मच्छर इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि इनके कट्टर दुश्मन मेंढक को इंसान खत्म कर रहे हैं

Diti BajpaiDiti Bajpai   20 Aug 2019 5:50 AM GMT

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मच्छर इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि इनके कट्टर दुश्मन मेंढक को इंसान खत्म कर रहे हैं

आपने आखिरी बार मेंढक को अपने आस-पास कब देखा था? आखिर बार मेंढक की आवाज 'टर्र-टर्र' कब सुनी थी ? डेंगू और मलेरिया जैसी बीमारियों के वाहक मच्छरों और फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को खाने वाले मेंढक की संख्या कम होती जा रही है। खेतों में कीटनाशकों का प्रयोग और बढ़ते प्रदूषण में इनकी आवाज अब विलुप्त होने की कगार पर है।

मेंढक लगभग दुनिया के सभी कोनों में पाए जाते है। बरसात के दौरान मच्छर, मच्छरों के लार्वा, टिड्डे, बीटल्स, कनखजूरा, चींटी, दीमक और मकड़ी बहुतायत में होते हैं। यह मेंढक इन कीटों को खाते है। लेकिन कुछ दशकों से इन पर खतरा मडराने लगा है। मेंढक उभयचर वर्ग का जंतु है जो पानी तथा जमीन पर दोनों जगह रह सकता है।

"पिछले कुछ दशक में इंसानों के हस्तक्षेप से जलीय जंतुओं पर असर पड़ा है। जलीय जंतुओं के साथ विदेशी प्रजातियों को रखना भी खतरनाक साबित हुआ है। कृषि में कीटनाशकों के प्रयोग भी मेढ़क जैसे उभयचर जंतुओं की मौत का एक बड़ा कारण है।" ऐसा बताते हैं, पुणे के आबासाहेब गरवारे महाविद्यालय में जीव विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर और हेड डॉ आनंद पाध्ये।

डॉ आनंद पाध्ये आगे बताते हें,"काइटरिजियोमायकोसिस नामक का घातक फंगल इन्फेक्शन देश में फैल गया, जो मेंढ़कों को कम करने में बड़ा खतरनाक साबित हुआ। नदियों, झीलों और महासागरों में बढ़ते प्रदूषण, जलीय जंतुओं के रहने वाले स्थान पर इंसानों के दखल, उसे खेत में बदलना, ऐसी जगह से सड़क और पुलों का निर्माण करना भी इन जलीय जंतुओं के लिए खतरा बना है। सामान्यता, पिछले कुछ दशकों में उभयचरों के की कमी, उनके घरों पर इंसानों का दखल ही है।"


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मेढ़क के शरीर का तापमान वातावरण के ताप के अनुसार घटता या बढ़ता रहता है। यह ठंड से बचने के लिए पोखर आदि की निचली सतह की मिट्टी लगभग दो फुट की गहराई तक खोदकर उसी में बिना कुछ खाए रहता है। मेंढक के चार पैर होते हैं पिछले दो पैर अगले पैरों से बड़े होतें हैं, जिसके कारण यह लम्बी उछाल लेता है। अगले पैरों में चार-चार तथा पिछले पैरों में पांच-पांच झिल्लीदार उंगलिया होतीं हैं, जो इसे तैरने में सहायता करती हैं।

जमीन और पानी में रहने वाले जानवरों की प्रजातियां तेजी से खत्म हो रही हैं। पिछले कई वर्षों दलदली भूमि में रहने वाले जीव-जंतुओं पर काम कर रहे टर्टल रेस्क्यू स्पेशलिस्ट डॉ शैलेंद्र सिंह, बताते हैं, "मेढ़क पर्यावरण संतुलन की अहम कड़ी है। मेढ़क कई प्रकार के कीट पंतगों को खाकर बीमारियों से रक्षा करता है। उत्तर प्रदेश में 12 प्रजाति के मेंढ़क है , जिसमें से बुलफ्राग ही दिखता है। इन जीवों की घटती संख्या का की वजह प्रदूषित पानी में फफूदीं से होने वाली बीमारियां हैं। दलदली भूमि में रहने वाले में " 'जल-थलचर' जानवरों की में 30 प्रतिशत की गिरावट आई है।

अब तब मेढ़कों की करीब 5 हजार से अधिक प्रजातियां पहचानी जा चुकी है। सबसे छोटा मेढ़क 9.8 मिलीमीटर का है। मेढ़क अपनी लंबाई से 20 गुना लंबी छलांग लगा सकते है। नर मेढ़क मादा मेढ़क से आकार में छोटे होते है। मेंढ़क अपनी त्वचा के द्वारा पानी पीते है।

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फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित पूर्व महिला एवं बाल विकास मंत्री और पशुप्रेमी मेनका गांधी के 'क्या हिंदुस्तान से मेढ़क लगभग विलुप्त हो गए है?' लेख में मेढ़कों की कमी के बारे में बात की है उन्होंने अपने लेख में लिखा हैं, आज अगर हमारे आस-पास इतने ज्यादा मच्छर हैं तो इसकी एक बड़ी वजह है कि हमने मच्छर के मुख्य शिकारी मेंढक को मार डाला है।

कई सालों तक हमने फ्रांस को मेंढक की टंगड़ी का निर्यात किया. इसे जिंदा मेंढक से काट लिया जाता था। सरकार ने जब रोक लगायी तब तक बेचारे मेंढकों की संख्या बहुत कम हो चुकी थी। इसके बाद आया कीटनाशकों का हमलावर चलन, जल-प्रांतर सूखने लगे, पानी प्रदूषित हुआ। पश्चिमी घाट पर लोगों ने बड़े आक्रामक तेवर में बस्तियां बसायीं और मेंढक तकरीबन समाप्त हो गए।

सन् 1950 के दशक में गॉयनॉक्लॉजिस्ट (स्त्रीरोग विज्ञानी) अफ्रीकी मेंढकों की एक प्रजाति क्लावड् फ्रॉग में गर्भवती स्त्री का यूरिन(मूत्र) इंजेक्ट करते थे। अगर स्त्री को गर्भ रहा हो तो उसका यूरिन इंजेक्ट करने पर मेंढक के एक दिन में ही अंडाणु निकलने लगते थे। साल 1940 के दशक से 1970 के दशक के बीच अस्पतालों ने बड़ी संख्या में मेंढकों का आयात किया। बुफो प्रजाति के टोड(एक किस्म का मेढ़क) का भी इस्तेमाल होता था और इसी कारण बुफो टेस्ट जैसा एक नाम प्रचलन में आया। लाखों की तादाद में मेंढक मारे गए।

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क्या कोई ऐसा भी जंतु बाकी बचा है जो मनुष्य के दुर्व्यवहार का शिकार ना हुआ हो? दक्षिण अमेरिका में वैक्सी मंकी ट्री नाम का एक मेंढक पाया जाता है। इसकी पीठ में डरमोर्फिन नाम का एक रसायन पाया जाता है। यह दर्द को रोकने तथा हर्षोन्माद(यूफोरिया) पैदा करने के मामले में मार्फिन से 40 गुना ज्यादा ताकतवर है।

घुड़दौड़ के मुकाबलों के उद्योग से जुड़ी माफिया डरमोर्फिन का इस्तेमाल घोड़ों को तेज भगाने के लिए करती है, घुड़सवार घोड़ों की पीठ पर चाबुक की तेज बौछार करते जाता है और घोड़े ज्यादा से ज्यादा तेजी से भागते जाते हैं। हाल में अमेरिका में 30 घोड़ों के खून का परीक्षण हुआ, सभी में डरमोर्फिन नाम का यह अवैध रसायन मौजूद पाया गया।

सौ साल पहले वैज्ञानिक मनुष्यों में त्वचा-प्रत्यारोपण के लिए प्रयोग करने में लगे थे। वे जिंदा मेंढक की शरीर के कुछ हिस्से की चमड़ी उतार लेते थे और इसे मनुष्य के घाव वाले हिस्से में लगाने की कोशिश करते थे। ऐसा कोई भी प्रयोग सफल नहीं हुआ लेकिन जरा कल्पना कीजिए कि इस प्रयोग के कारण बेचारे नन्हें से जीव को कितनी पीड़ा सहनी पड़ी होगी।

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तीन साल पहले देखा था मैंने मेंढक

पीलीभीत में खूब मेंढक हुआ करते थे। वे समागम(प्रजनन-कर्म) करने के लिए सड़क के उस पार जाते थे। हम कार रोककर इंतजार करते थे कि समागम में साथी बनने जा रहा मेंढक सड़क पार कर ले तो हम अपनी कार आगे बढ़ायें। एक बार बड़ा मजेदार वाकया पेश आया।

एक बैठक के खत्म होने के बाद मैंने देखा कि मेरा सिक्युरिटी गार्ड एकदम से कांप रहा है। वह छह फुट का लंबा-तगड़ा हरियाणवी जवान था। मैंने पूछा तो उसने कांपते हुए अपने पैरों की तरफ इशारा किया। उसके जूते पर एक मेंढक बड़े इत्मीनान से बैठा आराम फरमा रहा था। लेकिन उसके बाद से नहीं दिखे मेंढक। बीते तीन साल में मैंने कोई मेंढक नहीं देखा।

मौसम का कोई भी बदलाव मेंढक सहन नहीं कर पाते। उनके अंडों पर कोई खोल नहीं होता सो वे सूरज की रोशनी के आगे एकदम ही असहाय होते हैं, सूरज की रोशनी उत्परिवर्तन(म्यूटेशन) का कारण है। एम्फीबियन(उभयचर) प्राणी पारिस्थिकी तंत्र(इको-सिस्टम) के सेहत के महत्वपूर्ण संकेतक हैं। उभयचर प्राणीयों की त्वचा खंखरी या कह लें छिद्रयुक्त(पोरस) होती है सो जलवायु-परिवर्तन और प्रदूषण के एतबार से वे बहुत संवेदनशील होते हैं क्योंकि उनकी चमड़ी बाहरी पदार्थों को अपने भीतर सोख लेती है।

बहुत से मेंढक तथा उभयचर प्राणी हाल के सालों में मौत की चपेट में आए हैं। एक घातक फंगस उनकी चमड़ी को संक्रमित कर रहा है। यह फंगस बहुत से भौगोलिक दायरों में तेजी से फैल रहा है। काइटरिज् फंगस ब्यूबॉनिक फ्लेग से भी ज्यादा खतरनाक है। दुर्भाग्य कहिए कि प्राणियों के उद्योग-धंधे ने(और इससे पहले चिकित्सा-उद्योग ने)- जिसने प्राणी-जगत के नाश में औरों की तुलना में ज्यादा बढ़-चढ़कर भूमिका निभायी है—अफ्रीकी क्लावड फ्रॉग को 1970 के दशक में दुनिया के कोने-कोने में पहुंचाया।

इस मेंढक के जरिए उसे लगा काइटरिजियोमायकोसिस नामक का घातक फंगल इन्फेक्शन दुनिया में सब जगह पहुंचा। अमेरिका में मेंढकों की संख्या में तेज गिरावट के बारे में आयी एक हाल की रिपोर्ट के मुताबिक मेंढक अपने पर्यावास(हैबिटेट) से 3.7 प्रतिशत सालाना की रफ्तार से खत्म हो रहे हैं।

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अफसोस मनाइए कि आपके बच्चे कभी मेंढक नहीं देख पाएंगे। क्या ही बेहतरीन प्राणी है मेंढक। वो चालाक भी होता है और सुंदर भी। दक्षिण अमेरिका और भारत में सबसे ज्यादा तादाद में मेंढक पाए जाते हैं और हमें अब भी उनकी नयी-नयी प्रजातियों के बारे हर कुछ महीने के अंतराल से पता चलते रहता है। भारत में बैंगनी रंग का एक मेंढक पाया जाता है। यह इतना छोटा होता है कि बिल्कुल आपके अंगूठे पर अंट जाए।

अब इस मासूम अदा का क्या कहिएगा कि ये जनाबेआली अपने पिछले पैर को कुछ यों बाहर निकालते हैं मानो किसी की पीठ पर सवारी गांठने जा रहे हों और उसे हौले-हौले हिलाकर मादा को बताते हैं कि हां, मैं हूं ना तुम्हारे लिए! मेंढक बड़े स्मार्ट होते हैं, रंग उनका निहायत खूबसूरत होता है और वैज्ञानिकों ने हाल ही में पता लगाया है कि मेंढकों की अपनी भरी-पूरी भाषा होती है।

काफी संवेदनशील होते हैं मेंढक

मेंढक का विकसित होता भ्रूण अपनी जेलीनुमा अवस्था में भी काफी चौकन्ना होता है। अगर किसी शिकारी के आने की आहट मिले तो ट्री फॉग का भ्रूण अपनी लाल आंखों से हवा में मौजूद कंपन के सहारे इस आहट को भांप लेता है। खतरा महसूस होते ही भ्रूण चंद सेकेंडों के भीतर अंडे से निकलकर अपने लिए सुरक्षित स्थान खोज लेता है, भले ही अंडे से निकलने का विहित समय अभी कई दिन दूर हो। इस भ्रूण को पता होता है कि बारिश की बूंद गिरती है तो हवा में कैसा कंपन पैदा होता है और कोई सांप सरसराता है तो कंपन की गति क्या होती है।

भ्रूण ततैया के पंखों की कंपन और फंगस के पहुंचने की आहट का फर्क अपनी संवेदनशीलता से पहचान लेता है, उसे इन सबसे निकलने वाली तरंगों का फर्क पता होता है। मादा मेंढक(ट्री फ्रांग प्रजाति की) अंडे सेने के लिए बड़ी माकूल जगह चुनती है। वह उन पत्तों पर अंडे देती और उन्हें सेती है जो पानी से तनिक ऊपर हों। ऐसा करने से अंडों का लार्वा बनना आसान होता है।

बच्चे पालने की मेंढक की आदतें बड़ी मनमोहक हैं। चिले में पाए जाने वाले डार्विन फ्रॉग अपने बच्चों को लार्वा अवस्था में निगल जाते हैं। वे लार्वा को अपनी स्वर-नलिकाओं में पालते हैं फिर जीवन चक्र की लार्वा अवस्था पूरी होने पर उन्हें उगल देते हैं। लेकिन यह अनूठा डार्विन फ्रॉग अब विलुप्त हो रहा है क्योंकि चिले में लकड़ी के सामान और कागज के उद्योग के लिए जंगल बड़ी तेजी से काटे जा रहे हैं। इन दो प्रजातियों में एक 1980 के बाद से नहीं दिखा है और उसे विलुप्त मान लिया गया है। दूसरी प्रजाति के मेंढक महज 2000 की तादाद में बचे हैं।

एक और अनूठी प्रजाति ऑस्ट्रेलियन फ्रॉग है- यह आखिरी बार 1985 में नजर आया था। अब इसे विलुप्त घोषित कर दिया गया है। इस प्रजाति के मेंढक के बच्चे पालने का अंदाज बहुत अनोखा था। मादा निषेचित अंडे को निगल जाती थी। ऐसा करने पर उसका पेट गर्भाशय में तब्दील हो जाता था और फिर मुंह के जरिए ही वह कीट की अवस्था में आ चुके मेढ़क को जन्म देती थी। लकड़ी की कटाई तथा किटरिज फंगस के कारण यह प्रजाति विलुप्त हुई और बच्चे जनने की ऐसी अनोखी बात किसी और प्राणी में फिर कभी देखने में नहीं आयी।

मेंढकों की शुरुआती प्रजाति 7 करोड साल पहले पैदा हुई। ये शिकारी मेंढक थे और इन्हें डेविल फ्रॉग के नाम से जाना जाता है। बिलजेबूफो एम्पिग्ना(बिजेलबब नाम के शैतान के आधार पर) कहलाने वाले ये मेंढक जिस जगह रहते थे उसे आज हम अफ्रीका कहते हैं। इस मेढ़क का सिर बहुत बड़ा था, दांत पैने थे और सिर के हिस्से पर कांटेदार चिमटे निकले हुए होते थे। इसकी पीठ पर एक कवचनुमा संरचना होती थी।

सिर पर मौजूद कांटेदार चिमटीनुमा संरचना तथा पीठ पर मौजूद कवच के कारण डायनासोर तथा मगरमच्छ जैसे शिकारी जानवरों से बचने में इस मेंढक को मदद मिली होगी। यह मेंढक छुपकर वार करता था और छोटे-छोटे स्तनपायी जानवरों को अपना शिकार बनाता था।

डायनासोर एकबारगी विलुप्त हो गए और उनके विलुप्त होने के कारण मेंढकों की तादाद कई गुणा बढ़ी, साथ ही उनकी कई प्रजातियां पैदा हुईं। अमेरिकन म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के मुताबिक 2015 के अप्रैल में मेंढक और टोड की कुल 6482 प्रजातियां मौजूद थीं। मेंढकों की कोई ना कोई नई प्रजाति हम हर साल खोज निकालते हैं लेकिन कहीं एक नई प्रजाति मिलती है तो दूसरी जगह कई प्रजातियां विलुप्त भी हो रही होती हैं। मेंढक की जो नई प्रजाति हम खोज निकालते हैं वे भी तादाद में बहुत कम होते हैं—इतने कम कि दुनिया जान ले कि हम आखिर उनके साथ कर क्या रहे हैं।

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