विदेशी धन पर आश्रित संस्थाओं में विकास की सोच गौण

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विदेशी धन पर आश्रित संस्थाओं में विकास की सोच गौणgaoconnection

कुछ समय पहले भारत सरकार के खुफिया विभाग ने एक रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी, जिस पर मीडिया में खूब चर्चा हुर्ह थी। इसके बाद मोदी सरकार ने एफसीआरए यानी विदेशी अनुदान स्वीकार करने की अनुमति पर अंकुश लगाया है। अनेक स्वयंसेवी  संस्थाएं इस रिपोर्ट के अनुसार विदेशों से दान हासिल करने से वंचित हो गई हैं। यह जांच पिछली यूपीए सरकार ने बिठाई थी जिसकी रिपोर्ट मोदी सरकार के पास आई है। रिपोर्ट के बाद अनेक सच्ची संस्थाएं भी लाभ से वंचित हो गई हैं।

स्वयंसेवी संस्थाएं प्रायः दो प्रकार की होती हैं, एक तो रचनात्मक जिनका नाम मीडिया में अधिक नहीं आता है। दूसरी आन्दोलनात्मक जो मीडिया में छाई रहती हैं। रचनात्मक संस्थाएं शिक्षा, स्वास्थ्य और प्रशिक्षण जैसे काम करती हैं और उन पर यह आरोप नहीं लग सकता कि वे विकास में बाधक हैं। आन्दोलनात्मक स्वरूप की संस्थाएं प्रायः अणुशक्ति, पर्यावरण, जीव संरक्षण, सोशल ऑडिट जैसे कामों पर समाज को आन्दोलित करती हैं। विद्युत उत्पादन जैसी विकास परियोजनाओं से टकराव होता हैं और विकास के काम धीमे पड़ जाते हैं।

नर्मदा बचाओ आन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाली मेधा पटकर ने लगातार नर्मदा बांध की ऊंचाई बढ़ानेे का विरोध किया है। इस प्रकार के आन्दोलन के लिए विदेशी धन की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए थी क्योंकि तब विदेशियों के इशारे पर चलना पड़ेगा। इसके विपरीत सुन्दर लाल बहुगुणा ने चिपको आन्दोलन चलाया था जिसमें पेड़ काटने का विरोध किया गया था, पुरुष और महिलाएं पेड़ से चिपक जाती थीं और पहाड़ों पर पेड़ नहीं काटने देते थे । इसके लिए विदेशी धन की आवश्यकता नहीं पड़ी और पेड़ भी बच गए।

विदेशी सरकारें नहीं चाहतीं कि भारत में परमाणु शक्ति का विकास हो और भारत में बड़ी मात्रा में कोयले से ताप विद्युत यानी बिजली उत्पादन हो या फिर बड़े बांध बनाकर जलविद्युत का उत्पादन हो। उन्होंने सरल तरीका अपनाया है, हमारे देश की स्वयंसेवी संस्थाओं को धन देकर इन तमाम परियोजनाओं का विरोध करने के लिए तैयार किया है। पर्यावरण के नाम पर पेड़ों के कटने को बिल्कुल रोकने से देश की सीमाओं पर सड़कें नहीं बन पाई हैं, जिससे हमारे देश की सुरक्षा पर खतरा है। 

हमारे देश के विकास को रोकने के लिए ग्रीनहाउस गैसों की दुहाई दी जाती है जो दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग यानी गर्मी बढ़ा रही है। अमेरिका जैसे देश अपनी आबादी से कई गुना ग्रीन हाउस गैसें पैदा कर रहे हैं जबकि भारत की आबादी दुनिया में 17 प्रतिशत हैं जो ग्रीनहाउस गैसें केवल 2 प्रतिशत छोड़ती हैं। उचित होगा कि अमेरिका जैसे देश अपने उन विकास कार्यों को बंद करें जिनसे क्लोरोफ्लोरोकार्बन जैसी ग्रीनहाउस गैसें पैदा होती हैं। उनकी चिंता है धान की खेती से मीथेन और कोयला जलाने से निकलने वाली कार्बन डाइआक्साइड गैसों की, जिनके बिना गरीब देशों की जीवन रेखा टूट जाए‍ंगी।

विदेशी चन्दा लेकर राजनीति करना और चुनाव लड़ना कोई समाज सेवा नहीं है। आम आदमी पार्टी में बहुत से लोग हैं जो अब तक अपने को समाजसेवी कहते आए हैं और अब चुनाव लड़े और सक्रिय राजनीति में आ गए हैं। क्या विदेशी दानदाताओं ने राजनीति के लिए भी चन्दा देना आरम्भ कर दिया है? 

अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे लोग भारतीय चन्दे के बल पर ही समाज सेवा कर लेते हैं, विकास परियोजनाओ का विरोध नहीं करते। इसी प्रकार विदेशी दानदाता भी शिक्षा के लिए अपना योगदान करते हैं जो सराहनीय है। हम्बोल्ट, फुलब्राइट और फोर्ड फाउन्डेशन जैसी संस्थाएं शिक्षा के लिए अनुदान देती हैं। इन पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

अब सरकार ने प्रतिबंध लगाया है कि भारत के रिज़र्व बैंक के माध्यम से ही विदेशी अनुदान स्वीकार किया जाए। यदि किसी समाजसेवी संस्था के व्यवस्था प्रमुख सक्रिय राजनीति में कूद पड़ें और संस्था का धन राजनीतिक गतिविधियों पर व्यय करते पाए गए तो ऐसी संस्थाओं का पंजीकरण रद्द करने की व्यवस्था होनी चाहिए। 

सामाजिक और राजनैतिक क्रिया कलापों की स्पष्ट व्याख्या होनी चाहिए जिससे पंजीकृत समाजसेवी संस्थाएं राजनैतिक गतिविधियों में लिप्त ना हों ।

 

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