संविधान के दायरे में ही लागू होगा पर्सनल लॉ: उच्च न्यायालय  

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
संविधान के दायरे में ही लागू होगा पर्सनल लॉ: उच्च न्यायालय  इलाहाबाद उच्च न्यायालय

इलाहाबाद (आईएएनएस/आईपीएन)। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मुस्लिम पति द्वारा पत्नी को तीन तलाक दिए जाने के बाद दर्ज दहेज उत्पीड़न के मुकदमे की सुनवाई करते हुए तीन तलाक और फतवे पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। न्यायालय ने कहा है कि कोई भी पर्सनल लॉ संविधान से ऊपर नहीं है, और वह संविधान के दायरे में ही लागू हो सकता है।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एसपी केसरवानी की एकल पीठ ने तीन तलाक से पीड़ित वाराणसी की सुमालिया द्वारा पति अकील जमील के खिलाफ दर्ज दहेज उत्पीड़न के मामले की सुनवाई करने के बाद यह व्यवस्था दी है। न्यायालय ने दहेज उत्पीड़न के मामले को रद्द करने से भी इंकार कर दिया है।

देश-दुनिया से जुड़ी सभी बड़ी खबरों के लिए यहां क्लिक करके इंस्टॉल करें गाँव कनेक्शन एप

याची अकील जमील ने याचिका में कहा था कि उसने पत्नी सुमालिया को तलाक दे दिया है और दारुल इफ्ता जामा मस्जिद आगरा से फतवा भी ले लिया है और इस आधार पर उस पर दहेज उत्पीड़न का दर्ज मुकदना रद्द होना चाहिए। न्यायालय ने कहा है कि कोई भी पर्सनल लॉ संविधान के दायरे में ही लागू हो सकता है, और ऐसा कोई फतवा मान्य नहीं है, जो न्याय व्यवस्था के विपरीत हो।

न्यायालय ने एसीजेएम वाराणसी के समन आदेश को सही करार देते हुए कहा है, ''प्रथम द्रष्टया आपराधिक मामला बनता है, फतवे को कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है, इसलिए इसे जबरन थोपा नहीं जा सकता है। यदि इसे कोई लागू करता है तो अवैध है और फतवे का कोई वैधानिक आधार भी नहीं है।''

न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि पर्सनल लॉ के नाम पर मुस्लिम महिलाओं सहित सभी नागरिकों को प्राप्त अनुच्छेद 14, 15 और 21 के मूल अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने कहा है कि जिस समाज में महिलाओं का सम्मान नहीं होता है, उसे सभ्य नहीं कहा जा सकता है। न्यायालय ने कहा है कि लिंग के आधार पर भी मौलिक अधिकारों और मानवाधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने कहा है कि मुस्लिम पति ऐसे तरीके से तलाक नहीं दे सकता है, जिससे समानता और जीवन के मूल अधिकारों का हनन होता हो।

न्यायालय के फैसले पर वरिष्ठ इस्लामिक धर्मगुरु खालिद राशिद फिरंगी महली ने कहा कि यह मामला शरियत और इस्लाम के सिद्धांतों के अंतर्गत आता है और किसी को भी इसका मनमाना मतलब निकालने का अधिकार नहीं है। उन्होंने कहा, ‘’यह मामला व्यक्तिगत विश्वास का है और अगर अदालत को लगता है कि इससे संविधान का उल्लंघन होता है तो उन्हें संविधान के अनुसार कार्रवाई करनी चाहिए, क्योंकि संविधान ही हमें इस तरह के मामलों में पर्सनल लॉ का अनुपालन करने की अनुमति देता है।’’

मुस्लिम समुदाय को इस तरह के बे सिर-पैर के मुद्दों को लेकर निशाना बनाए जाने के लिए संस्थानों पर निशाना साधते हुए कहा कि अदालत पहले अपने यहां तलाक के लिए लंबित मामलों को निपटाने पर ध्यान लगाए। एक अन्य धर्मगुरु वली फारूकी ने कहा कि तीन तलाक 'खालिस मजहबी मसला' है, जिसमें किसी को हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है।

इस मसले को उछालकर अल्पसंख्यक समुदाय को भयभीत करने की इच्छा रखने वाले लोगों पर निशाना साधते हुए वली फारूकी ने अदालत से अनुरोध किया कि वही रास्ता बताए कि तब क्या किया जाए, जब पति और पत्नी एकदूसरे से अलग होना चाहें। कानून के जानकार अनुराग अवस्थी का हालांकि कहना है कि उच्च न्यायालय के पास इस मामले पर फैसला सुनाने का पूरा अधिकार है। उन्होंने कहा, ''यह अजीब बात है, जब मुस्लिम आपराधिक मामलों में शरीयत का पालन नहीं करते तो वे इसे गैर-अपराधिक मामलों में इसका सहारा क्यों लेते हैं।''

ताजा अपडेट के लिए हमारे फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए यहां, ट्विटर हैंडल को फॉलो करने के लिए यहां क्लिक करें।

     

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.