन्हें भी कोरोना वरियर्स कहा गया। उनके काम की कई स्तर पर सराहना हुई। आशा कार्यकर्ताओं के मुताबिक वो ग्रामीण स्तर पर कोरोना स्क्रीनिंग में सहयोग, प्रसव, टीकाकरण, पोलियो, नसंबदी से लेकर 49 अलग-अलग तरह की योजनाओं और अभियानों में सक्रिय भागीदारी निभाती हैं लेकिन इसके बदले उन्हें ने के बराबर भुगतान होता है।
मानदेय बढ़ाने समेत और राज्यकर्मचारी का दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर प्रदेश के कई जिलों की सैकड़ों आशा कार्यकर्ताओं और आशा संगिनी ने शनिवार (30 अक्टूबर) को लखनऊ में प्रदर्शन किया। विधानभवन के सामने स्थित दारुलशफा में एकत्र होकर उन्होंने मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन सौंपा और मांगे नहीं माने जाने पर 30 नवंबर को मुख्यमंत्री आवास के बाहर प्रदर्शन का ऐलान किया।
आशा कार्यकर्ता और संगिनी कल्याण समिति की प्रदेश अध्यक्ष सीमा सिंह ने गांव कनेक्शऩ से कहा, सरकार आशा बहुओं के साथ सौतेला व्यवहार कर रही है, उन्हें बेवकूफ बना रही है। 360 रुपए में सड़क पर चलने वाला मजदूर काम नहीं करता लेकिन आशा बहुओं से 10 रुपए में काम कराया जा रहा है।
सीमा सिंह ने गांव कनेक्शन को बताया कि प्रदेश में आशा कार्यकर्ताओं और संगिनी की संख्या करीब डेढ़ लाख है। आशा कार्यकर्ता को महीने में 2000 रुपए मिलते हैं जबकि प्रसव समेत दूसरे कामों को करने पर इंसेटिव का प्रावधान है लेकिन न के बराबर मिलता है। जबकि संगिनि को 6450 रुपए मिलते हैं।
उन्होंने बताया कि कोरोना की लहर के दौरान आशा कार्यकर्ता और संगनियों हर एक 1000 की आबादी पर जाकर प्रवासियों का सर्वे किया, उनके लक्षण पता किया, उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया था, लेकिन श्रेय आंगनबाड़ी कार्यकर्तओं को मिला, सरकार आशा बहुओं को बेवकूफ बना रही है।
उन्नाव जिले की आशा बहु पारुल गौतम ने कहा, “जब कोविड-19 कोरोना चल रहा था, तो अधिकारी लोग घर पर बैठे रहते थे, हम लोग अपने घर परिवार को छोड़कर सारा काम कर रहे थे लेकिन हमें कुछ नहीं मिला।”
इसी जिले की सुशीला देवी भी कहती हैं, “जिस घर में कोरोना पॉजिटिव केस आता था, उस घर में कोई अधिकारी नहीं आता था, हम लोगों को भेजते थे। कोई सर्वे आता है हम लोगों को भेजा जाता है लेकिन हमें कुछ देते नहीं। सीएचसी-पीएचसी पर मरीज लेकर जाते हैं वहां भी परेशान किया जाता है। हमें अब निश्चित मानदेय चाहिए।”
कानपुर में आशा संघ की जिला अध्यक्ष अर्चना मिश्रा ने कहा कि अधिकारी कहते हैं आशा जिस मद का काम करेगी उसे उसी मद का पैसा मिलेगा, लेकिन आशा जिन मदों को काम कर रही लेकिन पैसा नहीं मिलता है। हमारे जिले में किसी को नसबंदी कराने का पैसा नहीं मिला है।”
वो आगे कहते हैं कि हमारी मांग है कि सरकार अपना माने, हम उन्हीं के बच्चे हैं। हमारी मांग है कि हमें राज्य कर्मचारी का दर्जा दिया जाए और 18000 रुपए का मानदेय दिया जाए।”
लखनऊ की आशा बहु शुजा ने कहा, “हमारी सरकार से मांग है कि हमें इतना पैसा दिया जाए कि हमारे परिवार का गुजारा हो सके। हमारे बच्चे पल सकें। इस महंगाई में 2000 रुपए में क्या होता है।” आशा कार्यकर्ताओं के प्रदर्शन के बाद स्वास्थ्य विभाग हरकत में आया है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की तरफ से लेटर जारी किया गया, पांच सदस्यीय टीम से सीएम की वार्ता की पेशकश की गई है।
संगठन की प्रदेश अध्यक्ष सीमा सिंह ने गांव कनेक्शन को शाम को फोन पर बताया कि हमारे ज्ञापन के बाद एनआरएच की तरफ से लेटर आया है, जिसमें कहा गया है कि आप लोग अपनी 5 सदस्यीय समिति चुन लीजिए, जिसमे सीएम की वार्ता हो सके। हम लोग अभी नाम तय कर रहे हैं। ये लेटर सभी जिलों में गए हैं।”