गाँव कनेक्शन ने वर्ष 2016 में “बुंदेलखंड में 1000 घंटे वो कहानियां जो कही नहीं गईं” शीर्षक नाम से एक सीरीज चलाई थी इसी सीरीज की एक खबर जो हमारे मुख्य संवाददाता अरविंद शुक्ला ने बंदेलखंड में पानी की समस्या और तालाबों पर की गई खबर प्रकाशित की गई थी। नोट- संभव है कि अभी वर्तमान में वहां के हालात और अधिकारी बदल सकते हैं।
जहां पूरा बुंदेलखंड पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस रहा है, वहीं बांदा जि़ले में एक गाँव ऐसा भी है जहां के चार तालाब लबालब हैं। गाँव के सभी 36 हैंडपंप पानी दे रहे हैं। कुओं में भी पानी 28-40 फीट पर है।
बांदा ज़िला मुख्यालय से 18 किलोमीटर दूर पूरब दिशा में महुआ ब्लॉक के जखनी गाँव की तस्वीर बुंदेलखंड के दूसरे गाँवों से बिल्कुल अलग है। 3500 की आबादी वाले इस गाँव में पानी की एक-एक बूंद को सहेजने की कोशिश की गई है। पानी को लेकर हमेशा से सजग रहे इस गाँव में पानी के संरक्षण को लेकर सर्वोदय आदर्श जलग्राम स्वराज अभियान समिति भी बनी है। समिति के संरक्षक उमाशंकर पांडेय बताते हैं, “दुनिया में बुंदेलखंड में पानी की कमी को लेकर त्राहिमाम मचा है। अरे जब आप पानी को सहेजोगे नहीं तो ये तो होना ही है। आप देखिए हमारे यहां कितना पानी है। गाँव में छह जीवित तालाब हैं, जिनमें से चार में पानी है। 27 कुएं (12 सार्वजनिक और 15 किसानों के) सब में पानी है। गाँव में 36 हैंडपंप लगे हैं वो भी सब पानी देते हैं। क्योंकि हमारे गाँव में पानी को सहेजा गया है।”
पानी से लबरेज जखनी की सफलता में बुंदेलखंड के दशकों पुराने दर्द की दवा नज़र आती है। “बुंदेलखंड में पानी का समस्या ही नहीं है। समस्या है उसका संरक्षण, तालाब जिसका माध्यम बन सकते हैं। बुंदेलखंड का भविष्य तालाब में ही सुरक्षित है।” बुंदेलखंड में कई वर्षों से काम कर रहे बुंदेलखंड वाटर फोरम के संयोजक केसर सिंह बताते हैं।
बुंदेलखंड में औसत वर्षा अच्छी होती है। ये दावा जल के सरकारी आंकड़े भी करते हैं। बुंदेलखंड में औसतन 300 से 400 मिलीमीटर बारिश होती है, जो राजस्थान के कई इलाकों से कई गुना ज्यादा है। बुंदेलंखड से लेकर राजस्थान तक जलस्त्रोतों पर अध्ययन करने और खजुराहो में ‘सेंटर फॉर इंनलैंड वाटर के इन साउथ एशिया के संस्थापक प्रो. बृजगोपाल बताते हैं, “बुंदेलखंड को हमेशा से सूखे क्षेत्रों में गिना जाता रहा है। क्योंकि यहां की भाैगोलिक स्थिति ही ऐसी है। पथरीली, चट्टानी जमीन है, मोटी मिट्टी नहीं है इसलिए पानी को सोखती नहीं है। अकेले महोबा में ही दिल्ली और राजस्थान के कई इलाकों से ज्यादा पानी बरसता है। लेकिन जो बरसता है वो नदियों के माध्यम से समुद्र में चला जाता है। नदियों का बेड (तल) पथरीला है, तो वहां से भी धरती रिचार्ज नहीं होती है। इसलिए सतह का जल रोकना ही एक मात्र उपाय है।”
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बारिश के पानी को रोककर बुंदेलखंड को सुरक्षित रखा जा सकता है। ये बात बुंदेलखंड के राजा-महाराजा बहुत पहले समझ गए थे। 9वीं से लेकर 16वीं शताब्दी तक हज़ारों की संख्या में तालाब बने। महोबा को तालाबों की नगरी तक कहा जाता है, यहां एक हज़ार से ज्यादा तालाब थे कभी। इंडिया वाटर पोर्टल के मुताबिक बुंदेलखंड के 13 जि़लों के 10 हजार गाँवों में कभी 53,000 तालाब हुआ करते थे। यहां मुख्य रूप से तीन तरह के तालाब हैं। 400 से 1000 एकड़ में फैले बड़े तालाब (जलाशय) जो राजा-महाराजों द्वारा बनवाए गए थे। जैसे चंदेल राजाओं की राजधानी महोबा का विशाल कीरत सागर। दूसरे तालाब जो गाँव के आसपास थे। जिनमें कुछ ग्राम समाज और कुछ धनी लोगों ने बनवाए थे। तीसरे निजी तालाब हैं तो अपेक्षाकृत छोटे हैं।
जल-जन जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय सलाहकार अशोक कुमार सिन्हा बताते हैं, “ये बात एकदम सही है कि बुंदेलखंड को तालाब ही बचा सकते हैं। लेकिन आजादी के बाद से ही यहां तालाबों के जीर्णोद्धार का कोई कार्य नहीं हुआ। हजारों तालाबों पर कब्जे हो गए।”
53000 तालाब तो शायद अब सरकारी कागजों में भी न मिलें। क्योंकि हज़ारों अतिक्रमण का शिकार हुए तो सैकड़ों में खुद सरकारों ने पट्टे काट दिए। कुछ संस्थाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने न सिर्फ लोगों को तालाबों के लिए जागरुक करना शुरू किया बल्कि तालाबों पर गौर फरमाने के लिए सरकारों के दरवाजे पर बार-बार दस्तक दी।
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अब तक सैकड़ों तालाबों के जीर्णोद्दार और नए तालाब बनाने में उत्पेरक की भूमिका निभा चुके ‘अपना तालाब अभियान’ के संयोजक पुष्पेंद्र भाई हमीरपुर जिले के जिग्नौडा गांव में एक हेक्टेयर में बने 80 हजार घनमीटर क्षमता वाले एक निजी तालाब को दिखते हुए बताते हैं, “पानी की समस्या बढ़ने पर हमने तालाबों के लिए मिशन बनाकर काम शुरू किया। इस तालाब में जो पानी है वो तीन साल पहले हुई बारिश का है। आज भी इतना पानी बचा है कि एक हेक्टयर फसल की तीन बार सिंचाई हो सकती है। ये अच्छी बात है कि इन तालाबों की सफलता देखकर प्रदेश सरकार ने भी बड़े पैमाने पर तालाब खोदो और बचाओ अभियान शुरू किया है।” अपना तालाब अभियान की समितियों में जिले में डीएम अध्यक्ष होते हैं, जबकि अपनी जमीन पर तालाब बनवाने वाला किसान अहम सदस्य है।
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प्रदेश सरकार और केंद्र की मदद से बुंदेलखड में तालाब पहले भी खोदे जा रहे थे, लेकिन ज्यादातर मनरेगा के तहत मजदूर खुदाई कर रहे थे। बुंदेलखंड में पानी की बढ़ती समस्या को देखते हुए प्रदेश सरकार ने इस वर्ष तालाबों की खुदाई पर बड़े पैमाने पर कराई कर रही है। प्रदेश सरकार ने पहले 100 बड़े तालाबों की खुदाई के आदेश दिए फिर 4000 खेत तालाबों बनाने का आदेश दिए हैं।
इंडिया वाटर पोर्टल के संयोजक केसर सिंह सरकार की इस मुहिम की सराहना करते हुए कहते हैं, “तालाबों पर काम होने से स्थानीय लोग काफी खुश हैं, लेकिन ये काम इस बार इसलिए धरातल पर दिखाई दे रहा है, क्योंकि इसमें सीधे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव रुचि ले रहे हैं। वर्ना पैसे पहले भी आते रहे हैं बजट बनते रहे हैं लेकिन जमीन पर काम नहीं दिखा।”
केसर सिंह आगे बताते हैं, “इसकी एक वजह तालाबों का मालिकाना हक भी रहा है। तालाब विभागों के बंटवारे का शिकार हो गए। कुछ तालाब सिंचाई विभाग को मिले, तो कुछ वन विभाग तो कुछ को भूमि संरक्षण को। बुंदेलखंड में 8 विभागों के बीच तालाब का बंटवारा है। ऐसे में कोई समझ नहीं नहीं पाया कि उन्हें इनपर करना क्या है। अगर कोई संस्था काम करना चाहे तो उसके लिए कागजी कार्रवाई और अऩुमति लेना ही आसान नहीं है। इसलिए हमने कर्नाटक की तर्ज पर सरकार से बुंदेलखंड झील तालाब अभिकरण बनाने की मांग की है। कर्नाटक में एनजीटी की तर्ज पर अभिकरण है, जो तालाब से जुड़े मुद्दों पर फैसला लेता है।”
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बुंदेलखंड वाटर फोरम इऩ दिनों अपने स्तर पर तालाबों की लिस्टिंग करवा रहा है। निजी तालाबों को छोड़कर बाकी की गिनती हो रही है। साथ ही ये देखा जा रहा है है कि तालाब किस स्थिति में है। केसर सिंह बताते हैं, “यूपी सरकार ने जो तालाब के लिए योजनाएं शुरू की हैं हम उन्हें लागू करने वातावरण बना रहे हैं। किसानों को कई बार पता नहीं चल पाता कि योजना क्या है, हम किसानों को फार्म भरने, उन्हें सरकारी मदद दिलाने और कई बार तालाब खुदाई के लिए मशीने तक उपलब्ध कराने में मदद करते हैं। यही वजह है कि अकेले महोबा से ही 3500 किसानों ने खेत तालाब बनाने की अर्जी दी है।”
प्रो. बृजगोपाल भी यूपी में अब तालाबों को दी जा रही तवज्जो पर राहत की बात बताते हुए कहते हैं, “बुंदेलखंड में तालाब, खेत तालाब और चैक डैम जैसी व्यवस्था ही कारगर है। लेकिन अरबों की लागत वाले बांध नहीं।“ केन-बेतवा लिंक की परियोजना पर सवाल उठाते हुए वो बताते हैं, “इस योजना का बजट करीब 18 हजार करोड़ पहुंच गया है। जबकि इनते बड़े बांधों की न तो यहां जरूरत है और न ही इतना पानी है। दूसरे इसके मुकाबले अगर 300-400 करोड़ रुपये में जैसे यूपी में तालाब बनाए जा रहे हैं किसानों के खेत में बनवा दिए जाएं तो तालाब किसान का रहेगा और सुरक्षित भी पानी की भी समस्या मिट जाएगी।”
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हालांकि भूगर्भ वैज्ञानिक सिर्फ तालाब बनाने जाने की ही हिमायत नहीं करते। ग्रामोद्योग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, में भूगर्भशास्त्र के प्रोफेसर शशीकांत त्रिपाठी बताते हैं, पूरे बुंदेलखंड में तालाब बनवा दें ये भी उपयुक्त नहीं है। महोबा, बांदा के कुछ हिस्से, एमपी में दमोह, टीकमगढ़ में तालाब पानी रोक सकते हैं। लेकिन बाकी जगह डैम, चैक डैम भी कारगर है। हां कुआं खोदना मेहनत और पैसे दोनों की बर्बादी होगी। बुंदेलखड में ज्यादातर जगह अगन्नेय चट्टाने हैं जो न पानी सोखती है, न उनमें पानी होता है। वाटर लेवल 100-150 फीट पर है, कोई कुआं ज्यादा से ज्यादा 50 फीट खोद पाएगा और उसमें पानी कितना आएगा। इसलिए खेती के हिसाब से तो ये बिल्कुल मुफीद नहीं है।”
वो आगे जोड़ते हैं, “ट्यूबवेल लगाना भी पैसे की बर्बादी है। मेरे हिसाब में मुश्किल से 20-30 फीसदी ट्यूबवेल काम कर रहे होंगे। बुंदेलखंड के नाम पर लोगों की समझ कम है। यहां के लिए योजनाएँ यहां के भागौलिक परिस्थिति को समझकर बनानी होगी। ट्यूबवेल के लिए लघु सिंचाई विभाग की रिपोर्ट लगती है, लेकिन उसका सर्वेयर कभी फील्ड में नहीं आता। सब बंदरबांट है। समस्या कम हंगामा ज्यादा।”
लेकिन इन सबसे से परे बांदा जिले में बरईमानपुर के निवासी और प्रगतिशील किसान लाल खां (50 वर्ष) के खेत इस वर्ष भी हरे हैं उन्होंने 200 कुंटल से ज्यादा प्याज उगाई है और बाकी खेतों में मूंग की फसल लहलहा रही है। वो बताते हैं, “एक तालाब तो हमने सरकारी योजना के तहत अब बनवाया है, लेकिन इससे पहले भी मैंने अपने खेत में निजी तालाब बनवाया था, जिसमें से इस बार लाखों की मछलियां निकलने की उम्मीद है। हमारे यहां तो 300-400 मिलीमीटर पानी बरसता है, खेती के लिए सिर्फ 150 मिलीमीटर ही चाहिए। हमने अपना पानी बंगाल जाने नहीं दिया खेत में रोक लिया।” लाल खां अपनी ज्यादातर जमीन पर तीन फसलें उगाते हैं, और साल में 10-15 लाख की बचत करते हैं क्योंकि उन्होंने कई साल पहले ही पानी बचाना सीख लिया था।
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ताल-तलैया बचाने होंगे
बुंदेलखंड के लगभग हर गाँव में औसतन 4-5 तालाब हैं। पूरे बुंदेलखंड में पचास हजार से ज्यादा तालाब फैले हुए हैं। चन्देल-बुंदेला राजाओं और गौड़ राजाओं के साथ ही समाज के बनाए तालाब ही बुंदेला धरती की जीवनरेखा रहे हैं और ज्यादातर बड़े तालाबों की उम्र 400-1000 साल हो चुकी है। पर अब उम्र का एक लम्बा पड़ाव पार कर चुके तालाब हमारी उपेक्षा और बदनीयती के शिकार हैं। तालाबों को कब्जेदारी-पट्टेदारी से खतरा तो है ही, पर सबसे बड़ा घाव तो हमारी उदासीनता का है। हमने जाना ही नहीं कि कब तालाबों के आगोर से पानी आने के रास्ते बंद हो गए। हम समझना नहीं चाहते कि हमारी उपेक्षा की गाद ने कब तालाबों को पाट दिया है।
इन सबके बावजूद 15 से 50 पीढ़ी तक इन्होंने बुंदेलखंड को पानी पिलाया है और आने वाली पीढ़ियों को पिलाते रहेंगे। कोशिशें जो भी हो रही हैं, उनके स्वागत हैं। समाज-सरकार दोनों को ही तालाब के काम को सम्भालना है। दोनों की साझी पहल से ही चार हजार से ज्यादा बड़े, बीस हजार के करीब मध्यम आकार के और पच्चीस हजार से ज्यादा छोटे तालाबों को बचाया जा सकता है, पर धरती के ताल-तलैया ठीक होने से पहले हमारे मन के ताल बजने लगें, यह ज्यादा जरूरी है। सूखा, पलायन और आत्महत्या ने बुंदेलखंड को बेसुरा और बेताल कर दिया है। ऐसे में बुंदेलखंड की धरती के सुर-ताल बनाए रखने के लिए ताल-तलैया बचाने होंगे, नए बनाने होंगे।