अभयानंद कृष्ण
गोरखपुर। डेल्टा थ्री…लोकेशन..कारतूस और ड्यूटी जैसे शब्दों पर विराम लगा। वायरलेस का माउथपीस हाथ से छूटा तो साहब को अचानक याद आई एक गाँव मे कोटे की दुकान के चयन की।
बगल की कुर्सी से मुखातिब होते चयन की तारीख तस्दीक किये और फिर ब्लूटूथ इयरफोन के ज़रिए साहब की भारी-मोटी आवाज़ उस गाँव के प्रधान जी से जुड़ चुकी थी। “चुनाव है न आज, देसी मुर्गे का इंतज़ाम कर लीजिए….अच्छा..नहीं-नहीं आज मंगल है कल भेजवाईये”
आज साढ़े नौ बजे थे जब घुघली थाने में प्रवेश किया। थाने के लिखने-पढ़ने वाले साहब की कुर्सी जम गई थी। गुटखे की पीक नीचे रखे पीकदान को सुपुर्द किये, आने का सबब पूछे। फिर अपनी ड्यूटी में मसरूफ। अब यह संवाद भी उस ड्यूटी का ही हिस्सा था..कह नहीं सकते। खैर हम जो कह रहे हैं उसे गांधी और पटेल की तस्वीरें तो नहीं तस्दीक कर सकतीं।
दाहिने हाथ वाले अम्बेडकर जी भी नहीं बोल सकते लेकिन यकीन चाहिए तो साढ़े नौ से दस के बीच साहब के बड़े वाले फ़ोन की कॉल डिटेल्स देखनी होगी। उस प्रधान जी के फ़ोन की भी जिन्हें कल मुर्गे का इंतज़ाम करना ही है। देसी मुर्गे का इंतज़ाम।