गोरखपुर त्रासदी : आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिन्दुस्तान की 

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गोरखपुर त्रासदी : आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिन्दुस्तान की गोरखपुर के बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज के इंसेफेलाइटिस वार्ड में भर्ती बच्चे। फोटो: विनय गुप्ता

लखनऊ। देश आज आजादी की 70वीं वर्षगांठ मना रहा है। पूरे देश में हर्षोल्लास का माहौल है। लेकिन उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में पिछले एक सप्ताह में 60 से अधिक बच्चों की मौत देश के लिए कहीं न कहीं एक बड़ा मुद्दा है। भारत में इंसेफेलाइटिस, जापानी बुखार जैसी गंभीर बीमारियों पर अभी बहुत काम करने की जरूरत है। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशवासियों को लाल किले से संबोधित करते हुए गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल में हुई बच्चों की मौतों पर शोक जताया और कहा, "प्राकृतिक आपदाएं कभी-कभी बहुत बड़ी चुनौती बन जाती हैं, अच्छी वर्षा देश को फलने-फूलने में बहुत योगदान देती हैं, लेकिन कभी-कभी इन आपदाओं से संकट भी पैदा होता है।"

आजादी के 70 वर्ष बाद भी आज तक हम इंसेफेलाइटिस, जापानी बुखार जैसी बीमारियों से आजाद नहीं हो सके हैं। भारतीय ग्रामीण इलाकों को सही मायने में आजादी तभी मिलेगी जब उनके बच्चों की मौत इंसेफेलाइटिस, जापानी बुखार जैसी गंभीर बीमारियों से नहीं होंगी।

खाते में थे पैसे फिर भी होती रही लेटरबाज़ी

मनीष मिश्र

लखनऊ। गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में पैदा हुई ऑक्सीजन की किल्लत को अगर तत्कालीन प्रिंसिपल राजीव मिश्रा चाहते तो अन्य मद का पैसा गैस सप्लाई करने वाली कंपनी को ट्रांसफर करके रोक सकते थे। अस्पताल प्रबंधन से लेकर गैस सप्लाई करने वाली कंपनी नैतिकता को भूलकर लेटरबाजी करते रहे।

गाँव कनेक्शन से बात करते हुए महानिदेशक मेडिकल शिक्षा केके गुप्ता ने बताया, “अस्पताल के अकांउट में दूसरे मदों के करीब 1.25 करोड़ रुपए थे, जो प्रिंसिपल चाहते तो कंपनी को ट्रांसफर कर सकते थे।” साथ ही वह आगे बताते हैं, “कंपनी को भुगतान का पत्र विभाग को दो अगस्त, 2017 को मिला था। इसमें भुगतान न किए जाने पर ऑक्सीजन सप्लाई बाधित करने की बात कही गई थी।”

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गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज को अब तक 3.78 करोड़ रुपए जारी किए गए थे, जिसमें से 2.5 करोड़ खर्च होने के बाद 1.25 करोड़ अन्य मदों का पैसा मेडिकल कॉलेज के पास था। डीजीएमई केके गुप्ता सवाल उठाते हैं, “प्रिंसिपल को पता था कि ऑक्सीजन लाइफलाइन है तो उन्होंने इस पैसे से कंपनी को पेमेंट क्यों नहीं किया?” ।

इस पैसे के इस्तेमाल के लिए किसी लिखित इजाजत की जरुरत नहीं थी क्योंकि सरकार ने स्पष्ट किया था कि ऑक्सीजन जैसे जरूरी कार्य किसी हालत में बंद न हों। राजीव मिश्रा ने पैसा ट्रांसफर क्यों नहीं किया, इसके तत्कालिक रूप में उनका छुट्टी पर जाना कारण बताया जा रहा है। लेकिन मीडिया में लगातार कमीशऩबाजी की खबरें आ रही हैं। ये पहली बार नहीं है जब मेडिकल कॉलेज के खाते में पैसे होते हुए चिकित्सीय काम रुके हैं।

वर्ष 2016-17 का साढ़े छह करोड़ रुपये खर्च नहीं होने पर वापस चला गया था, ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली कंपनी के लाखों रुपए बाकी थे। डायरेक्टर मेडिकल एजुकेशन ने वर्ष 2016-2017 का 6.50 करोड़ रुपए वापस होने पर 25 अप्रैल, 2017 को दो सदस्यीय जांच कमेटी बनाई कर जांच शुरू की थी, जिसने 13 अगस्त 2017 को रिपोर्ट सौंपी है। उस दौरान भी पुष्पा सेल्स प्रा. लिमिटेड के 27 लाख रुपए बाकी थे और मोदी गैस के 10 लाख बाकी थे। इस रिपोर्ट में दो बाबुओं को दोषी पाया गया है, लेकिन वो कभी बयान के लिए कमेटी के सामने नहीं पहुंचे।

बीआरडी अस्पताल के बच्चा वार्ड में तैनात एक कर्मचारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “इस पूरे वाक्ये के लिए प्रिंसिपल साहब और इंसेफ्लाइटिस डिमार्टमेंट के हेड जिम्मेदार हैं। इऩ लोगों ने बहुत नुकसान पहुंचाया है। नौ अगस्त, 2017 को जब मुख्यमंत्री योगी आए थे, इन्होंने पूरी बात छिपाई, तब सब बढ़िया- सब बढिया बोल रहे थे। सरकार को चाहिए इऩ दोनों की जांच कराए, बड़ा घपला निकलेगा।”

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प्रिंसिपल नहीं, उनकी पत्नी चलाती थीं अस्पताल

मनीष मिश्र

लखनऊ। बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली कंपनी का भुगतान न होने पर बढ़े संकट के बाद हुई बच्चों की मौतों के मामले में भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा रहा। तत्कालीन प्रिंसिपल राजीव मिश्र की पत्नी डॉ. पूर्णिमा शुक्ला भी उसी बीआरडी मेडिकल कॉलेज में काम करती थीं, जिनका अस्पताल से होने वाले भुगतान में दखल रहता था।

इस बारे में यूपी के महानिदेशक मेडिकल शिक्षा केके गुप्ता ने गाँव कनेक्शन को बताया, “प्रिंसिपल और उनकी पत्नी एक ही अस्पताल में कार्यरत थे, जो नियमत: गलत था। इस बारे में विधानसभा में भी मामला उठाया था। हम कार्रवाई करने की तैयारी में थे।“

अस्पताल में गैस विभाग के एक ऑपरेटर ने नाम गोपनीय रखने की शर्त पर बताया, “अस्पताल में जो भी काम होता था, उसमें प्रिंसिपल से ज्यादा उनकी पत्नी की भूमिका रहती थी। उन्हीं के इशारे पर किसी भी कंपनी को भुगतान किया जाता था।“

मेडिकल कॉलेज में पूर्व प्रिंसिपल की पत्नी की दखलंदाजी को यहां के पूर्व बाल रोग विभाग के अध्यक्ष रहे वाईडी सिंह जी भी मानते हैं। “मेरे पास भी ऐसे संदेश आते रहते थे, राजीव मिश्रा जो प्रधानाचार्य थे, वो मेरे शिष्य थे, मैंने उन्हें कई बार बताने की कोशिश की, कि समाज में गलत मैसेज जा रहा है, आप ऐसा कोई गलत कदम न उठाएं कि आप की बदनामी हो। ऐसा संदेश न जाए कि आपकी पत्नी का रोल प्रशासन में ज्यादा है।" वाईडी सिंह ने 1975 में बीआरडी कॉलेज में ज्वाइन किया था। 16 साल विभागाध्यक्ष रहने के बाद उन्होंने 2004 में वीआरएस ले लिया।

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ऑपरेटर की चिट्ठी: ‘तीन दिन की बची है ऑक्सीजन’

दीपांशु मिश्रा

गोरखपुर/लखनऊ। अस्पताल में लिक्विड ऑक्सीजन के संकट को भांपते हुए वहां संविदा पर वार्ड नंबर 112 में काम कर रहे तीन सेंट्रल पाइप लाईन ऑपरेटर-कृष्ण कुमार, कमलेश तिवारी, बलवन्त गुप्ता ने विभागाध्यक्ष को 3 अगस्त, 2017 को पत्र लिखकर अवगत कराया था।

पुष्पा सेल्स के मैनेजर दिपांकर ने लिक्विड गैस का पैसा न मिलने की वजह से ऑक्सीजन देने से इनकार कर दिया है, जनहित को देखते हुए कृपा करके लिक्विड आक्सीजन गैस को जल्द से जल्द उपलब्ध कराने की कृपा करें क्योंकि लिक्विड गैस तीन दिन में ही खत्म हो जाएगी। इस पत्र की प्रतिलिपि प्रधानाचार्य बीआरडी कॉलेज, प्रमुख चिकित्सा अधीक्षक नेहरू चिवि गोरखपुर को भेजी गई थी। इसके अलावा विभागाध्यक्ष एनिस्थीसिया विभाग, नोडल अधिकारी एनएचएम मेडिकल कॉलेज गोरखपुर को भी भेजी गई थी।

ऑपरेटर ने लिखा था पत्र।

इसके बाद इन तीनों संविदाकर्मियों ने दिनांक 10-8-2017 को विभागाध्यक्ष को फिर पत्र लिख कर अवगत कराया, “आज प्रात: 11.20 पर लिक्विड आक्सीजन की रीडिंग 900 है, जो आज रात तक ही सप्लाई हो पाना संभव है। पुष्पा सेल्स के अधिकारी से बार-बार बात करने पर पिछला भुगतान न करने का हवाला देते हुए ऑक्सीजन की सप्लाई को इनकार कर दिया। तत्काल ऑक्सीजन की व्यवस्था न होने पर समस्त वार्डों में भर्ती मरीजों की जान को खतरा है। अत: श्रीमान जी से निवेदन है कि तत्काल ऑक्सीजन की आपूर्ति सुनिश्चित कराने की कृपा करें।“

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एक दिन के हीरो रहे क़फ़ील अब कठघरे में

अरविंद शुक्ला/ आशुतोष ओझा

गोरखपुर/लखनऊ। गोरखपुर मामले में डॉ. कफील खान का नाम सबसे ज्यादा सुर्खियों में रहा है। वो हादसे वाली रात से ही मीडिया में छाए हुए थे। पहले वो फरिश्ते बताए गए और अब उन पर सवाल उठ रहे हैं।

डॉ. कफील खान गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में बाल रोग विभाग के इंसेफ्लाइटिस वार्ड के चीफ नोडल अधिकारी थे, जो 3 साल 4 महीने से तैनात थे। बच्चों की मौत के बाद अस्पताल के दौरे पर पहुंचे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उन्हें पद से हटा दिया। उन पर कई गंभीर आरोप हैं।

पहला आरोप

सीएम को क्यों नहीं बताई गई गैस की किल्लत?

यूपी सीएम योगी 9 अगस्त को बीआरडी अस्पताल के दौरे पर गए थे। उस दौरान उन्होंने प्रिंसिपल, डिपार्टमेंट हेड, डॉक्टरों से पूछा था कि कुछ दिक्कत तो नहीं, तो जवाब सब सही में मिला था। खुद मुख्यमंत्री ने लखनऊ में हादसे के बाद कहा कि ऐसी किसी किल्लत या परेशानी के बारे में नहीं बताया गया।

और जब 13 अगस्त को दोबारा सीएम इस अस्पताल पहुंचे तो उन्होंने समीक्षा के दौरान कई लोगों को लताड़ लगाई। बताया जा रहा है सीएम ने डिपार्टमेंट हेड से पूछा कि एक दिन में कितने ऑक्सीजन सिलेंडर की जरुरत होती है तो बताया गया कि 21 सिलेंडर। जबकि अस्पताल में उस दौरान 52 सिलेंडर होने की बात कही जा रही है। समीक्षा के दौरान सीएम ने कहा कि सिर्फ तीन सिलेंडर के लिए फिर क्यों हीरो बनने चले थे।

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दूसरा आरोप

अस्पताल की प्रॉपर्टी का दुरुपयोग?

बीआरडी मेडिकल कॉलेज में 16 साल बाल रोग विभाग के पूर्व मुखिया रहे डॉ. वाईडी सिंह ने कहा, “डॉ. कफील के रात में सिलेंडर लेकर आने की बात पर संदेह होता है। ये भी हो सकता है कि वो सिलेंडर अस्पताल के हों और उन्हें मामला बढ़ने पर वापस अस्पताल लाया जा रहा हो।“

डॉ. सिंह डॉ. कफील के बार-बार मीडिया से बातचीत करने और रात में 3 बजे मीडिया के पहुंचने पर भी सवाल उठाते हैं। डॉ. वाईडी सिंह कहते हैं, “जब 10 अगस्त को 52 सिलेंडर अस्पताल में मौजूद थे तो 3 के लिए इतनी भागदौड़ करने की क्या जरुरत थी, आप डिपार्टमेंट के हेड थे आपको चाहिए था कि जूनियर डाक्टरों को उस दौरान गाइड करते। डॉ. कफील उस समिति के सदस्य भी हैं, जो अस्पताल के लिए जरूरी सामान की खरीद-फरोख्त करती है। यानि डॉ. कफील को जानकारी जरूर रही होगी कि गैस की किल्लत होने वाली है और कंपनी के पैसे बाकी हैं।“ खुद एक ऑक्सीजन ऑपरेटर ने 3 अगस्त को ही लेटर लिखा था, जिसमें डॉ. कफील को भी लिया गया था। अस्पताल से जुड़े कई कर्मचारियों, स्थानीय पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी इस मामले की गहराई से जांच की मांग की है।

तीसरा आरोप

भगवान की कसम खाई कि प्राइवेट प्रैक्टिस नहीं करूंगा, फिर रंगे हाथ पकड़े गए

दस जनवरी,2017 को एक आरटीआई के तहत बीआरडी के सभी डॉक्टरों से सूचना और शपथपत्र मांगा गया था कि वो निजी प्रैक्टिस नहीं करते। पांच फरवरी, 2017 को गोरखपुर से प्रकाशित आई नेक्स्ट अखबार ने स्टिंग किया, जिसमें डॉ. कफील समेत कई डॉक्टर रंगे हाथ निजी प्रैक्टिस करते पकड़े गए।

कफील के अलावा जो आई नेक्स्ट की ख़बर में डॉ. माहिम मित्तल जो मेडिसिन डिपार्टमेंट के हेड थे, वो सरकारी आवास में मोटी फीस लेकर मरीज देखते पकड़े गए थे। जबकि एक और डॉक्टर की ख़बर प्रकाशित हुई थी वो मस्तिष्क बुखार के विशेषज्ञ डॉ, एके ठक्कर, के बारे में थी, उनकी तैनाती लखनऊ में थी, लेकिन गोरखपुर के सरकारी आवास में हर रविवार को मरीज देखने जरूर पहुंचते थे। डॉ. कफील पर आरोप है कि वो अस्पताल से छुट्टी लेकर निजी प्रैक्टिस करते थे। इंसेफ्लाइटिस विभाग में तैनात एक कर्मचारी ने फोन पर बताया, “सब डॉक्टर घर पर मरीज देखते हैं, आप ऐसे समझिए कि 2 बार मरीज अस्पताल में देखा तो तीसरी बार उसका घर या क्लीनिक पर पहुंचना तय है।”

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डॉ. कफील 50 बेड वाला अस्पताल चालते हैं, जिसकी मालिक उनकी पत्नी और डेंटिस्ट डॉ. शबिस्ता खान हैं। आरोप है कि वो लगातार छुट्टियां लेकर निजी प्रैक्टिस करते थे। डॉ. शबिस्ता खान के अस्पताल का नाम मेडिस्पिंग चिल्ड्रेन हॉस्पिटल है, जो रुस्तम नगर में नहर रोड पर है। फिलहाल इस अस्पताल पर ताला लगा हुआ है।

रुस्तमपुर में उनका काफी जलवा है। कई लोग उनके समर्थन में बोले, वहीं पर दुकान चलाने वाले जमशेद ने कहा कि वो 2015 के बाद से अस्पताल नहीं आते थे, उन्हें राजनीतिक कारणों से फंसाया गया। लेकिन अमरेंद्र कुमार रुस्मतपुर निवासी हैं, डॉ. कफील पर गंभीर आरोप लगाते हैं, वो कहते हैं, एक सरकारी डॉक्टर इतने पैसे कमा सकता है भला, उनका बहुत बड़ा व्यापार हो गया है, अस्पताल के सारे मरीज (बीआरडी) यहां ले आते हैं। उन्होंने अस्पताल का बहुत फायदा उठाया है।

डॉ. कफील पर रेप का आरोप और उनके सियासी ट्वीटर और रिश्तों को अगर उजागर कर दिया जो तो भी जो ऊपर तीन आरोप हैं वो सवाल खोज रहे हैं। गाँव कनेक्शन ने कई बार कफील से बात करने की कोशिश की लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो सका।

‘दाल में कुछ काला है’

आशुतोष ओझा/दीपांशु मिश्रा, स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क

गोरखपुर। “कहीं ऐसा प्रतीत नहीं होता कि ऑक्सीजन की कमी से मौतें हुईं क्योंकि ज्यादातर बच्चों में ऑक्सीजन की कमी से मौत के लक्षण नहीं दिखे। इसकी जांच अधिकारियों से नहीं, टेक्निकल लोगों से होनी चाहिए, क्योंकि दाल में कुछ काला जरूर है।” यह सवाल बीआरडी मेडिकल कॉलेज के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. वाईडी सिंह उठाते हैं।

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गोरखपुर में रहने वाले डॉ. वाईडी सिंह 16 साल तक विभागाध्यक्ष रहे हैं, जिसके तहत आने वाले इंसेफ्लाइटिस वार्ड में इऩ बच्चों की मौत हुई है और डॉ. कफील जिस वार्ड के प्रभारी थे। गाँव कनेक्शन से बातचीत में डॉ. सिंह ने कई सवाल उठाए।

डॉक्टर वाईडी सिंह।

वो कहते हैं, “इंसेफ्लाइटिस वार्ड के प्रभारी डॉ. कफील खान का काम संदेह के घेरे में है। जब उस दिन अस्पताल में 52 सिलेंडर थे तो 3 सिलेंडर लेने के लिए वो अपने अस्पताल क्यों गए। फिर तीन बजे पत्रकार कैसे वहां पहुंचे? अगर ऑक्सीजन की कमी थी तो उन्हें किसी और को भेजना चाहिए था, उन्हें वहां रहकर जूनियर डॉक्टरों को गाइड करना चाहिए था।”

डॉ. सिंह की बातें इस लिए भी वजनदार हैं क्योंकि वो बीआरडी की नस-नस से वाकिफ हैं। वर्ष 1975 में बीआरडी मेडिकल कॉलेज में लेक्चरर पद से जॉब की शुरुआत की और बाद में यहीं पर बाल रोग अध्यक्ष बने। वर्ष 2004 में स्वेच्छा से इस्तीफा देकर अपना क्लीनिक चलाते हैं।

पूर्व प्रिंसिपल और डॉ. कफील को अपना शिष्य बताते हुए वाईडी सिंह आगे कहते हैं, “हादसे के बाद मैं अस्पताल गया था, डिपार्टमेंट हेड, प्रिंसिपल, कर्मचारी, डॉक्टर सबसे बात की और पूछा कि बच्चे में सिमटम (लक्षण क्या थे)। क्योंकि मृत बच्चों के शव जा चुके थे, लेकिन ऑक्सीजन की कमी पर मौत होने पर कई लक्षण दिखते हैं, जैसे होंठ और जीभ का नीला पड़ जाना, लेकिन ज्यादातर बच्चों में ऐसा नहीं था। य़ानी सभी मौत की वजह ऑक्सीजन की कमी नहीं।”

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बीती 10-11 अगस्त की रात हुए कोहराम को लेकर विस्तार से बात कहते हुए डॉ. सिंह कहते हैं, “एक बारगी देखने में ऐसा लगता है जैसे किसी ने फैसला लेने में या तो जल्दबाजी की या फिर कुछ उसके दिमाग में रहा होगा। हर मरीज के लिए ऑक्सीजन इतनी जरुरी नहीं होती, निमोनिया और ब्लाकेज की बात छोड़कर। और फिर जब ऑक्सीजन नहीं थी तो एम्बु बैग क्यों बांटा गया।”

वो कहते हैं, “ 2-3 दशक पहले एक-एक दिन में 200-250 मरीज आते थे उस वक्त संसाधन कम थे तब भी 10-20 फीसदी मौतें होती थी और अब जब इतने संसाधऩ हैं फिर भी वही रेशियो है। कहीं ऐसा तो नहीं 10-11 तरीख को इतनी ज्यादा मौतों के पीछे कोई आंकडों का खेल हो ?”

डॉ. कफील के साथ वो पूर्व प्रिंसिपल राजीव मिश्रा पर भी सवाल उठाते हैं। “मैं एक जागरूक नागरिक हूं और मैंने राजीव को कई बार बताने की कोशिश कि जो बातें समाज तक पहुंच रही हैं वो ठीक नहीं, आपकी पत्नी का इतना दखल आपकी कुर्सी की बदनामी करवा रहा है। हां ये मेरी चूक थी कि मैने शासन में किसी से लिखित में ऐसी कोई शिकायत नहीं की थी।”

डॉ. वाईडी सिंह कहते हैं, “मैंने रविवार को डॉ. कफील को भी समझाने के लिए कई बार कॉल किया, लेकिन उन्होंने फोन नहीं उठाया। अस्पताल में चल रह कार्यों की सही तरीके से जांच होनी ही चाहिए। अगर मैं जांच करुंगा तो प्रशासन की जिम्मेदारी पर भी सवाल उठेंगे, डीएम महोदय के पास भी 2 करोड़ का इमरजेंसी कोष होता है, भुगतान उससे क्यों नहीं कराया गया।”

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‘परिजन खरीदकर लाते हैं मास्क और दस्ताना’

विनय गुप्ता

गोरखपुर। “हम लोग यहाँ मजबूरी में काम करते हैं। न बिजली है, न और कोई सुविधा। इस कमरे में भूत तो आ ही जाएगा। यहां कोई नहीं आता। केवल हम और हमारा साथी मोहन और लाशें हमारे साथ होती हैं।“ ये कहते हैं अब्दुल हक़ीम।

भारत के अखबारों से लेकर टीवी चैनलों पर इन दिनों गोरखपुर का बीआरडी मेडिकल कॉलेज चर्चा का प्रमुख विषय बना हुआ है। अस्पताल के मुख्य गेट अंदर जाने के बाद सीधे 100 मीटर चलने पर अस्पताल का इमरजेंसी गेट है। उसी के सामने तीन कमरों का पोस्टमार्टम हाउस है। जहां रोजाना कई डेड बॉडी पोस्टमार्टम के लिए आती हैं। बाहर से खूबसूरत दिखने वाले इस कमरे में शायद ही कोई अंदर जा पाये, लेकिन यहां आपको अब्दुल हक़ीम (42) और मोहन (30) स्वीपर मिल जाएंगे।

अब्दुल हक़ीम कहते हैं, “हम अस्पताल से ही तीन किमी दूर मानबेला खास गाँव में रहते हैं। यहां सविंदा पर नौकरी करते हैं और परमानेंट करने के लिए यहां के पूर्व वीसी ने 20 हज़ार रुपए की मांग की थी। हमारे लिए यहां न तो कोई सुविधा है और न ही किसी प्रकार का साधन। अस्पताल में मरने वाले लोगों को जब यहां पोस्टमार्टम के लिए लाया जाता है। हमारे पास दस्ताना तक नहीं होता है, मास्क तो दूर की बात है। कमरे में कीड़े रेंगते रहते हैं।“

यह पूछने पर की जब अस्पताल से मास्क या दस्ताना नहीं मिलता तो आप काम कैसे करते हैं। तो अब्दुल हक़ीम कहते हैं, “अरे भइया हम लोग बिना किसी सुविधा के अंदर नहीं जाते, ना ही बॉडी को हाथ लगाते हैं। जिस फैमिली की बॉडी होती है वही हमें ये सब खरीद कर देती है। जिसके बाद हम बॉडी की चीर फाड़ करते हैं। यहाँ रोज दो से चार बॉडी पोस्टमार्टम के लिए आती हैं, अगर हम बिना सुविधा के काम करेंगे तो मर जाएंगे।“

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अस्पताल में ही ऑक्सीजन प्लांट में मिस्त्री के पद पर काम करने वाले रमेश राम (35) कहते हैं, ”हम तीन सालों से कार्यरत हैं। लेकिन अस्पताल में इतनी गंदगी है कि यहां मरीजों के साथ आने वाला सामान्य इंसान भी बीमार पड़ जाए। मंत्री जी आते हैं, अस्पताल के अंदर तुरंत सफाई शुरू हो जाती है, लेकिन अस्पताल के कैंपस में फैली गंदगी को कोई नहीं देखता।“

वो कहते हैं, “हम अस्पताल के गैस प्लांट के पास बने कमरे में रहते हैं। यहां के नालियों में डॉक्टर इलाज में उपयोग होने वाले सुइयों को फेंक देते हैं। कभी-कभी तो ऑपरेशन के बाद मांस के टुकड़े भी नालियों में फेंक देते हैं, अगर आपको यकीन ना हो तो चलिए अभी हम आपको लिए चलते हैं।“

गुस्साते हुए वो कहते हैं, “हम अब्दुल हक़ीम को दो साल से जानते हैं, लेकिन उनका काम देखकर हम भी उन्हें कुछ बोल नहीं पाते। वो तो सड़ती हुई लाश को सिलते हैं, कहीं चोट वगैरह के निशान हो तो वो जगह को सही करते हैं। अरे कभी-कभी तो दस-दस दिन तक लाश सड़ती रहती हैं, और हम उसे पाउडर छिड़कर बदबू से बचाते हैं। लेकिन उसमें कीड़ा तो लग ही जाता है।“ यह पूछने पर कि इतने दिन तक लाश को यहां क्योँ रखा जाता है। तो वह कहते हैं कि जब तक डॉक्टर का आदेश नहीं होता है, हम लाश को उनकी फैमिली के हवाले नहीं करते हैं। कभी-कभी डॉक्टर भी पोस्टमार्टम करने में कई दिन लगा देते हैं।

बात करके निकले ही थे चार लोग एक लाश को लेने के लिए आए। उनमे से 45 साल का युवक विजय बहादुर साहनी नेपाल के भैरावां गाँव रहने वाले बोले कि दादा हम यहां पड़ोसी की लाश लेने आये हैं। 12 तारीख को उनके पड़ोसी धनई (32) ने मिट्टी का तेल डालकर आत्मदाह करने की कोशिश की थी। यहां लाकर भर्ती करने के बाद रविवार को उनकी मौत हो गयी। उसके बाद जब हम पोस्टमार्टम कराने के लिए लेकर आये, तो हमे ही दस्ताना, मास्क और अन्य चीज़ें लेकर स्वीपर को देना पड़ा। जिसमे हमारा एक हज़ार रूपया खर्च हो गया।

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‘ऐसे ही काम करते हैं’

अब्दुल हक़ीम कहते हैं, “हां शराब पी रखी है, कमरे के अंदर के अंदर चलिए, आप बिना मास्क के अंदर नहीं जा पाओगे। लेकिन हमारा काम ही यही है। तो हम बिना पिये नहीं जा सकते। क्योंकि उस कमरे में ना तो सफाई है और ना ही बिजली। लाश को रखने के लिए फ्रीजर भी लाये गए हैं, लेकिन बिजली ना होने के कारण वो बेकार ही पड़ा है।”

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